बालि

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बालि 'रामायण' के प्रसिद्ध पात्रों में से एक है। वह किष्किन्धा का राजा और भगवान श्रीराम के मित्र सुग्रीव का बड़ा भाई था। लंका के राजा रावण के दरबार में अपने कौशल तथा शक्ति से सभी राक्षसों को भयभीत कर देने वाला अंगद बालि का ही पुत्र था। बालि ने अपने भाई सुग्रीव को राज्य से निर्वासित कर दिया था और उसकी पत्नी रूमा को अपने पास रख लिया। राम से मित्रता होने और उनके आदेश पर सुग्रीव ने बालि से युद्ध किया। भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम ने बालि का वध किया और सुग्रीव की पत्नी को मुक्त कराया। बालि के बाद राम ने सुग्रीव को किष्किन्धा का राजा बना दिया।

परिचय

बालि और सुग्रीव को वानरश्रेष्ठ ऋक्ष राजा का पुत्र भी कहा जाता है। सुग्रीव को इन्द्र का पुत्र भी कहा गया है।[1] बालि सुग्रीव का बड़ा भाई था। वह पिता और भाई का अत्यधिक प्रिय था। पिता की मृत्यु के बाद बालि ने राज्य सम्भाल लिया था।

विवाह

बालि का विवाह वानर वैद्यराज सुषेण की पुत्री तारा के साथ सम्पन्न हुआ था। एक कथा के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान चौदह मणियों में से एक अप्सराएँ भी थीं। उन्हीं अप्सराओं में से एक तारा थी। बालि और सुषेण दोनों समुद्र मन्थन में देवतागण की मदद कर रहे थे। जब उन्होंने तारा को देखा तो दोनों में उसे पत्नी बनाने की होड़ लगी। बालि तारा के दाहिनी तरफ़ तथा सुषेण उसके बायीं तरफ़ खड़े हो गये। तब विष्णु ने फ़ैसला सुनाया कि विवाह के समय कन्या के दाहिनी तरफ़ उसका होने वाला पति तथा बायीं तरफ़ कन्यादान करने वाला पिता होता है। अतः बालि तारा का पति तथा सुषेण उसका पिता घोषित किये गये।

मायावी का वध

स्त्री के कारण ही बालि का दुंदुभी के पुत्र मायावी से बैर हो गया। एक बार अर्धरात्रि में किष्किन्धा के द्वार पर आकर मायावी ने बालि को युद्ध के लिए ललकारा। बालि तथा सुग्रीव उससे लड़ने के लिए गये। दोनों को आता देखकर मायावी वन की ओर भागा तथा एक बिल में छिप गया। बालि सुग्रीव को बिल के पास खड़ा करके स्वयं बिल में घुस गया। सुग्रीव ने एक वर्ष तक बालि के बाहर आने की प्रतीक्षा की। तदुपरांत बिल से आती हुई रक्त की धारा देखकर वह भाई को मरा जानकर बिल को पर्वत शिखर से ढककर अपने नगर में लौट आया। मन्त्रियों के आग्रह पर उसने राज्य संभाल लिया। उधर बालि ने मायावी को एक वर्ष में ढूंढ़ निकाला। उसने कुटुंब सहित मायावी का वध किया, और जब वह लौट कर आया तो बिल पर रखे पर्वत शिखर को देखकर उसने सुग्रीव को आवाज़ दी, किंतु उसे कोई उत्तर नहीं मिला। बालि किसी प्रकार जैसे-तैसे शिखर को हटाकर अपनी नगरी में पहुँचा। वहाँ उसने अपने भाई सुग्रीव को राज्य करते देखा। उसे निश्चय हो गया कि सुग्रीव राज्य के लोभ से उसे बिल में बंद कर आया था। अत: उसने सुग्रीव को राज्य से निर्वासित कर दिया तथा उसकी पत्नी रूमा को अपने पास रख लिया।[2]



  • पृथ्वी तल के समस्त वीर योद्धाओं को परास्त करता हुआ रावण बालि से युद्ध करने के लिए गया। उस समय बालि सन्ध्या के लिए गया हुआ था। वह प्रतिदिन समस्त समुद्रों के तट पर जाकर सन्ध्या करता था। बालि के मन्त्री तार के बहुत समझाने पर भी रावण बालि से युद्ध करने की इच्छा से ग्रस्त रहा। वह सन्ध्या में लीन बालि के पास जाकर अपने पुष्पक विमान से उतरा तथा पीछे से जाकर उसको पकड़ने की इच्छा से धीरे-धीरे आगे बढ़ा। बालि ने उसे देख लिया था किंतु उसने ऐसा नहीं जताया तथा सन्ध्या करता रहा। रावण की पदचाप से जब उसने जान लिया कि वह निकट है तो तुरंत उसने रावण को पकड़कर बगल में दबा लिया और आकाश में उड़ने लगा। बारी-बारी में उसने सब समुद्रों के किनारे सन्ध्या की। राक्षसों ने भी उसका पीछा किया। रावण ने स्थान-स्थान पर नोचा और काटा किंतु बालि ने उसे नहीं छोड़ा। सन्ध्या समाप्त करके किष्किंधा के उपवन में उसने रावण को छोड़ा तथा उसके आने का प्रयोजन पूछा। रावण बहुत थक गया था किंतु उसे उठाने वाला बालि तनिक भी शिथिल नहीं था। उससे प्रभावित होकर रावण ने अग्नि को साक्षी बनाकर उससे मित्रता की।[3]

  • सीता हरण के पश्चात राम से मित्रता होने पर भी सुग्रीव को राम की शक्ति पर इतना विश्वास नहीं था कि वह शक्तिशाली वानरराज बालि को मार सकेंगे, अत: राम ने सुग्रीव के कहने पर अपने बल की परीक्षा दी। एक बाण से राम ने एक साथ ही सात साल वृक्षों को भेद दिया तथा अपने पांव के अंगूठे की एक ठोकर से दुंदुभी के सूखे कंकाल को दस योजन दूर फेंक दिखाया। सुग्रीव बहुत प्रसन्न हुआ तथा राम-लक्ष्मण समेत बालि से युद्ध करने गया। सुग्रीव के ललकारने पर बालि निकल आया तथा उसने सुग्रीव को मार भगाया। सुग्रीव ने बहुत दुखी होकर राम से पूछा कि उसने बालि को मारा क्यों नहीं। राम के यह बताने पर कि दोनों भाई एक-से लग रहे थे, अत: राम को यह भय रहा कि कहीं बाण सुग्रीव के न लग जाय। राम ने सुग्रीव का गजपुष्पी लता पहनकर फिर से युद्ध के लिए प्रेरित किया। बालि ने जब फिर से सुग्रीव की ललकार सुनी और लड़ने के लिए बाहर निकला तब तारा ने बहुत मना किया पर वह नहीं माना। युद्ध में जब सुग्रीव कुछ दुर्बल पड़ने लगा तो पेड़ों के झुरमुट में छिपे राम ने बालि को अपने बाण से मार डाला। मरते हुए बालि ने पहले तो राम को बहुत बुरा-भला कहा, क्योंकि इस प्रकार छिपकर मारना क्षत्रियों का धर्म नहीं है किंतु जब राम ने बालि को समझाया कि बालि ने सुग्रीव की पत्नी को हरकर अधर्म किया है तथा जिस प्रकार वनैले पशुओं को घेरकर छल से मारना अनुचित नहीं है, उसी प्रकार पापी व्यक्ति को दंड देना भी धर्मोचित हे। बालि ने सुग्रीव और राम से यह वादा लेकर कि वह तारा तथा अंगद का ध्यान रखेंगे, सुखपूर्वक देह का त्याग किया।[4]
  • राम-लक्ष्मण सीता को ढूंढ़ते हुए ऋष्यमूक पर्वत पर पहुंचे। वहां पांच वानर बैठे हुए थे। उनमें सुग्रीव तथा हनुमान भी थे। राम की सुग्रीव से मैत्री हो गयी। राम ने सुग्रीव के भाई बालि का वध करने का प्रण किया तथा सुग्रीव ने राम का साथ देने का निश्चय किया। सुग्रीव तथा बालि का मल्लयुद्ध हो रहा था। हनुमान ने सुग्रीव की पहचान के लिए उसे माला पहना दी थी। राम ने छुपकर छाती पर बाण से प्रहार किया। वह मारा गया। सुग्रीव ने बालि की मृत्यु के उपरांत उसकी पत्नी तारा तथा किष्किंधापुरी को प्राप्त किया।[5]

  • आदित्यराज के दो पुत्र थें उनमें से बालि को राजा, सुग्रीव को युवराज बनाकर आदित्यराज ने दीक्षा का अंगीकरण किया। रावण ने बालि के पास दूत भेजा कि वह अपनी बहन श्रीप्रभा का विवाह रावण से कर दे। बालि के न मानने पर रावण ने उस पर आक्रमण कर दिया। बालि ने अनुभव किया कि मात्र उसके कारण इतने लोगों का संहार होगा, अत: उसने राज्य सुग्रीव को सौंप दिया तथा स्वयं प्रव्रज्या ग्रहण की। सुग्रीव ने श्रीप्रभा रावण को सौंप दी। युद्ध का शमन हो गया। बालि अष्टापद पर्वत पर घोर तपस्या करने लगा। एक बार रावण विमान में जा रहा था कि बालि के तपोबल से उसका विमान अष्टापद पर्वत के पास रुक गया। विमान के अवरोध का कारण जानकर रावण बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने समस्त पर्वत समुद्र में डुबा देने की इच्छा से उखाड़कर सिर पर रख लिया। बालि ने पांव के अंगूठे से जरा-सा दबाया कि रावण पर्वत के नीचे दबकर कराहने लगा। पांव का दबाव ढीला करके बालि ने उसे मुक्त कर दिया। तदनंतर अपने कुकर्म का प्रायश्चित्त करके रावण जिनेश्वर का भक्त बन गया।[6]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बाल्मीकि रामायण, किष्किंधा कांड, सर्ग 57
  2. बाल्मीकि रामायण, किष्किंधा कांड, सर्ग 9,10
  3. बाल्मीकि रामायण, उत्तर कांड, सर्ग 34
  4. बाल्मीकि रामायण, किष्किंधा कांड,सर्ग 11 से 18
  5. महाभारत,वनपर्व, 280 1 से 39
  6. पउम चरित, 9।

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