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1775 ई. में [[अवध]] की गद्दी पर बैठने के बाद आसफ़उद्दौला ने [[ईस्ट इंडिया कम्पनी]] के साथ [[फैजाबाद]] की संधि की, जिसके अंतर्गत उसने अवध में ब्रिटिश सेना रखने के लिए एक बड़ी धनराशि देना स्वीकार किया। अवध का प्रशासन भ्रष्ट और कमज़ोर था, अत: नियत धनराशि न दे सकने के कारण नवाब पर कम्पनी का बक़ाया चढ़ गया। 1781 ई. तक [[मैसूर]], [[मराठा|मराठों]] तथा [[चेतसिंह]] से हुई लड़ाइयों के कारण कम्पनी को रुपये की बड़ी आवश्यकता थी। [[गवर्नर-जनरल]] वारेन हेस्टिंग्स ने अवध के नवाब से बक़ाय की रक़म को चुकता कर देने के लिए ज़ोर डाला, लेकिन नवाब ने भुगतान करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुआ कि, '''मैं भुगतान उस समय कर सकता हूँ, जब मुझे उस बड़ी जागीर तथा दौलत पर अधिकार का दावा दिया जाए, जो मेरी माँ और दादी ने हथिया ली है।''' | 1775 ई. में [[अवध]] की गद्दी पर बैठने के बाद आसफ़उद्दौला ने [[ईस्ट इंडिया कम्पनी]] के साथ [[फैजाबाद]] की संधि की, जिसके अंतर्गत उसने अवध में ब्रिटिश सेना रखने के लिए एक बड़ी धनराशि देना स्वीकार किया। अवध का प्रशासन भ्रष्ट और कमज़ोर था, अत: नियत धनराशि न दे सकने के कारण नवाब पर कम्पनी का बक़ाया चढ़ गया। 1781 ई. तक [[मैसूर]], [[मराठा|मराठों]] तथा [[चेतसिंह]] से हुई लड़ाइयों के कारण कम्पनी को रुपये की बड़ी आवश्यकता थी। [[गवर्नर-जनरल]] वारेन हेस्टिंग्स ने अवध के नवाब से बक़ाय की रक़म को चुकता कर देने के लिए ज़ोर डाला, लेकिन नवाब ने भुगतान करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुआ कि, '''मैं भुगतान उस समय कर सकता हूँ, जब मुझे उस बड़ी जागीर तथा दौलत पर अधिकार का दावा दिया जाए, जो मेरी माँ और दादी ने हथिया ली है।''' | ||
− | + | अवध की बेगमें आसफ़उद्दौला को 250,000 पौंड की धनराशि पहले दे चुकी थी। 1775 ई. में ब्रिटश रेजीडेन्ट [[मिडिल्टन]] के समझाने पर 300,000 पौंड उन्होंने पुन: दिया। इससे कम्पनी का पावना (प्राप्त करने वाली वस्तु या धन) अदा कर दिया गया। [[कोलकाता|कलकत्ता]] स्थित कौंसिल ने बेगमों को आश्वासन दिया था कि भविष्य में उनसे माँग नहीं की जाएगी। वारेन हेस्टिंग्स ने इस प्रकार का वचन देने का विरोध किया था, किन्तु कौंसिल के अन्दर मतदान में वह पराजित हो गया था। इसके बाद ही 1780 ई. में [[चेतसिंह]] कांड हुआ। | |
− | अवध की बेगमें आसफ़उद्दौला को 250,000 पौंड की धनराशि पहले दे चुकी थी। 1775 ई. में ब्रिटश रेजीडेन्ट [[मिडिल्टन]] के समझाने पर 300,000 पौंड उन्होंने पुन: दिया। इससे कम्पनी का पावना अदा कर दिया गया। [[कोलकाता|कलकत्ता]] स्थित कौंसिल ने बेगमों को आश्वासन दिया था कि भविष्य में उनसे माँग नहीं की जाएगी। वारेन हेस्टिंग्स ने इस प्रकार का वचन देने का विरोध किया था, किन्तु कौंसिल के अन्दर मतदान में वह पराजित हो गया था। इसके बाद ही 1780 ई. में [[चेतसिंह]] कांड हुआ। | ||
====आसफ़उद्दौला की असमर्थता==== | ====आसफ़उद्दौला की असमर्थता==== | ||
− | हेस्टिंग्स [[अवध]] की बेगमों से नाराज़ था, क्योंकि 1775 ई. में उन्होंने कौंसिल में उसके विरोधियों का समर्थन प्राप्त किया था। अत: 1781 ई. में अवध के नवाब ने जब बक़ाया भुगतान करने में उस समय तक अपनी असमर्थता व्यक्त की, जब तक उसे अपनी | + | हेस्टिंग्स [[अवध]] की बेगमों से नाराज़ था, क्योंकि 1775 ई. में उन्होंने कौंसिल में उसके विरोधियों का समर्थन प्राप्त किया था। अत: 1781 ई. में अवध के नवाब ने जब बक़ाया भुगतान करने में उस समय तक अपनी असमर्थता व्यक्त की, जब तक उसे अपनी माँ और दादी की दौलत न दी जाए, तो हेस्टिंग्स ने तत्काल उसके अनुरोध को स्वीकार कर ब्रिटिश रेजिडेन्ट मिडिल्टन को आदेश दिया, कि वह बेगमों पर बक़ाये की धनराशि का भुगतान करने के लिए ज़ोर डाले। |
====ब्रिस्टों की यातनाएँ==== | ====ब्रिस्टों की यातनाएँ==== | ||
चूँकि रेजीडेन्ट मिडिल्टन ने ज़ोर-ज़बरर्दस्ती करने में समुचित तत्परता नहीं दिखाई, अत: उसके स्थान पर ब्रिस्टों को नियुक्त कर दिया गया, जिसने बेगमों के उच्च पदस्थ कर्मचारियों को क़ैद में डलवा दिया, उनको बेड़ियाँ डलवा दीं। उनका भोजन भी बन्द करवा दिया था और कदाचित उनको कोड़े भी लगवाये। उन्हें इतनी कठोर यातनाएँ दी गईं कि उनकी दुर्दशा देखकर स्वयं नवाब भी विचलित होने लगा, किन्तु हेस्टिंग्स टस से मस नहीं हुआ और कोई समझौता वार्ता चलाने अथवा दया प्रकट करने की मनाही कर दी। आख़िर में बेगमों को बाध्य होकर धन देना पड़ा, जिसके सम्बन्ध में कलकत्ता स्थित कौंसिल ने 1775 ई. में उन्हें गारन्टी दी थी कि अब उनसे धन की कोई माँग नहीं की जाएगी। सारा मामला निसंदेह घिनावना, क्षुद्रतापूर्ण और राज्य की आवश्यकताओं को देखते हुए भी अनुचित था। | चूँकि रेजीडेन्ट मिडिल्टन ने ज़ोर-ज़बरर्दस्ती करने में समुचित तत्परता नहीं दिखाई, अत: उसके स्थान पर ब्रिस्टों को नियुक्त कर दिया गया, जिसने बेगमों के उच्च पदस्थ कर्मचारियों को क़ैद में डलवा दिया, उनको बेड़ियाँ डलवा दीं। उनका भोजन भी बन्द करवा दिया था और कदाचित उनको कोड़े भी लगवाये। उन्हें इतनी कठोर यातनाएँ दी गईं कि उनकी दुर्दशा देखकर स्वयं नवाब भी विचलित होने लगा, किन्तु हेस्टिंग्स टस से मस नहीं हुआ और कोई समझौता वार्ता चलाने अथवा दया प्रकट करने की मनाही कर दी। आख़िर में बेगमों को बाध्य होकर धन देना पड़ा, जिसके सम्बन्ध में कलकत्ता स्थित कौंसिल ने 1775 ई. में उन्हें गारन्टी दी थी कि अब उनसे धन की कोई माँग नहीं की जाएगी। सारा मामला निसंदेह घिनावना, क्षुद्रतापूर्ण और राज्य की आवश्यकताओं को देखते हुए भी अनुचित था। | ||
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− | हेस्टिंग्स की बाद में दी गई यह दलील बड़ी लचर थी, कि [[चेतसिंह]] से साँठगाँठ के कारण बेगमों ने ब्रिटिश संरक्षण प्राप्त करने का अधिकार खो दिया था, तथा कलकत्ता की कौंसिल द्वारा दी गई गारन्टी समाप्त हो गई थी। वारेन हेस्टिंग्स ने बेगमों के ख़िलाफ़ द्वेषवश | + | हेस्टिंग्स की बाद में दी गई यह दलील बड़ी लचर थी, कि [[चेतसिंह]] से साँठगाँठ के कारण बेगमों ने ब्रिटिश संरक्षण प्राप्त करने का अधिकार खो दिया था, तथा कलकत्ता की कौंसिल द्वारा दी गई गारन्टी समाप्त हो गई थी। वारेन हेस्टिंग्स ने बेगमों के ख़िलाफ़ द्वेषवश कार्रवाई की थी और यह विस्मयकारी है कि लॉर्ड सभा ने उसे बेगमों पर अत्याचार करने के आरोप से दोषमुक्त कर दिया। उसने नि:संदेह उन पर अत्याचार किया था, यद्यपि इस प्रकार ज़ोर-ज़बर्दस्ती से प्राप्त की गई धनराशि का उपयोग कम्पनी की ही सेवा में किया गया था। |
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14:11, 2 जून 2017 के समय का अवतरण
अवध की बेगमें, ये नवाब आसफ़उद्दौला की माँ और दादी थीं।
हेस्टिंग्स की माँग
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1775 ई. में अवध की गद्दी पर बैठने के बाद आसफ़उद्दौला ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ फैजाबाद की संधि की, जिसके अंतर्गत उसने अवध में ब्रिटिश सेना रखने के लिए एक बड़ी धनराशि देना स्वीकार किया। अवध का प्रशासन भ्रष्ट और कमज़ोर था, अत: नियत धनराशि न दे सकने के कारण नवाब पर कम्पनी का बक़ाया चढ़ गया। 1781 ई. तक मैसूर, मराठों तथा चेतसिंह से हुई लड़ाइयों के कारण कम्पनी को रुपये की बड़ी आवश्यकता थी। गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने अवध के नवाब से बक़ाय की रक़म को चुकता कर देने के लिए ज़ोर डाला, लेकिन नवाब ने भुगतान करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुआ कि, मैं भुगतान उस समय कर सकता हूँ, जब मुझे उस बड़ी जागीर तथा दौलत पर अधिकार का दावा दिया जाए, जो मेरी माँ और दादी ने हथिया ली है। अवध की बेगमें आसफ़उद्दौला को 250,000 पौंड की धनराशि पहले दे चुकी थी। 1775 ई. में ब्रिटश रेजीडेन्ट मिडिल्टन के समझाने पर 300,000 पौंड उन्होंने पुन: दिया। इससे कम्पनी का पावना (प्राप्त करने वाली वस्तु या धन) अदा कर दिया गया। कलकत्ता स्थित कौंसिल ने बेगमों को आश्वासन दिया था कि भविष्य में उनसे माँग नहीं की जाएगी। वारेन हेस्टिंग्स ने इस प्रकार का वचन देने का विरोध किया था, किन्तु कौंसिल के अन्दर मतदान में वह पराजित हो गया था। इसके बाद ही 1780 ई. में चेतसिंह कांड हुआ।
आसफ़उद्दौला की असमर्थता
हेस्टिंग्स अवध की बेगमों से नाराज़ था, क्योंकि 1775 ई. में उन्होंने कौंसिल में उसके विरोधियों का समर्थन प्राप्त किया था। अत: 1781 ई. में अवध के नवाब ने जब बक़ाया भुगतान करने में उस समय तक अपनी असमर्थता व्यक्त की, जब तक उसे अपनी माँ और दादी की दौलत न दी जाए, तो हेस्टिंग्स ने तत्काल उसके अनुरोध को स्वीकार कर ब्रिटिश रेजिडेन्ट मिडिल्टन को आदेश दिया, कि वह बेगमों पर बक़ाये की धनराशि का भुगतान करने के लिए ज़ोर डाले।
ब्रिस्टों की यातनाएँ
चूँकि रेजीडेन्ट मिडिल्टन ने ज़ोर-ज़बरर्दस्ती करने में समुचित तत्परता नहीं दिखाई, अत: उसके स्थान पर ब्रिस्टों को नियुक्त कर दिया गया, जिसने बेगमों के उच्च पदस्थ कर्मचारियों को क़ैद में डलवा दिया, उनको बेड़ियाँ डलवा दीं। उनका भोजन भी बन्द करवा दिया था और कदाचित उनको कोड़े भी लगवाये। उन्हें इतनी कठोर यातनाएँ दी गईं कि उनकी दुर्दशा देखकर स्वयं नवाब भी विचलित होने लगा, किन्तु हेस्टिंग्स टस से मस नहीं हुआ और कोई समझौता वार्ता चलाने अथवा दया प्रकट करने की मनाही कर दी। आख़िर में बेगमों को बाध्य होकर धन देना पड़ा, जिसके सम्बन्ध में कलकत्ता स्थित कौंसिल ने 1775 ई. में उन्हें गारन्टी दी थी कि अब उनसे धन की कोई माँग नहीं की जाएगी। सारा मामला निसंदेह घिनावना, क्षुद्रतापूर्ण और राज्य की आवश्यकताओं को देखते हुए भी अनुचित था।
हेस्टिंग्स की दलील
हेस्टिंग्स की बाद में दी गई यह दलील बड़ी लचर थी, कि चेतसिंह से साँठगाँठ के कारण बेगमों ने ब्रिटिश संरक्षण प्राप्त करने का अधिकार खो दिया था, तथा कलकत्ता की कौंसिल द्वारा दी गई गारन्टी समाप्त हो गई थी। वारेन हेस्टिंग्स ने बेगमों के ख़िलाफ़ द्वेषवश कार्रवाई की थी और यह विस्मयकारी है कि लॉर्ड सभा ने उसे बेगमों पर अत्याचार करने के आरोप से दोषमुक्त कर दिया। उसने नि:संदेह उन पर अत्याचार किया था, यद्यपि इस प्रकार ज़ोर-ज़बर्दस्ती से प्राप्त की गई धनराशि का उपयोग कम्पनी की ही सेवा में किया गया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
(पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश') पृष्ठ संख्या-292
संबंधित लेख
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