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'''रणजीत सिंह''' (1780-1839) का उपनाम शेरे [[पंजाब]] था। इनका जन्म 13 नवम्बर, 1780 में, बदरूख़ाँ या गुजरांवाला, [[भारत]] में हुआ और मृत्यु 27 जून, 1839 को [[लाहौर]], (वर्तमान [[पाकिस्तान]]) में हुई। रणजीत सिंह पंजाब के [[सिक्ख]] राज्य के संस्थापक और महाराज (1801-1839) थे।
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'''रणजीत सिंह''' (1780-1839) का उपनाम '''शेरे पंजाब''' था। इनका जन्म 13 नवम्बर, 1780 में, बदरूख़ाँ या गुजरांवाला, [[भारत]] में हुआ और मृत्यु 27 जून, 1839 को [[लाहौर]], (वर्तमान [[पाकिस्तान]]) में हुई। रणजीत सिंह पंजाब के [[सिक्ख]] राज्य के संस्थापक और महाराज (1801-1839) थे।
 
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==राजा की उपाधि==
 
==राजा की उपाधि==

15:37, 7 जुलाई 2011 का अवतरण

रणजीत सिंह (1780-1839) का उपनाम शेरे पंजाब था। इनका जन्म 13 नवम्बर, 1780 में, बदरूख़ाँ या गुजरांवाला, भारत में हुआ और मृत्यु 27 जून, 1839 को लाहौर, (वर्तमान पाकिस्तान) में हुई। रणजीत सिंह पंजाब के सिक्ख राज्य के संस्थापक और महाराज (1801-1839) थे।

राजा की उपाधि

रणजीत सिंह के पिता महासिंह सुकरचकिया मिसल के मुखिया थे। जिस समय रणजीत सिंह की आयु केवल 12 वर्ष की थी, उसी समय उसके पिता का देहान्त हो गया और बाल्यावस्था में ही वह सिक्ख मिसलों के एक छोटे से समूह के सरदार बना दिये गए। 15 वर्ष की आयु में कन्हया मिसल के सरदार की बेटी से उनका विवाह हुआ और कई वर्ष तक उनके क्रियाकलाप उनकी महत्त्वाकांक्षी विधवा सास सदाकौर द्वारा ही निर्देशित होते रहे। नक्कइयों की बेटी के साथ दूसरे विवाह ने रणजीत सिंह को सिक्ख रजवाड़ों (सामन्तों) के बीच महत्त्वपूर्ण बना दिया। ज़िन्दाँ रानी रणजीत सिंह की पाँचवी रानी तथा उनके सबसे छोटे बेटे दलीप सिंह की माँ थीं। आरम्भ में उनका शासन केवल एक छोटे-से भूखण्ड पर था और सैन्यबल भी सीमित था। 1793 ई. से 1798 ई. के बीच अफ़ग़ान शासक जमानशाह के निरन्तर आक्रमणों के फलस्वरूप पंजाब में इतनी अराजकता फैल गई कि उन्नीस वर्षीय रणजीत सिंह ने 1799 ई. के जुलाई मास में लाहौर पर अधिकार कर लिया और जमानशाह ने परिस्थितिवश उनको वहाँ का उपशासक स्वीकार करते हुए राजा की उपाधि प्रदान की।

विजय अभियान

इसके उपरान्त रणजीत सिंह को बराबर सैनिक एवं सामरिक सफलताएँ मिलती गयीं और उन्होंने अफ़ग़ानों की नाममात्र की अधीनता भी अस्वीकार कर दी तथा सतलुज पार की सभी सिक्ख मिसलों को अपने अधीन कर लिया। उन्होंने अमृतसर पर अधिकार कर लिया और जम्मू के शासक को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया।

दूरदर्शी व्यक्ति

1805 ई. में जब लॉर्ड लेक यशवन्तराव होल्कर का पीछा कर रहा था, होल्कर भागकर पंजाब में घुस गया। किन्तु रणजीत सिंह ने इस ख़तरे का निवारण बड़ी दूरदर्शिता और राजनीतिज्ञता से किया। उन्होंने अंग्रेज़ों के साथ सन्धि कर ली, जिसके अनुसार पंजाब होल्कर के प्रभाव क्षेत्र से मुक्त माना गया और अंग्रेज़ों ने सतलुज नदी के उत्तर पंजाब के समस्त भू-भाग पर रणजीत सिंह की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली।

राज्य विस्तार

उन दिनों सतलुज के इस पार की छोटी-छोटी सिक्ख रियासतों में परस्पर झगड़े होते रहते थे और उनमें से कुछ ने रणजीत सिंह से सहायता की याचना भी की। रणजीत सिंह भी इन समस्त सिक्ख रियासतों को अपने नेतृत्व में संघबद्ध करना चाहते थे। इस कारण से उन्होंने इन क्षेत्रों में कई सैनिक अभियान किये और 1807 ई. में लुधियाना पर अधिकार कर लिया। उनका इस रीति से सतलुज के इस पार की कुछ छोटी-छोटी रियासतों पर सत्ताविस्तार अंग्रेज़ों को रुचिकर न हुआ।

अंग्रेज़ों से सन्धि

उस समय अंग्रेज़ों का राज्य विस्तार दिल्ली तक हो चुका था। उन्होंने चार्ल्स मेटकॉफ़ के नेतृत्व में एक दूतमण्डल और उसके पीछे-पीछे डेविड आक्टरलोनी के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना रणजीत सिंह के राज्य में भेजी। इस बार भी रणजीत सिंह ने राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया और अंग्रेज़ों से 1809 ई. में चिरस्थायी मैत्री सन्धि कर ली, जो अमृतसर की सन्धि के नाम से विख्यात है। इसके अनुसार उन्होंने लुधियाना पर से अधिकार हटा लिया और अपने राज्यक्षेत्र को सतलुज नदी के उत्तर और पश्चिम तक ही सीमित रखना स्वीकार किया। साथ ही उन्होंने सतलुज को दक्षिणवर्ती रियासतों के झगड़ों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया। परिणामस्वरूप ये सभी रियासतें अंग्रेज़ों के संरक्षण में आ गईं।

विजय यात्राएँ

रणजीत सिंह ने अब दूसरी दिशा में विजय यात्राएँ आरम्भ करते हुए 1811 ई. में काँगड़ा तथा 1813 ई. में अटक पर अधिकार कर लिया और अफ़ग़ानिस्तान के भगोड़े शासक शाहशुजा को शरण दी। शाहशुजा से ही 1814 ई. में उन्होंने प्रसिद्ध कोहिनूर हीरे का प्राप्त किया था। इसके उपरान्त 1818 ई. में उन्होंने मुल्तान और 1819 ई. में कश्मीर को जीतकर 1823 ई. में पेशवा को अपनी अधीनता स्वीकार करने पर बाध्य किया और 1834 ई. में पेशावर के क़िले पर भी अधिकार कर लिया। उनकी दृष्टि सिन्ध पर भी लगी थी, परन्तु इस दिशा में अंग्रेज़ पहले से घात लगाए हुए थे, क्योंकि रणजीत सिंह की विस्तारवादी नीति से वे पहले से ही सशंकित थे।

सेना का नवीनीकरण

रणजीत सिंह के सभी विजय अभियान उनकी पंजाबी सेनाओं के ज़रिये सफल हुए थे, जो सिक्ख, मुसलमान और हिन्दू सैनिकों से बनी थी। उनके सेनापति और मंत्रीगण भी विभिन्न धार्मिक समुदायों के थे। 1820 में रणजीत सिंह ने अपनी सेना के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया आरम्भ की, जिसमें पैदल सेना और तोपख़ाने के प्रशिक्षण के लिए यूरोपीय अधिकारियों की मदद ली गई। इस आधुनिक पंजाबी सेना ने पश्चिमोत्तर सीमान्त क्षेत्र (अफ़ग़ानिस्तान की सीमा पर) के अभियानों में अच्छा प्रदर्शन किया। 1834 में रणजीत सिंह ने लद्दाख (पूर्वी कश्मीर का एक क्षेत्र) को अपने राज्य में शामिल कर लिया और 1837 में पेशावर पर अफ़ग़ानों के हमले को उनकी सेना ने नाकाम कर दिया।

राजनीतिज्ञ

रणजीत सिंह यथार्थवादी राजनीतिज्ञ थे, जिन्हें सम्भव और असम्भव की भली परख थी। इसी कारण उन्होंने 1831 ई. में अंग्रेज़ों से पुन: सन्धि की, जिसमें चिरस्थायी मैत्री सन्धि की शर्तों को दुहराया गया। इस प्रकार रणजीत सिंह ने न तो अंग्रेज़ों से कोई युद्ध किया और न ही उनकी सेना को किसी भी बहाने से अपने राज्य में अन्दर घुसने दिया। 1838 में उन्होंने काबुल की अफ़ग़ान गद्दी पर शाहशुजा को फिर से बैठाने के लिए अंग्रेज़ वाइसराय लॉर्ड ऑकलैण्ड से एक सन्धि की। इस समझौते के तहत सिन्धु स्थित ब्रिटिश फ़ौजों ने दक्षिण दिशा से और रणजीत सिंह की सेना ने ख़ैबर दर्रे से अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश करके काबुल के विजय प्रदर्शन में हिस्सा लिया।

मृत्यु एवं सिक्ख राज्य

59 वर्ष की आयु में 1839 ई. में अपनी मृत्यु के समय तक उन्होंने एक ऐसे संगठित सिक्ख राज्य का निर्माण कर दिया था, जो पेशावर से सतलुज तक और कश्मीर से सिन्ध तक विस्तृत था। किन्तु इस विस्तृत साम्राज्यों में वह कोई मज़बूत शासन व्यवस्था प्रचलित नहीं कर सके और न ही सिक्खों में वैसी राष्ट्रीय भावना का संचार कर सके, जैसी शिवाजी ने महाराष्ट्र में उत्पन्न कर दी थी। फलत: उनकी मृत्यु के केवल 10 वर्ष के उपरान्त ही यह साम्राज्य नष्ट हो गया। फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि अफ़ग़ानों, अंग्रेज़ों तथा अपने कुछ सहधर्मी सिक्ख सरदारों के विरोध के बावजूद रणजीत सिंह ने जो महान सफलताएँ प्राप्त कीं, उनके आधार पर उनकी गणना उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास की महान विभूतियों में की जानी चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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