याकूत

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Disamb2.jpg याकूत एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- याकूत (बहुविकल्पी)

याकूत (अंग्रेज़ी: Yakut) रूस के साइबेरिया क्षेत्र के मध्य-उत्तरी भाग में स्थित साख़ा गणतंत्र में बसने वाले तुर्क लोगों का एक समुदाय है। यह अपनी अलग साख़ा भाषा बोलते हैं जो तुर्की भाषाओं की साइबेरियाई शाखा की उत्तरी उपशाखा की एक बोली है। कुछ याकूत लोग साख़ा गणतंत्र से बाहर रूस के अमूर, मागादान व साख़ालिन क्षेत्रों में और तैमिर व एवेंक स्वशासित क्षेत्रों में भी रहते हैं। असल में हब्शी एक फ़ारसी शब्द है, जिसका मतलब है- 'अबीसीनिया का रहने वाला'। अफ्रीकी देश इथियोपिया को पहले अबीसीनिया कहा जाता था। वहां के बाशिंदों को अबीसीनियाई या हब्शी कहा जाता था।

भारत में रहने वाले अफ्रीकी

आज भी भारत में बड़ी तादाद में अफ्रीकी मूल के लोग रहते हैं। आज की तारीख़ में इन्हें हब्शी नहीं, बल्कि सिद्दी के नाम से जाना जाता है। भारत में रहने वाले अफ्रीकी मूल के इन लोगों की तादाद क़रीब बीस हज़ार है। ये कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात में दूर-दराज़ के इलाक़ों में रहते हैं। ये पूर्वी अफ्रीका के बंतू समुदाय के वंशज हैं। इन्हें सातवीं सदी के आस-पास अरब ग़ुलाम बनाकर लाए थे। बाद में पुर्तगालियों और अंग्रेज़ों ने भी बड़ी तादाद में बंतू गुलाम अफ्रीका से लाकर भारत में बसाए थे। वैसे सिद्दी सिर्फ़ ग़ुलाम के तौर पर भारत नहीं आए। ये लोग कारोबारी, नाविकों और भाड़े के लड़ाकों के तौर पर भी यहां आए। फिर वो भारत के होकर रह गए। सिद्दियों की अच्छी ख़ासी तादाद पाकिस्तान के सिंध सूबे में भी बसती है। जब 18वीं-19वीं सदी में दास प्रथा ख़त्म हुई, तो ये सिद्दी भागकर जंगलों में जा छुपे और वहीं अपनी रिहाइश बना ली। आज भी ये लोग समाज से अलग-थलग रहते हैं।[1]

अफ्रीकी मूल की लड़कियां

अफ्रीकी मूल के ये सदस्य भले ही गुलाम के तौर पर भारत लाए गए थे, मगर इनमें से याकूत जैसे कई हब्शी अपनी क़ाबिलियत की वजह से ऊंचे ओहदों पर पहुंचे। अरब देशों के सैयदों की तर्ज पर इन्हें सिद्दी कहा जाता था। इसीलिए आज भारत में रहने वाले अफ्रीकी मूल के ये लोग ख़ुद को सिद्दी कहते हैं। हालांकि ये चलन कब शुरू हुआ कहना मुश्किल है। सिद्दियों की अच्छी ख़ासी तादाद कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ ज़िले में बसती है। जंगलों में बाक़ी समाज से अलग रहने वाले लोगों को पहली नज़र में देखने से पता भी नहीं चलता कि ये अफ्रीकी मूल के हैं। लेकिन क़रीब से देखने पर सबसे पहले इनके घुंघराले बाल इनके अफ्रीकी होने की ख़बर देते हैं।

भारतीयों जैसा रहन-सहन

ये लोग स्थानीय बोलियां बोलते हैं। जैसे कि कन्नड़ या कोंकणी। इनका पहनावा भी आम भारतीय जैसे ही है। इनके नाम भारतीय, अरबी और पुर्तगाली परंपरा का मिला-जुला रूप हैं। जैसे मंजुला, एना, सेलेस्टिया, शोबीना और रोमनचना। इनके उपनाम कर्मेकर और हर्नोडकर जैसे बिल्कुल ही भारतीय हैं। दिखने में अलग सिद्दी समुदाय के लोग पूरी तरह से भारतीय समाज में रच-बस गए हैं। इनका खान-पान, रहन-सहन और बोली, सब कुछ भारतीय हो गया है। मगर अफ़सोस की बात ये है कि इन्हे भारत ने पूरी तरह से नहीं अपनाया है। इसीलिए ये समाज की मुख्यधारा से कटे हुए हैं। ये लोग जंगलों में रहते हैं और मेहनत-मज़दूरी करके गुज़र-बसर करते हैं। सिद्दी समुदाय के ज़्यादातर लोग सूफ़ी मुसलमान हैं। ये मुग़लों का असर बताया जाता है। हालांकि कर्नाटक के रहने वाले सिद्दी आमतौर पर कैथोलिक ईसाई हैं।

निर्माण कार्य

भारत में रहने वाले इन अफ्रीकी समुदाय के लोगों ने कई शानदार इमारतें भी बनवाई हैं। इनमें अहमदाबाद की मशहूर सीदी सैयद मस्जिद प्रमुख है। इसी तरह मुंबई के पास मुरुद के टापू पर स्थित क़िला भी सिद्दी सरदार मलिक अंबर ने बनवाया था।[1]

खेल प्रशिक्षण

सिद्दियों के भारत की मुख्य धारा से कटे होने की वजह से इनके पास रोज़गार और तरक़्क़ी के बहुत कम साधन हैं। अस्सी के दशक में उस वक़्त की खेल मंत्री मार्गरेट अल्वा ने सिद्दियों को खेल की ट्रेनिंग देने के लिए एक योजना शुरू की थी। इसका मक़सद अफ्रीकी मूल के इन लोगों की क़ुव्वत का फ़ायदा खेल की दुनिया में उठाना था। मगर ये योजना भी बहुत कारगर नहीं रही। अफ़सरशाही की वजह से सिद्दियों की भलाई की इस अच्छी योजना ने दम तोड़ दिया। आज ये अफ्रीकी मूल के लोग अपने बीच में ही तमाम तरह के खेल खेलते हैं। इनमें से फ़ुटबॉल सबसे प्रमुख खेल है। कुछ सिद्दियों को दौड़ और दूसरे खेलों की ट्रेनिंग दी जा रही है।

मार्गरेट अल्वा की योजना का फ़ायदा उठाने वालों में से एक है जुजे जैकी हर्नोडकर। वो कर्नाटक में ही रहते हैं। उन्होंने सरकार की योजना के तहत 400 मीटर की बाधा दौड़ की ट्रेनिंग लेनी शुरू की थी। मगर ये योजना 1993 में बंद कर दी गई। इसके बाद जैकी ने सरकारी नौकरी के लिए कोशिश की और कामयाब हो गए। आज जैकी हर्नोदकर 14 सिद्दी युवाओं को ट्रेनिंग देने का काम कर रहे हैं। उनका मक़सद 2024 के ओलंपिक में भारत की तरफ़ से भागीदारी का है। इसी दौरान संयुक्त राष्ट्र 2015 से 2024 के बीच अफ्रीकी मूल के लोगों का दशक मना रहा है। ऐसे में सिद्दियों को अगर सही ट्रेनिंग और मौक़े मिले, तो ये उनके समाज की तरक़्क़ी में कारगर साबित होंगे।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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