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(''''अम्बा प्रसाद''' (जन्म- 1858 ई., मुरादाबाद, [[उत्तर प्रदे...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
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'''अम्बा प्रसाद''' (जन्म- [[1858]] ई., [[मुरादाबाद]], [[उत्तर प्रदेश]]; मृत्यु- [[12 फ़रवरी]], [[1919]], [[ईरान]]), जिन्हें 'सूफ़ी अम्बा प्रसाद' के नाम से जाना जाता है, एक प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता थे। [[वर्ष]] [[1897]] में राजद्रोह के आरोप में इन्हें जेल भेज दिया गया था। सूफ़ी अम्बा प्रसाद ने [[1907]] के '[[किसान आन्दोलन]]' में भाग लिया तथा [[नेपाल]] चले गए, लेकिन नेपाल पुलिस ने गिरफ्तार करके उन्हें [[भारत]] भेज दिया था।
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'''सूफ़ी अम्बा प्रसाद भटनागर''' (जन्म- [[1858]] ई., [[मुरादाबाद]], [[उत्तर प्रदेश]]; मृत्यु- [[12 फ़रवरी]], [[1919]], [[ईरान]]) एक प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता, महान क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी थे। इनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार ने इन्हें वर्ष 1897 और 1907 में फ़ाँसी की सज़ा सुनाई थी। किंतु दोनों ही बार फ़ाँसी से बचने के लिए सूफ़ी अम्बा प्रसाद ईरान भाग गये। ईरान में ये 'गदर पार्टी' के अग्रणी नेता थे। ये अपने सम्पूर्ण जीवन काल में वामपंथी रहे। सूफ़ी अम्बा प्रसाद का मक़बरा ईरान के शीराज़ शहर में बना हुआ है।
 
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==जन्म तथा शिक्षा==
*सूफ़ी अम्बा प्रसाद का जन्म 1858 में [[उत्तर प्रदेश]] के [[मुरादाबाद|मुरादाबाद नगर]] में एक [[कायस्थ]] परिवार में हुआ था।
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सूफ़ी अम्बा प्रसाद भटनागर जी का जन्म 1858 ई. में [[उत्तर प्रदेश]] के [[मुरादाबाद]] में हुआ था। इनका एक हाथ जन्म से ही कटा हुआ था। जब ये बड़े हुए, तब इनसे किसी ने पूछा कि, "आपका एक हाथ कटा हुआ क्यों है?" इस पर उन्होंने जबाव दिया कि, "वर्ष [[1857 का स्वतंत्रता संग्राम|1857 के स्वतंत्रता संग्राम]] में मैंने [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] से जमकर युद्ध किया था। उसी युद्ध में हमारा हाथ कट गया। अब मेरा पुनर्जन्म हुआ है, लेकिन हाथ ठीक नहीं हुआ है।" सूफ़ी अम्बा प्रसाद मुरादाबाद तथा [[जालन्धर]] में अपनी शिक्षा ग्रहण की थी।
*मुरादाबाद तथा [[जालन्धर]] में अम्बा प्रसाद ने अपनी शिक्षा ग्रहण की थी।
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====जेल की सज़ा====
*सरदार अजीत सिंह के नजदीकी सहयोगी होने के साथ ही सूफ़ी अम्बा प्रसाद [[लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक]] के भी अनुयायी थे।
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सूफ़ी अम्बा प्रसाद अपने समय के बड़े अच्छे लेखक थे। वे [[उर्दू]] में एक पत्र भी निकालते थे। दो बार अंग्रेज़ों के विरूद्ध बड़े कड़े लेख उन्होंने लिखे। इसके फलस्वरूप उन पर दो बार मुक़दमा चलाया गया था। प्रथम बार उन्हें चार [[महीने]] की और दूसरी बार नौ [[वर्ष]] की कठोर सज़ा दी गई थी। उनकी सारी सम्पत्ति भी अंग्रेज़ सरकार जप्त कर ली गई। सूफ़ी अम्बा प्रसाद जी कारागार से लौटकर आने के बाद [[हैदराबाद]] चले गए। कुछ दिनों तक हैदराबाद में ही रहे और फिर [[लाहौर]] चले गये।
*अम्बा प्रसाद एक प्रतिष्ठित पत्रकार तथा एक क्रांतिकारी स्कूल से संबंध रखते थे। वे एक बहुसंख्यक लेखक थे, जिन्होंने असंख्य पुस्तकों की रचना की थी।
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=='विद्रोही ईसा' की रचना==
*[[भारत]] में ब्रिटिश सरकार की नीतियों यहाँ तक आर्थिक नीतियों का सख्त रूप से इन्होंने विरोध किया। हालाँकि उन्होंने ब्रिटिश सरकार की उस व्यवस्था की प्रशंसा की, जिसमें लेखक को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता थी।
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लाहौर पहुँचने पर सूफ़ी अम्बा प्रसाद सरदार अजीत सिंह की संस्था 'भारत माता सोसायटी' में काम करने लगे। सिंह जी के नजदीकी सहयोगी होने के साथ ही सूफ़ी अम्बा प्रसाद [[लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक]] के भी अनुयायी बन गए थे। इन्हीं दिनों उन्होंने एक पुस्तक लिखी, जिसका नाम 'विद्रोही ईसा' था। उनकी यह पुस्तक [[अंग्रेज़]] सरकार द्वारा बड़ी आपत्तिजनक समझी गई। इसके फलस्वरूप सरकार उन्हें गिरफ़्तार करने का प्रयत्न किया। सूफ़ी जी गिरफ़्तारी से बचने के लिए [[नेपाल]] चले गए। लेकिन वहाँ पर वे पकड़ लिए गए और [[भारत]] लाये गए। [[लाहौर]] में उन पर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया गया, किंतु कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलने के कारण उन्हें छोड़ दिया गया।
*सूफ़ी अम्बा प्रसाद [[फ़ारसी भाषा]] के प्रकाण्ड विद्वान थे तथा सन [[1908]] में वे [[ईरान]] चले गये थे।
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==शिवाजी के भक्त==
*ईरानी क्रांतिकारियों के साथ मिलकर सूफ़ी अम्बा प्रसाद ने आम आन्दोलन किये। वे अपने सम्पूर्ण जीवन में वामपंथी रहे तथा [[12 फ़रवरी]], [[1919]] में ईरान निर्वासन में मृत्यु को प्राप्त हुए।<ref>{{cite web |url=http://www.kranti1857.org/uttarpradesh%20krantikari.php#abdul%20bari|title=उत्तर प्रदेश के क्रांतिकारी|accessmonthday= 18 अगस्त|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
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सूफ़ी अम्बा प्रसाद [[फ़ारसी भाषा]] के प्रकाण्ड विद्वान थे [[वर्ष]] [[1906]] ई. में जब सरदार अजीत सिंह को बन्दी बनाकर देश निकाले की सज़ा दीगई तो सूफ़ी अम्बा प्रसाद के पीछे भी अंग्रेज़ पुलिस पड़ गई। अपने कई साथियों के साथ सूफ़ी जी पहाड़ों पर चले गये। कई वर्षों तक वे इधर-उधर घूमते रहे। जब पुलिस ने घेराबंदी बन्द कर दी तो सूफ़ी अम्बा प्रसाद फिर [[लाहौर]] जा पहुंचे। लाहौर से उन्होंने एक पत्र निकला, जिसका नाम 'पेशवा' था। सूफ़ी जी [[छत्रपति शिवाजी]] के अनन्य [[भक्त]] थे। उन्होंने 'पेशवा' में शिवाजी पर कई लेख लिखे, जो बड़े आपत्तिजनक समझे गए। इस कारण उनकी गिरफ़्तारी की खबरें फिर उड़ने लगीं। सूफ़ी जी पुन: गुप्त रूप से लाहौर छोड़कर [[ईरान]] की ओर चल दिये। वे बड़ी कठिनाई से अंग्रेज़ों की दृष्टि से बचते हुए ईरान जा पहुंचे।
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====निधन====
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ईरानी क्रांतिकारियों के साथ मिलकर सूफ़ी अम्बा प्रसाद ने आम आन्दोलन किये। वे अपने सम्पूर्ण जीवन में वामपंथी रहे। [[12 फ़रवरी]], [[1919]] में ईरान निर्वासन में ही वे मृत्यु को प्राप्त हुए।<ref>{{cite web |url=http://www.kranti1857.org/uttarpradesh%20krantikari.php#abdul%20bari|title=उत्तर प्रदेश के क्रांतिकारी|accessmonthday= 18 अगस्त|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
  
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==बाहरी कड़ियाँ==
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*[http://www.panjab.org.uk/english/histGPty.html हिस्ट्री ऑफ़ द गदर मूवमेंट]
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*[http://www.punjabmuseums.gov.in/subcategory.php?mid=9&cat=miscellaneous&subcat=Photograph पंजाब के संग्रहालय]
 
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13:13, 12 फ़रवरी 2014 का अवतरण

सूफ़ी अम्बा प्रसाद भटनागर (जन्म- 1858 ई., मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 12 फ़रवरी, 1919, ईरान) एक प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता, महान क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी थे। इनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण ब्रिटिश सरकार ने इन्हें वर्ष 1897 और 1907 में फ़ाँसी की सज़ा सुनाई थी। किंतु दोनों ही बार फ़ाँसी से बचने के लिए सूफ़ी अम्बा प्रसाद ईरान भाग गये। ईरान में ये 'गदर पार्टी' के अग्रणी नेता थे। ये अपने सम्पूर्ण जीवन काल में वामपंथी रहे। सूफ़ी अम्बा प्रसाद का मक़बरा ईरान के शीराज़ शहर में बना हुआ है।

जन्म तथा शिक्षा

सूफ़ी अम्बा प्रसाद भटनागर जी का जन्म 1858 ई. में उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में हुआ था। इनका एक हाथ जन्म से ही कटा हुआ था। जब ये बड़े हुए, तब इनसे किसी ने पूछा कि, "आपका एक हाथ कटा हुआ क्यों है?" इस पर उन्होंने जबाव दिया कि, "वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में मैंने अंग्रेज़ों से जमकर युद्ध किया था। उसी युद्ध में हमारा हाथ कट गया। अब मेरा पुनर्जन्म हुआ है, लेकिन हाथ ठीक नहीं हुआ है।" सूफ़ी अम्बा प्रसाद मुरादाबाद तथा जालन्धर में अपनी शिक्षा ग्रहण की थी।

जेल की सज़ा

सूफ़ी अम्बा प्रसाद अपने समय के बड़े अच्छे लेखक थे। वे उर्दू में एक पत्र भी निकालते थे। दो बार अंग्रेज़ों के विरूद्ध बड़े कड़े लेख उन्होंने लिखे। इसके फलस्वरूप उन पर दो बार मुक़दमा चलाया गया था। प्रथम बार उन्हें चार महीने की और दूसरी बार नौ वर्ष की कठोर सज़ा दी गई थी। उनकी सारी सम्पत्ति भी अंग्रेज़ सरकार जप्त कर ली गई। सूफ़ी अम्बा प्रसाद जी कारागार से लौटकर आने के बाद हैदराबाद चले गए। कुछ दिनों तक हैदराबाद में ही रहे और फिर लाहौर चले गये।

'विद्रोही ईसा' की रचना

लाहौर पहुँचने पर सूफ़ी अम्बा प्रसाद सरदार अजीत सिंह की संस्था 'भारत माता सोसायटी' में काम करने लगे। सिंह जी के नजदीकी सहयोगी होने के साथ ही सूफ़ी अम्बा प्रसाद लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के भी अनुयायी बन गए थे। इन्हीं दिनों उन्होंने एक पुस्तक लिखी, जिसका नाम 'विद्रोही ईसा' था। उनकी यह पुस्तक अंग्रेज़ सरकार द्वारा बड़ी आपत्तिजनक समझी गई। इसके फलस्वरूप सरकार उन्हें गिरफ़्तार करने का प्रयत्न किया। सूफ़ी जी गिरफ़्तारी से बचने के लिए नेपाल चले गए। लेकिन वहाँ पर वे पकड़ लिए गए और भारत लाये गए। लाहौर में उन पर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया गया, किंतु कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलने के कारण उन्हें छोड़ दिया गया।

शिवाजी के भक्त

सूफ़ी अम्बा प्रसाद फ़ारसी भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे वर्ष 1906 ई. में जब सरदार अजीत सिंह को बन्दी बनाकर देश निकाले की सज़ा दीगई तो सूफ़ी अम्बा प्रसाद के पीछे भी अंग्रेज़ पुलिस पड़ गई। अपने कई साथियों के साथ सूफ़ी जी पहाड़ों पर चले गये। कई वर्षों तक वे इधर-उधर घूमते रहे। जब पुलिस ने घेराबंदी बन्द कर दी तो सूफ़ी अम्बा प्रसाद फिर लाहौर जा पहुंचे। लाहौर से उन्होंने एक पत्र निकला, जिसका नाम 'पेशवा' था। सूफ़ी जी छत्रपति शिवाजी के अनन्य भक्त थे। उन्होंने 'पेशवा' में शिवाजी पर कई लेख लिखे, जो बड़े आपत्तिजनक समझे गए। इस कारण उनकी गिरफ़्तारी की खबरें फिर उड़ने लगीं। सूफ़ी जी पुन: गुप्त रूप से लाहौर छोड़कर ईरान की ओर चल दिये। वे बड़ी कठिनाई से अंग्रेज़ों की दृष्टि से बचते हुए ईरान जा पहुंचे।

निधन

ईरानी क्रांतिकारियों के साथ मिलकर सूफ़ी अम्बा प्रसाद ने आम आन्दोलन किये। वे अपने सम्पूर्ण जीवन में वामपंथी रहे। 12 फ़रवरी, 1919 में ईरान निर्वासन में ही वे मृत्यु को प्राप्त हुए।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उत्तर प्रदेश के क्रांतिकारी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 18 अगस्त, 2013।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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