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'''चालुक्यों''' की उत्पत्ति का विषय अत्यंत ही विवादास्पद है। [[वराहमिहिर]] की 'बृहत्संहिता' में इन्हें 'शूलिक' जाति का माना गया है, जबकि [[पृथ्वीराजरासो]] में इनकी उत्पति [[आबू पर्वत]] पर किये गये यज्ञ के अग्निकुण्ड से बतायी गयी है। 'विक्रमांकदेवचरित' में इस वंश की उत्पत्ति भगवान ब्रह्म के चुलुक से बताई गई है। इतिहासविद् 'विन्सेण्ट ए. स्मिथ' इन्हें विदेशी मानते हैं। 'एफ. फ्लीट' तथा 'के.ए. नीलकण्ठ शास्त्री' ने इस वंश का नाम 'चलक्य' बताया है। 'आर.जी. भण्डारकरे' ने इस वंश का प्रारम्भिक नाम 'चालुक्य' का उल्लेख किया है। [[ह्वेनसांग]] ने चालुक्य नरेश [[पुलकेशी द्वितीय]] को क्षत्रिय कहा है। इस प्रकार चालुक्य नरेशों की वंश एवं उत्पत्ति का कोई अभिलेखीय साक्ष्य नहीं मिलता है।
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==वंश शाखाएँ==
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[[दक्षिणपथ]] [[मौर्य काल|मौर्य साम्राज्य]] के अंतर्गत था। जब मौर्य सम्राटों की शक्ति शिथिल हुई, और [[भारत]] में अनेक प्रदेश उनकी अधीनता से मुक्त होकर स्वतंत्र होने लगे, तो दक्षिणापथ में [[सातवाहन वंश]] ने अपने एक पृथक् राज्य की स्थापना की। कालान्तर में इस सातवाहन वंश का बहुत ही उत्कर्ष हुआ, और इसने [[मगध]] पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। शकों के साथ निरन्तर संघर्ष के कारण जब इस राजवंश की शक्ति क्षीण हुई, तो दक्षिणापथ में अनेक नए राजवंशों का प्रादुर्भाव हुआ, जिसमें [[वाकाटक वंश|वाकाटक]], [[कदम्ब वंश|कदम्ब]] और [[पल्लव वंश]] के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन्हीं वंशों में से वातापि या [[बादामी]] का चालुक्य वंश और [[कर्नाटक|कल्याणी]] का चालुक्य वंश भी एक था।
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==वातापी व बादामी का चालुक्य वंश==
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छठी [[शताब्दी]] के मध्य से लेकर आठवीं शताब्दी के मध्य तक दक्षिणापथ पर जिस चालुक्य वंश की शाखा का अधिपत्य रहा उसका उत्कर्ष स्थल [[बादामी]] या वातापी होने के कारण उसे बादामी या वातापी चालुक्य कहा जाता है। इस शाखा को पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्य भी कहा जाता है। पुलकेशिन द्वितीय के एहोल [[अभिलेख]] से बादामी के चालुक्यों के बार में प्रमाणिक ज्ञान प्राप्त होता है। ऐहोल लेख की रचना रविकृत ने की थी।
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==वातापी का चालुक्य वंश==
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[[वाकाटक वंश]] के राजा बड़े प्रतापी थे और उन्होंने विदेशी [[कुषाण|कुषाणों]] की शक्ति का क्षय करने में बहुत अधिक कर्तृत्व प्रदर्शित किया था। इन राजाओं ने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में अनेक [[अश्वमेध यज्ञ|अश्वमेध यज्ञों]] का भी अनुष्ठान किया। पाँचवीं [[सदी]] के प्रारम्भ में गुप्तों के उत्कर्ष के कारण इस वंश के राज्य की स्वतंत्र सत्ता का अन्त हुआ। [[कदम्ब वंश]] का राज्य उत्तरी कनारा बेलगाँव और धारवाड़ के प्रदेशों में था। प्रतापी गुप्त सम्राटों ने इसे भी [[गुप्त साम्राज्य]] की अधीनता में लाने में सफलता प्राप्त की थी। [[पल्लव वंश]] की राजधानी [[कांची]] थी, और सम्राट [[समुद्रगुप्त]] ने उसकी भी विजय की थी। [[गुप्त साम्राज्य]] के क्षीण होने पर उत्तरी भारत के समान दक्षिणापथ में भी अनेक राजवंशों ने स्वतंत्रतापूर्वक शासन करना प्रारम्भ किया। दक्षिणापथ के इन राज्यों में [[चालुक्य वंश|चालुक्य]] और [[राष्ट्रकूट वंश|राष्ट्रकूट वंशों]] के द्वारा स्थापित राज्य प्रधान थे। उनके अतिरिक्त [[देवगिरि का यादव वंश|देवगिरि के यादव]], [[वारंगल]] के [[काकतीय वंश|काकतीय]], कोंकण के शिलाहार, बनवासी के कदम्ब, [[तलकाड़]] के [[गंग वंश|गंग]] और द्वारसमुद्र के [[होयसल वंश|होयसल वंशों]] ने भी इस युग में [[दक्षिणापथ]] के विविध प्रदेशों पर शासन किया। जिस प्रकार उत्तरी भारत में विविध राजवंशों के प्रतापी व महत्त्वाकांक्षी राजा विजय यात्राएँ करने और अन्य राजाओं को जीतकर अपना उत्कर्ष करने के लिए तत्पर रहते थे, वही दशा दक्षिणापथ में भी थी।
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==वातापी के चालुक्य वंश का अन्त==
 
{{tocright}}
 
{{tocright}}
चालुक्य वंश छठी शताब्दी ई0 के मध्य दक्षिणी भारत में उत्कर्ष को प्राप्त था। इसके मूल के बारे में ठीक से कुछ पता नहीं है। चालुक्य नरेशों का दावा था कि वे चंद्रवशी राजपूत हैं और कभी [[अयोध्या]] पर शासन करते थे। गुर्जरों की एक शाखा चापस के एक अभिलेख में चालुक्य नरेश पुलकेशी के उल्लेख से कुछ आधुनिक इतिहासकारों ने यह अर्थ निकाला है कि चालुक्य, जो सोलंकी के नाम से विख्यात हैं, गुर्जरों से सम्बद्ध थे और राजपूताना से दक्षिण में आकर बसे थे। जो हो इतना तो निश्चित है कि चालुक्यों के नेता पुलकेशी प्रथम ने 550 ई0 में एक राज्य की स्थापना की। जिसकी राजधानी वातापी थी। जो आज [[बीजापुर]] जिले में '[[बादासी]]' के नाम से विख्यात है। पुलकेशी प्रथम ने अपने को दिग्विजयी राजा घोषित करने के लिए [[अश्वमेध यज्ञ]] भी किया। उसके वंश ने, जो वातापी के चालुक्य के नाम से प्रसिद्ध हैं, तेरह वर्षों के व्यवधान (642-655) को छोड़कर 550 से लेकर 757 ई0 तक राज किया।
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[[विक्रमादित्य द्वितीय]] के बाद 744 ई. के लगभग [[कीर्तिवर्मा द्वितीय]] विशाल चालुक्य साम्राज्य का स्वामी बना। पर वह अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित साम्राज्य को क़ायम रखने में असमर्थ रहा। [[दन्तिदुर्ग]] नामक राष्ट्रकूट नेता ने उसे परास्त कर [[महाराष्ट्र]] में एक नए राजवंश की नींव डाली, और धीरे-धीरे राष्ट्रकूटों का यह वंश इतना शक्तिशाली हो गया, कि चालुक्यों का अन्त कर दक्षिणापथ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। चालुक्यों के राज्य का अन्त 753 ई. के लगभग हुआ। [[वातापी कर्नाटक|वातापी]] के चालुक्य राजा न केवल वीर और विजेता थे, अपितु उन्होंने साहित्य, वास्तुकला आदि के संरक्षण व संवर्धन की ओर भी अपना ध्यान दिया।
==शासकों के नाम==
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==कल्याणी का चालुक्य वंश==
इस वंश के नरेशों के नाम हैं—
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'''चालुक्यों की मुख्य शाखा का अन्तिम महत्त्वपूर्ण''' शासक सम्भवतः [[कीर्तिवर्मा द्वितीय]] था। चालुक्यों की कुछ छोटी शाखाओं ने भी कुछ दिन तक शासन किया। ऐसी ही एक शाखा कल्याणी के चालुक्यों की थी, जिसका महत्त्वपूर्ण शासक तैल अथवा [[तैल चालुक्य|तैलप द्वितीय]] था, आरम्भ में वह [[राष्ट्रकूट वंश|राष्ट्रकूटों]] का सामन्त था, परन्तु बाद में राष्ट्रकूटों की दुर्बलता का लाभ उठाकर वह एक स्वतंत्र शासक बन गया। उसने अन्तिम राष्ट्रकूट शासक कक्र को अपदस्त कर सत्ता पर अधिकार कर लिया। इसकी पत्नी 'जक्कल महादेवी' थी, जो राष्ट्रकूट शासक भामह की पुत्री थी। सत्तारूढ़ होने के बाद तैलप ने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करना आरम्भ किया। उसके इस साम्राज्य विस्तारवादी नीति का प्रबल विरोधी [[गंग वंश|गंग]] नरेश [[पांचाल देव]] था। दोनों के मध्य कई बार युद्ध हुआ। अन्त में वेल्लारी के सामन्त शासक [[गंगभूतिदेव]] की सहायता से तैलप ने पांचाल देव को पराजित कर मार दिया। इस महत्त्वपूर्ण विजय के उपलक्ष्य में तैलप द्वितीय ने 'पांचलमर्दनपंचानन' का विरुद्व धारण किया तथा अपने सहायक गंगभूतिदेव को तोरगाले का शासक बनाकर उसे '[[आहवमल्ल]]' की उपाधि से अलंकृत किया। तैलप द्वितीय ने [[चेदि]], [[उड़ीसा]] और कुंतल ने शासक उत्तम [[चोल वंश|चोल]] तथा [[मालवा]] के [[परमार वंश|परमार]] राजा मुंज को पराजित किया। तैलप द्वितीय द्वारा मुंज के स्थान का उल्लेख आवन्तरकालीन ग्रन्थ [[आइना-ए-अकबरी]] तथा [[उज्जैन]] से प्राप्त अभिलेख में मिलता है। [[कन्नड़ भाषा|कन्नड़]] कथाओं में तैलप द्वितीय को भगवान [[श्रीकृष्ण]] का अवतार कहा गया है। उसने 'भुनैकमल्ल', 'महासामन्तधिपति', 'आहमल्ल', 'महाराजाधिराज', 'परमेश्वर', 'परमभट्टारक', 'चालुक्यभरण', 'सत्याश्रम', 'कुलतिलक' तथा 'समस्तभुवनाश्रय' आदि उपाधियां धारण की थीं। पहले चालुक्य वंश की राजधानी [[वातापी कर्नाटक|वातापी]] थी, पर इस नये चालुक्य वंश ने [[कल्याणी कर्नाटक|कल्याणी]] को राजधानी बनाकर अपनी शक्ति का विस्तार किया। इसीलिए ये 'कल्याणी के चालुक्य' कहलाते हैं।
*[[पुलकेशी प्रथम]] (550-66 ई0),  
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*कीर्तिवर्मा प्रथम (लगभग 566 से 97 ई0),  
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{| class="bharattable-green" border="1" style="margin:5px; float:right"
*मंगलेश (लगभग 597-608),  
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|+ कल्याणी के चालुक्य शासक
*[[पुलकेशी द्वितीय]] (लगभग 609-42),
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*व्यवधान ( लगभग 642-55),
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! शासक
*विक्रमादित्य प्रथम ( 655-80),  
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! शासनकाल
*विनयादित्य (680-96),  
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*विजयादित्य (696-733),  
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| [[तैल चालुक्य|तैलप]]
*विक्रमादित्य द्वितीय (733-746), और  
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*कीर्तिवर्मा द्वितीय (746-57)।
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| [[सत्याश्रय]]
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| (977 से 1008 ई.)
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| [[जयसिंह जगदेकमल्ल]]
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| (1015 से 1045 ई.)
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| [[सोमेश्वर प्रथम आहवमल्ल]]
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| [[सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल]]
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| (1068 से 1070 ई.)
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| [[विक्रमादित्य षष्ठ]]
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| [[सोमेश्वर तृतीय]]
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| (1126 से 1138 ई.)
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| [[जगदेकमल्ल द्वितीय]]
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| (1138-1151 ई.)
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| [[तैलप तृतीय]]
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| (1151-1156 ई.)
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| [[सोमेश्वर चतुर्थ]]
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| (1181-1189 ई.)
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==चालुक्य शक्ति में निर्बलता==
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[[सोमेश्वर तृतीय]] के बाद [[कल्याणी कर्नाटक|कल्याणी]] के चालुक्य वंश का क्षय शुरू हो गया। 1138 ई. में [[सोमेश्वर तृतीय]] की मृत्यु हो जाने पर उसका पुत्र [[जगदेकमल्ल द्वितीय]] राजा बना। इस राजा के शासन काल में चालुक्यों में निर्बलता आ गई। अन्हिलवाड़ा [[कुमारपाल]] (1143-1172 ई.) के जगदेकमल्ल के साथ अनेक युद्ध हुए, जिनमें कुमारपाल विजयी हुआ। 1151 ई. में जगदेकमल्ल की मृत्यु के बाद [[तैलप तृतीय|तैल]] ने कल्याणी का राजसिंहासन प्राप्त किया। उसका मंत्री व सेनापति विज्जल था, जो [[कलचुरी वंश]] का था। विज्जल इतना शक्तिशाली व्यक्ति था, कि उसने राजा तैल को अपने हाथों में कठपुतली के समान बना रखा था। बहुत से सामन्त उसके हाथों में थे। उनकी सहायता से 1156 ई. के लगभग विज्जल ने तैल को राज्यच्युत कर स्वयं कल्याणी की राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लिया, और वासव को अपना मंत्री नियुक्त किया।
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==कल्याणी के चालुक्य वंश का अन्त==
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[[भारत]] के धार्मिक इतिहास में 'वासव' का बहुत अधिक महत्त्व है। वह लिंगायत सम्प्रदाय का प्रवर्तक था। जिसका दक्षिणी भारत में बहुत प्रचार हुआ। विज्जल स्वयं [[जैन धर्म|जैन]] था, अतः राजा और मंत्री में विरोध उत्पन्न हो गया। इसके परिणामस्वरूप वासव ने विज्जल की हत्या कर दी। विज्जल के बाद उसके पुत्र 'सोविदेव' ने राज्य प्राप्त किया, और वासव की शक्ति को अपने क़ाबू में लाने में सफलता प्राप्त की। धार्मिक विरोध के कारण विज्जल और सोविदेव के समय में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, चालुक्य राजा तैल के पुत्र [[सोमेश्वर चतुर्थ]] ने उससे लाभ उठाया, और 1183 ई. में सोविदेव को परास्त कर चालुक्य कुल के गौरव को फिर से स्थापित किया। पर चालुक्यों की यह शक्ति देर तक स्थिर नहीं रह सकी। विज्जल और सोविदेव के समय में [[कल्याणी कर्नाटक|वातापी]] के राज्य में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, उसके कारण बहुत से सामन्त व अधीनस्थ राजा स्वतंत्र हो गए, और अन्य अनेक राजवंशों के प्रतापी व महत्त्वकांक्षी राजाओं ने विजय यात्राएँ कर अपनी शक्ति का उत्कर्ष शुरू कर दिया। इन प्रतापी राजाओं में देवगिरि के यादव राजा भिल्लम का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 1187 ई. में भिल्लम ने चालुक्य राजा सोमेश्वर चतुर्थ को परास्त कर कल्याणी पर अधिकार कर लिया, और इस प्रकार प्रतापी चालुक्य वंश का अन्त हुआ।
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==वेंगि का चालुक्य वंश==
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'''प्राचीन समय में चालुक्यों के अनेक राजवंशों''' ने दक्षिणापथ व [[गुजरात]] में शासन किया था। इनमें से [[अन्हिलवाड़]] (गुजरात) [[वातापी कर्नाटक|वातापी]] और [[कल्याणी कर्नाटक|कल्याणी]] को राजधानी बनाकर शासन करने वाले [[चालुक्य वंश]] थे। पर इन तीनों के अतिरिक्त चालुक्य का एक अन्य वंश भी था, जिसकी राजधानी वेंगि थी। यह इतिहास में 'पूर्वी चालुक्य' के नाम से विख्यात है, क्योंकि इसका राज्य चालुक्यों के मुख्य राजवंश (जिसने कल्याणी को राजधानी बनाकर शासन किया) के राज्य से पूर्व में स्थित था। इनसे पृथक्त्व प्रदर्शित करने के लिए कल्याणी के राजवंश को 'पश्चिमी चालुक्य राजवंश' भी कहा जाता है। इतिहास में वेंगि के पूर्वी चालुक्य वंश का बहुत अधिक महत्त्व नहीं है, क्योंकि उसके राजाओं ने न किसी बड़े साम्राज्य के निर्माण में सफलता प्राप्त की, और न दूर-दूर तक विजय यात्राएँ कीं। पर क्योंकि कुछ समय तक उसके राजाओं ने भी स्वतंत्र रूप से राज्य किया, अतः उनके सम्बन्ध में भी संक्षिप्त विवरण प्राप्त होता है।
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*'''जिस समय''' [[वातापी कर्नाटक|वातापी]] के प्रसिद्ध चालुक्य सम्राट [[पुलकेशी द्वितीय]] ने (सातवीं [[सदी]] के पूर्वार्ध में) [[दक्षिणापथ]] में अपने विशाल साम्राज्य की स्थापना की, उसने अपने छोटे भाई '[[कुब्ज विष्णुवर्धन]]' को वेंगि का शासन करने के लिए नियुक्त किया था। 'विष्णुवर्धन' की स्थिति एक प्रान्तीय शासक के समान थी, और वह [[पुलकेशी द्वितीय]] की ओर से ही [[कृष्णा नदी|कृष्णा]] और [[गोदावरी नदी|गोदावरी नदियों]] के मध्यवर्ती प्रदेश का शासन करता था। पर उसका पुत्र 'जयसिंह प्रथम' पूर्णतया स्वतंत्र हो गया था, और इस प्रकार पूर्वी चालुक्य वंश का प्रादुर्भाव हुआ। इस वंश के स्वतंत्र राज्य का प्रारम्भकाल सातवीं [[सदी]] के मध्य भाग में था।
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*'''जब तक वातापी में मध्य''' [[चालुक्य वंश]] की शक्ति क़ायम रही, वेंगि के पूर्वी चालुक्यों को अपने उत्कर्ष का अवसर नहीं मिल सका। पर जब 753 ई. के लगभग राष्टकूट [[दन्तिदुर्ग]] द्वारा वातापी के चालुक्य राज्य का अन्त कर दिया गया, तो वेंगि के राजवंश में अनेक ऐसे प्रतापी राजा हुए, जिन्होंने [[राष्ट्रकूट वंश|राष्ट्रकूटों]] और अन्य पड़ोसी राजाओं पर आक्रमण करके उनके साथ युद्ध किया। इनमें 'विक्रमादित्य द्वितीय' (लगभग 799-843) और 'विजयादित्य तृतीय' (843-888) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन दोनों राजाओं ने राष्टकूटों के मुक़ाबले में अपने राज्य की स्वतंत्र सत्ता क़ायम रखने में सफलता प्राप्त की। इनके उत्तराधिकारी चालुक्य राजा भी अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने में सफल रहे।
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*'''दसवीं [[सदी]] के अन्तिम भाग में''' वेंगि को एक नयी विपत्ति का सामना करना पड़ा। जो चोलराज [[राजराज प्रथम]] (985-1014) के रूप में थी। इस समय तक दक्षिणापथ में राष्टकूटों की शक्ति का अन्त हो चुका था, और [[कल्याणी कर्नाटक|कल्याणी]] को अपनी राजधानी बनाकर चालुक्य एक बार फिर दक्षिणापथपति बन गए थे। राजराज प्रथम ने न केवल कल्याणी के चालुक्य राजा [[सत्याश्रय]] को परास्त किया, अपितु वेंगि के चालुक्य राजा पर भी आक्रमण किया। इस समय वेंगि के राजसिंहासन पर 'शक्तिवर्मा' विराजमान था। उसने चोल आक्रान्ता का मुक़ाबला करने के लिए बहुत प्रयत्न किया, और अनेक युद्धों में उसे सफलता भी प्राप्त हुई, पर उसके उत्तराधिकारी 'विमलादित्य' (1011-1018) ने यही उचित समझा, कि शक्तिशाली चोल सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली जाए।
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*[[राजराज प्रथम]] ने विमलादित्य के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर उसे अपना सम्बन्धी व परम सहायक बना लिया। विमलादित्य के बाद उसका पुत्र 'विष्णुवर्धन' पूर्वी चालुक्य राज्य का स्वामी बना। उसका विवाह भी चोलवंश की ही एक कुमारी के साथ हुआ था। उसका पुत्र 'राजेन्द्र' था, जो 'कुलोत्तुंग' के नाम से वेंगि का राजा बना। उसका विवाह भी एक चोल राजकुमारी के साथ हुआ, और विवाहों के कारण वेंगि के चालुक्य कुल और चोलराज का सम्बन्ध बहुत घनिष्ठ हो गया।
 +
*'''चोलराजा''' [[अधिराजेन्द्र]] के कोई सन्तान नहीं थी। वह 1070 ई. में चोल राज्य का स्वामी बना, और उसी साल उसकी मृत्यु भी हो गई। इस दशा में वेंगि के चालुक्य राजा राजेन्द्र कुलोत्तुंग ने चोल वंश का राज्य भी प्राप्त कर लिया, क्योंकि वह चोल राजकुमारी का पुत्र था। इस प्रकार चोल राज्य और वेंगि का पूर्वी चालुक्य राज्य परस्पर मिल कर एक हो गए, और 'राजेन्द्र कुलोत्तुंग' के वंशज इन दोनों राज्यों पर दो [[सदी]] के लगभग तक शासन करते रहे। 1070 के बाद वेंगि के राजवंश की अपनी कोई पृथक् सत्ता नहीं रह गयी थी।
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*'''कल्याणी के चालुक्य वंश''' का दक्षिणापथ के बड़े भाग पर उनका आधिपत्य था, और अनेक प्रतापी चालुक्य राजाओं ने दक्षिण में [[चोल साम्राज्य|चोल]], [[पांड्य साम्राज्य|पांड्य]] और [[केरल]] तक व उत्तर में [[बंगाल|बंग]], [[मगध]] और [[नेपाल]] तक विजय यात्राएँ की थीं। पर जब बारहवीं [[सदी]] के अन्तिम भाग में चालुक्यों की शक्ति क्षीण हुई, तो उनके अनेक सामन्त राजा स्वतंत्र हो गए, और अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से शासन करने लगे। जिस प्रकार उत्तरी भारत में [[गुर्जर प्रतिहार वंश| गुर्जर प्रतिहार]] साम्राज्य के ह्रास काल में अनेक छोटे-बड़े [[राजपूत]] राज्य क़ायम हुए, वैसे ही दक्षिणी भारत में कल्याणी के चालुक्यों की शक्ति क्षीण होने पर अनेक राजाओं ने स्वतंत्र होकर अपने पृथक् राज्यों की स्थापना की।
  
==कुशल शासक==
+
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक=|पूर्णता=|शोध=}}
शुरू के इन नौ चालुक्य नरेशों में चौथा पुलकेशी द्वितीय सबसे ज्यादा प्रख्यात है। उसने 34 वर्ष (608-42) तक शासन किया। उसका राज्य विस्तार उत्तर में [[नर्मदा नदी]] से लेकर दक्षिण में [[कावेरी नदी]] तक हो गया। किन्तु 642 ई0 में वह पल्लव नरेश नरसिंह वर्मा के द्वारा पराजित हुआ और शायद मारा गया। इसके बाद अगले तेरह सालों तक चालुक्य वंश पराभव को प्राप्त रहा। 655 ई0 में पुलकेशी के पुत्र विक्रमादित्य प्रथम ने चालुक्य शक्ति फिर से प्रतिष्ठित की। पल्लवों के साथ चालुक्यों का संघर्ष जारी रहा और 740 ई0 में चालुक्य नरेश विक्रमादित्य द्वितीय ने पल्लवों की राजधानी [[कांची]] पर अधिकार कर लिया। लेकिन उसके पुत्र और उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मा द्वितीय को राष्ट्रकूटों के नेता दंतिदुर्ग ने 753 ई0 में सिंहासन-च्युत कर दिया। चालुक्यों की शक्ति पर यह दूसरा ग्रहण था।
 
==द्वितीय चालुक्य वंश==
 
दो शताब्दियों के बाद चालुक्यवंश पुनः उत्कर्ष को प्राप्त हुआ जब तैल या तैलपने, जो अपने को वातापी के सातवें चालुक्य नरेश विजयादित्य का वंशज कहता था, 973 ई0 में राष्ट्रकूट नरेश द्वितीय को परास्त कर दिया और कल्याणी को अपनी राजधानी बनाकर नये चालुक्य वंश की स्थापना की। यह नया वंश 973 से 1200 ई0 तक सत्तासीन रहा और इसमें 12 राजा हुए।
 
  
==नये शासकों के नाम==
+
==संबंधित लेख==
इनके नाम हैं—
+
{{भारत के राजवंश}}
*[[तैल चालुक्य|तैल या तैलप]] (973-97),
+
{{चालुक्य साम्राज्य}}
*सत्याश्रय (997-1008),
 
*विक्रमादित्य पंचम (1008-14),
 
*अय्यन द्वितीय (1015),
 
*जयसिंह (1015-42),
 
*[[सोमेश्वर प्रथम]] (1042-68),
 
*[[सोमेश्वर द्वितीय]] (1068-1076),
 
*[[विक्रमादित्य षष्ठ]] (1076-1127),
 
*[[सोमेश्वर तृतीय]] (1127-38),
 
*जगदेवमल्ल (1138-51),
 
*तैलप तृतीय (1151-56), और
 
*सोमेश्वर चतुर्थ (1184-1200)।
 
  
==आक्रमण==
+
[[Category:इतिहास_कोश]]
कल्याणी के इस चालुक्य राज्य का एक लम्बे अर्से तक तंजोर के चोलवंशी शासकों से संघर्ष चलता रहा। सत्याश्रय को चोल नरेश राजराज ने परास्त किया और चालुक्य राज्य को रौंद डाला। लेकिन सोमेश्वर प्रथम ने इस अपमान का बदला ने केवल चोल नरेश राजधिराज को कोप्पम के युद्ध में करारी हार देकर ले लिया वरन् इस युद्ध में उसने राजाधिराज का वंध कर दिया।
+
[[Category:दक्षिण भारत के साम्राज्य]]
==ग्रन्थ==
+
[[Category:चालुक्य साम्राज्य]]
सातवें नरेश विक्रमादित्य षष्ठ ने, जो विक्रम के नाम से भी विख्यात है, कांची पर अधिकार कर लिया और प्रसिद्ध कवि विल्हण को संरक्षत्व प्रदान किया। विल्हण ने विक्रमादित्य के जीवन पर 'विक्रमांक-चरित' नामक सुविख्यात ग्रंथ लिखा है। याज्ञवल्क्यस्मृति की 'मिताक्षरा' व्याख्या के लेखक प्रसिद्ध विधिवेत्ता विज्ञानेश्वर चालुक्यों की राजधानी कल्याणी में ही रहते थे। [[बंगाल]] को छोड़कर शेष भारत में 'मिताक्षरों' को हिन्दू कानून का सबसे अधिकारिक ग्रंथ माना जाता है।
+
[[Category:भारत के राजवंश]]
==पतन==
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विक्रमादित्य षष्ठ की मृत्यु के बाद से कल्याणी के चालुक्यों की शक्ति का पतन शुरू हो गया। ग्यारहवें राजा तैलप तृतीय के शासन काल में चालुक्य राज्य का अधिकांश भाग उसके प्रधान सेनापति बिज्जल कलचूरि ने हड़प लिया। चालुक्य राज्य शनै-शनै इतना कमज़ोर हो गया कि 21वीं शती में बारहवें राजा सोमेश्वर चतुर्थ का शासन समाप्त होने तक उसके राज्य का पश्चिमी भाग तो देवगिरि के यादवों ने छीन लिया और दक्षिणी भाग द्वारसमुद्र के होयसलों के नियंत्रण में आ गया। वातापी और कल्याणी चालुक्य नरेशों ने स्वयं कट्टर हिन्दू होने पर भी [[बौद्ध]] और [[जैन धर्म]] को प्रश्रय दिया। इनके शासन काल में यज्ञ-प्रधान हिन्दू धर्म पर विशेष बल दिया गया। चालुक्य राजाओं ने हिन्दू देवताओं के अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया।
 
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13:29, 1 अगस्त 2017 के समय का अवतरण

वातापी के चालुक्य शासक
शासक शासनकाल
जयसिंह चालुक्य -
रणराग -
पुलकेशी प्रथम (550-566 ई.)
कीर्तिवर्मा प्रथम (566-567 ई.)
मंगलेश (597-98 से 609 ई.)
पुलकेशी द्वितीय (609-10 से 642-43 ई.)
विक्रमादित्य प्रथम (654-55 से 680 ई.)
विनयादित्य (680 से 696 ई.)
विजयादित्य (696 से 733 ई.)
विक्रमादित्य द्वितीय (733 से 745 ई.)
कीर्तिवर्मा द्वितीय (745 से 753 ई.)

चालुक्यों की उत्पत्ति का विषय अत्यंत ही विवादास्पद है। वराहमिहिर की 'बृहत्संहिता' में इन्हें 'शूलिक' जाति का माना गया है, जबकि पृथ्वीराजरासो में इनकी उत्पति आबू पर्वत पर किये गये यज्ञ के अग्निकुण्ड से बतायी गयी है। 'विक्रमांकदेवचरित' में इस वंश की उत्पत्ति भगवान ब्रह्म के चुलुक से बताई गई है। इतिहासविद् 'विन्सेण्ट ए. स्मिथ' इन्हें विदेशी मानते हैं। 'एफ. फ्लीट' तथा 'के.ए. नीलकण्ठ शास्त्री' ने इस वंश का नाम 'चलक्य' बताया है। 'आर.जी. भण्डारकरे' ने इस वंश का प्रारम्भिक नाम 'चालुक्य' का उल्लेख किया है। ह्वेनसांग ने चालुक्य नरेश पुलकेशी द्वितीय को क्षत्रिय कहा है। इस प्रकार चालुक्य नरेशों की वंश एवं उत्पत्ति का कोई अभिलेखीय साक्ष्य नहीं मिलता है।

वंश शाखाएँ

दक्षिणपथ मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत था। जब मौर्य सम्राटों की शक्ति शिथिल हुई, और भारत में अनेक प्रदेश उनकी अधीनता से मुक्त होकर स्वतंत्र होने लगे, तो दक्षिणापथ में सातवाहन वंश ने अपने एक पृथक् राज्य की स्थापना की। कालान्तर में इस सातवाहन वंश का बहुत ही उत्कर्ष हुआ, और इसने मगध पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। शकों के साथ निरन्तर संघर्ष के कारण जब इस राजवंश की शक्ति क्षीण हुई, तो दक्षिणापथ में अनेक नए राजवंशों का प्रादुर्भाव हुआ, जिसमें वाकाटक, कदम्ब और पल्लव वंश के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन्हीं वंशों में से वातापि या बादामी का चालुक्य वंश और कल्याणी का चालुक्य वंश भी एक था।

वातापी व बादामी का चालुक्य वंश

छठी शताब्दी के मध्य से लेकर आठवीं शताब्दी के मध्य तक दक्षिणापथ पर जिस चालुक्य वंश की शाखा का अधिपत्य रहा उसका उत्कर्ष स्थल बादामी या वातापी होने के कारण उसे बादामी या वातापी चालुक्य कहा जाता है। इस शाखा को पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्य भी कहा जाता है। पुलकेशिन द्वितीय के एहोल अभिलेख से बादामी के चालुक्यों के बार में प्रमाणिक ज्ञान प्राप्त होता है। ऐहोल लेख की रचना रविकृत ने की थी।

वातापी का चालुक्य वंश

वाकाटक वंश के राजा बड़े प्रतापी थे और उन्होंने विदेशी कुषाणों की शक्ति का क्षय करने में बहुत अधिक कर्तृत्व प्रदर्शित किया था। इन राजाओं ने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में अनेक अश्वमेध यज्ञों का भी अनुष्ठान किया। पाँचवीं सदी के प्रारम्भ में गुप्तों के उत्कर्ष के कारण इस वंश के राज्य की स्वतंत्र सत्ता का अन्त हुआ। कदम्ब वंश का राज्य उत्तरी कनारा बेलगाँव और धारवाड़ के प्रदेशों में था। प्रतापी गुप्त सम्राटों ने इसे भी गुप्त साम्राज्य की अधीनता में लाने में सफलता प्राप्त की थी। पल्लव वंश की राजधानी कांची थी, और सम्राट समुद्रगुप्त ने उसकी भी विजय की थी। गुप्त साम्राज्य के क्षीण होने पर उत्तरी भारत के समान दक्षिणापथ में भी अनेक राजवंशों ने स्वतंत्रतापूर्वक शासन करना प्रारम्भ किया। दक्षिणापथ के इन राज्यों में चालुक्य और राष्ट्रकूट वंशों के द्वारा स्थापित राज्य प्रधान थे। उनके अतिरिक्त देवगिरि के यादव, वारंगल के काकतीय, कोंकण के शिलाहार, बनवासी के कदम्ब, तलकाड़ के गंग और द्वारसमुद्र के होयसल वंशों ने भी इस युग में दक्षिणापथ के विविध प्रदेशों पर शासन किया। जिस प्रकार उत्तरी भारत में विविध राजवंशों के प्रतापी व महत्त्वाकांक्षी राजा विजय यात्राएँ करने और अन्य राजाओं को जीतकर अपना उत्कर्ष करने के लिए तत्पर रहते थे, वही दशा दक्षिणापथ में भी थी।

वातापी के चालुक्य वंश का अन्त

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विक्रमादित्य द्वितीय के बाद 744 ई. के लगभग कीर्तिवर्मा द्वितीय विशाल चालुक्य साम्राज्य का स्वामी बना। पर वह अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित साम्राज्य को क़ायम रखने में असमर्थ रहा। दन्तिदुर्ग नामक राष्ट्रकूट नेता ने उसे परास्त कर महाराष्ट्र में एक नए राजवंश की नींव डाली, और धीरे-धीरे राष्ट्रकूटों का यह वंश इतना शक्तिशाली हो गया, कि चालुक्यों का अन्त कर दक्षिणापथ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। चालुक्यों के राज्य का अन्त 753 ई. के लगभग हुआ। वातापी के चालुक्य राजा न केवल वीर और विजेता थे, अपितु उन्होंने साहित्य, वास्तुकला आदि के संरक्षण व संवर्धन की ओर भी अपना ध्यान दिया।

कल्याणी का चालुक्य वंश

चालुक्यों की मुख्य शाखा का अन्तिम महत्त्वपूर्ण शासक सम्भवतः कीर्तिवर्मा द्वितीय था। चालुक्यों की कुछ छोटी शाखाओं ने भी कुछ दिन तक शासन किया। ऐसी ही एक शाखा कल्याणी के चालुक्यों की थी, जिसका महत्त्वपूर्ण शासक तैल अथवा तैलप द्वितीय था, आरम्भ में वह राष्ट्रकूटों का सामन्त था, परन्तु बाद में राष्ट्रकूटों की दुर्बलता का लाभ उठाकर वह एक स्वतंत्र शासक बन गया। उसने अन्तिम राष्ट्रकूट शासक कक्र को अपदस्त कर सत्ता पर अधिकार कर लिया। इसकी पत्नी 'जक्कल महादेवी' थी, जो राष्ट्रकूट शासक भामह की पुत्री थी। सत्तारूढ़ होने के बाद तैलप ने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करना आरम्भ किया। उसके इस साम्राज्य विस्तारवादी नीति का प्रबल विरोधी गंग नरेश पांचाल देव था। दोनों के मध्य कई बार युद्ध हुआ। अन्त में वेल्लारी के सामन्त शासक गंगभूतिदेव की सहायता से तैलप ने पांचाल देव को पराजित कर मार दिया। इस महत्त्वपूर्ण विजय के उपलक्ष्य में तैलप द्वितीय ने 'पांचलमर्दनपंचानन' का विरुद्व धारण किया तथा अपने सहायक गंगभूतिदेव को तोरगाले का शासक बनाकर उसे 'आहवमल्ल' की उपाधि से अलंकृत किया। तैलप द्वितीय ने चेदि, उड़ीसा और कुंतल ने शासक उत्तम चोल तथा मालवा के परमार राजा मुंज को पराजित किया। तैलप द्वितीय द्वारा मुंज के स्थान का उल्लेख आवन्तरकालीन ग्रन्थ आइना-ए-अकबरी तथा उज्जैन से प्राप्त अभिलेख में मिलता है। कन्नड़ कथाओं में तैलप द्वितीय को भगवान श्रीकृष्ण का अवतार कहा गया है। उसने 'भुनैकमल्ल', 'महासामन्तधिपति', 'आहमल्ल', 'महाराजाधिराज', 'परमेश्वर', 'परमभट्टारक', 'चालुक्यभरण', 'सत्याश्रम', 'कुलतिलक' तथा 'समस्तभुवनाश्रय' आदि उपाधियां धारण की थीं। पहले चालुक्य वंश की राजधानी वातापी थी, पर इस नये चालुक्य वंश ने कल्याणी को राजधानी बनाकर अपनी शक्ति का विस्तार किया। इसीलिए ये 'कल्याणी के चालुक्य' कहलाते हैं।

कल्याणी के चालुक्य शासक
शासक शासनकाल
तैलप -
सत्याश्रय (977 से 1008 ई.)
विक्रमादित्य पंचम (1008 ई.)
अच्चण द्वितीय -
जयसिंह जगदेकमल्ल (1015 से 1045 ई.)
सोमेश्वर प्रथम आहवमल्ल (1043 से 1068 ई.)
सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल (1068 से 1070 ई.)
विक्रमादित्य षष्ठ (1070 से 1126 ई.)
सोमेश्वर तृतीय (1126 से 1138 ई.)
जगदेकमल्ल द्वितीय (1138-1151 ई.)
तैलप तृतीय (1151-1156 ई.)
सोमेश्वर चतुर्थ (1181-1189 ई.)

चालुक्य शक्ति में निर्बलता

सोमेश्वर तृतीय के बाद कल्याणी के चालुक्य वंश का क्षय शुरू हो गया। 1138 ई. में सोमेश्वर तृतीय की मृत्यु हो जाने पर उसका पुत्र जगदेकमल्ल द्वितीय राजा बना। इस राजा के शासन काल में चालुक्यों में निर्बलता आ गई। अन्हिलवाड़ा कुमारपाल (1143-1172 ई.) के जगदेकमल्ल के साथ अनेक युद्ध हुए, जिनमें कुमारपाल विजयी हुआ। 1151 ई. में जगदेकमल्ल की मृत्यु के बाद तैल ने कल्याणी का राजसिंहासन प्राप्त किया। उसका मंत्री व सेनापति विज्जल था, जो कलचुरी वंश का था। विज्जल इतना शक्तिशाली व्यक्ति था, कि उसने राजा तैल को अपने हाथों में कठपुतली के समान बना रखा था। बहुत से सामन्त उसके हाथों में थे। उनकी सहायता से 1156 ई. के लगभग विज्जल ने तैल को राज्यच्युत कर स्वयं कल्याणी की राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लिया, और वासव को अपना मंत्री नियुक्त किया।

कल्याणी के चालुक्य वंश का अन्त

भारत के धार्मिक इतिहास में 'वासव' का बहुत अधिक महत्त्व है। वह लिंगायत सम्प्रदाय का प्रवर्तक था। जिसका दक्षिणी भारत में बहुत प्रचार हुआ। विज्जल स्वयं जैन था, अतः राजा और मंत्री में विरोध उत्पन्न हो गया। इसके परिणामस्वरूप वासव ने विज्जल की हत्या कर दी। विज्जल के बाद उसके पुत्र 'सोविदेव' ने राज्य प्राप्त किया, और वासव की शक्ति को अपने क़ाबू में लाने में सफलता प्राप्त की। धार्मिक विरोध के कारण विज्जल और सोविदेव के समय में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, चालुक्य राजा तैल के पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ ने उससे लाभ उठाया, और 1183 ई. में सोविदेव को परास्त कर चालुक्य कुल के गौरव को फिर से स्थापित किया। पर चालुक्यों की यह शक्ति देर तक स्थिर नहीं रह सकी। विज्जल और सोविदेव के समय में वातापी के राज्य में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, उसके कारण बहुत से सामन्त व अधीनस्थ राजा स्वतंत्र हो गए, और अन्य अनेक राजवंशों के प्रतापी व महत्त्वकांक्षी राजाओं ने विजय यात्राएँ कर अपनी शक्ति का उत्कर्ष शुरू कर दिया। इन प्रतापी राजाओं में देवगिरि के यादव राजा भिल्लम का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 1187 ई. में भिल्लम ने चालुक्य राजा सोमेश्वर चतुर्थ को परास्त कर कल्याणी पर अधिकार कर लिया, और इस प्रकार प्रतापी चालुक्य वंश का अन्त हुआ।

वेंगि का चालुक्य वंश

प्राचीन समय में चालुक्यों के अनेक राजवंशों ने दक्षिणापथ व गुजरात में शासन किया था। इनमें से अन्हिलवाड़ (गुजरात) वातापी और कल्याणी को राजधानी बनाकर शासन करने वाले चालुक्य वंश थे। पर इन तीनों के अतिरिक्त चालुक्य का एक अन्य वंश भी था, जिसकी राजधानी वेंगि थी। यह इतिहास में 'पूर्वी चालुक्य' के नाम से विख्यात है, क्योंकि इसका राज्य चालुक्यों के मुख्य राजवंश (जिसने कल्याणी को राजधानी बनाकर शासन किया) के राज्य से पूर्व में स्थित था। इनसे पृथक्त्व प्रदर्शित करने के लिए कल्याणी के राजवंश को 'पश्चिमी चालुक्य राजवंश' भी कहा जाता है। इतिहास में वेंगि के पूर्वी चालुक्य वंश का बहुत अधिक महत्त्व नहीं है, क्योंकि उसके राजाओं ने न किसी बड़े साम्राज्य के निर्माण में सफलता प्राप्त की, और न दूर-दूर तक विजय यात्राएँ कीं। पर क्योंकि कुछ समय तक उसके राजाओं ने भी स्वतंत्र रूप से राज्य किया, अतः उनके सम्बन्ध में भी संक्षिप्त विवरण प्राप्त होता है।

  • जिस समय वातापी के प्रसिद्ध चालुक्य सम्राट पुलकेशी द्वितीय ने (सातवीं सदी के पूर्वार्ध में) दक्षिणापथ में अपने विशाल साम्राज्य की स्थापना की, उसने अपने छोटे भाई 'कुब्ज विष्णुवर्धन' को वेंगि का शासन करने के लिए नियुक्त किया था। 'विष्णुवर्धन' की स्थिति एक प्रान्तीय शासक के समान थी, और वह पुलकेशी द्वितीय की ओर से ही कृष्णा और गोदावरी नदियों के मध्यवर्ती प्रदेश का शासन करता था। पर उसका पुत्र 'जयसिंह प्रथम' पूर्णतया स्वतंत्र हो गया था, और इस प्रकार पूर्वी चालुक्य वंश का प्रादुर्भाव हुआ। इस वंश के स्वतंत्र राज्य का प्रारम्भकाल सातवीं सदी के मध्य भाग में था।
  • जब तक वातापी में मध्य चालुक्य वंश की शक्ति क़ायम रही, वेंगि के पूर्वी चालुक्यों को अपने उत्कर्ष का अवसर नहीं मिल सका। पर जब 753 ई. के लगभग राष्टकूट दन्तिदुर्ग द्वारा वातापी के चालुक्य राज्य का अन्त कर दिया गया, तो वेंगि के राजवंश में अनेक ऐसे प्रतापी राजा हुए, जिन्होंने राष्ट्रकूटों और अन्य पड़ोसी राजाओं पर आक्रमण करके उनके साथ युद्ध किया। इनमें 'विक्रमादित्य द्वितीय' (लगभग 799-843) और 'विजयादित्य तृतीय' (843-888) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन दोनों राजाओं ने राष्टकूटों के मुक़ाबले में अपने राज्य की स्वतंत्र सत्ता क़ायम रखने में सफलता प्राप्त की। इनके उत्तराधिकारी चालुक्य राजा भी अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने में सफल रहे।
  • दसवीं सदी के अन्तिम भाग में वेंगि को एक नयी विपत्ति का सामना करना पड़ा। जो चोलराज राजराज प्रथम (985-1014) के रूप में थी। इस समय तक दक्षिणापथ में राष्टकूटों की शक्ति का अन्त हो चुका था, और कल्याणी को अपनी राजधानी बनाकर चालुक्य एक बार फिर दक्षिणापथपति बन गए थे। राजराज प्रथम ने न केवल कल्याणी के चालुक्य राजा सत्याश्रय को परास्त किया, अपितु वेंगि के चालुक्य राजा पर भी आक्रमण किया। इस समय वेंगि के राजसिंहासन पर 'शक्तिवर्मा' विराजमान था। उसने चोल आक्रान्ता का मुक़ाबला करने के लिए बहुत प्रयत्न किया, और अनेक युद्धों में उसे सफलता भी प्राप्त हुई, पर उसके उत्तराधिकारी 'विमलादित्य' (1011-1018) ने यही उचित समझा, कि शक्तिशाली चोल सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली जाए।
  • राजराज प्रथम ने विमलादित्य के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर उसे अपना सम्बन्धी व परम सहायक बना लिया। विमलादित्य के बाद उसका पुत्र 'विष्णुवर्धन' पूर्वी चालुक्य राज्य का स्वामी बना। उसका विवाह भी चोलवंश की ही एक कुमारी के साथ हुआ था। उसका पुत्र 'राजेन्द्र' था, जो 'कुलोत्तुंग' के नाम से वेंगि का राजा बना। उसका विवाह भी एक चोल राजकुमारी के साथ हुआ, और विवाहों के कारण वेंगि के चालुक्य कुल और चोलराज का सम्बन्ध बहुत घनिष्ठ हो गया।
  • चोलराजा अधिराजेन्द्र के कोई सन्तान नहीं थी। वह 1070 ई. में चोल राज्य का स्वामी बना, और उसी साल उसकी मृत्यु भी हो गई। इस दशा में वेंगि के चालुक्य राजा राजेन्द्र कुलोत्तुंग ने चोल वंश का राज्य भी प्राप्त कर लिया, क्योंकि वह चोल राजकुमारी का पुत्र था। इस प्रकार चोल राज्य और वेंगि का पूर्वी चालुक्य राज्य परस्पर मिल कर एक हो गए, और 'राजेन्द्र कुलोत्तुंग' के वंशज इन दोनों राज्यों पर दो सदी के लगभग तक शासन करते रहे। 1070 के बाद वेंगि के राजवंश की अपनी कोई पृथक् सत्ता नहीं रह गयी थी।
  • कल्याणी के चालुक्य वंश का दक्षिणापथ के बड़े भाग पर उनका आधिपत्य था, और अनेक प्रतापी चालुक्य राजाओं ने दक्षिण में चोल, पांड्य और केरल तक व उत्तर में बंग, मगध और नेपाल तक विजय यात्राएँ की थीं। पर जब बारहवीं सदी के अन्तिम भाग में चालुक्यों की शक्ति क्षीण हुई, तो उनके अनेक सामन्त राजा स्वतंत्र हो गए, और अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से शासन करने लगे। जिस प्रकार उत्तरी भारत में गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य के ह्रास काल में अनेक छोटे-बड़े राजपूत राज्य क़ायम हुए, वैसे ही दक्षिणी भारत में कल्याणी के चालुक्यों की शक्ति क्षीण होने पर अनेक राजाओं ने स्वतंत्र होकर अपने पृथक् राज्यों की स्थापना की।


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