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'''ग़ालिब का व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक था।''' ईरानी चेहरा, गोरा-लम्बा क़द, सुडौल एकहरा बदन, ऊँची नाक, कपोल की हड्डी उभरी हुई, चौड़ा माथा, घनी उठी पलकों के बीच झाँकते दीर्घ नयन, संसार की कहानी सुनने को उत्सुक लम्बे कान, अपनी सुनाने को उत्सुक, मानों बोल ही पडेंगे। ऐसे ओठ अपनी चुप्पी में भी बोल पड़ने वाले, बुढ़ापे में भी फूटती देह की कान्ती जो इशारा करती है कि जवानी के सौंदर्य में न जाने क्या नशा रहा होगा। सुन्दर गौर वर्ण, समस्त ज़िन्दादिली के साथ जीवित, इसी दुनिया के आदमी, इंसान और इंसान के गुण-दोषों से लगाये-यह थे मिर्ज़ा वा मीरज़ा ग़ालिब।
 
'''ग़ालिब का व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक था।''' ईरानी चेहरा, गोरा-लम्बा क़द, सुडौल एकहरा बदन, ऊँची नाक, कपोल की हड्डी उभरी हुई, चौड़ा माथा, घनी उठी पलकों के बीच झाँकते दीर्घ नयन, संसार की कहानी सुनने को उत्सुक लम्बे कान, अपनी सुनाने को उत्सुक, मानों बोल ही पडेंगे। ऐसे ओठ अपनी चुप्पी में भी बोल पड़ने वाले, बुढ़ापे में भी फूटती देह की कान्ती जो इशारा करती है कि जवानी के सौंदर्य में न जाने क्या नशा रहा होगा। सुन्दर गौर वर्ण, समस्त ज़िन्दादिली के साथ जीवित, इसी दुनिया के आदमी, इंसान और इंसान के गुण-दोषों से लगाये-यह थे मिर्ज़ा वा मीरज़ा ग़ालिब।
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काग़ज़ात विलायत भेज दिए जाने से ग़ालिब को बड़ी खुशी हुई और उन्होंने एक [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] क़ता भी लिखा और आशान्वित होकर पुन: दर्ख़ास्त दी कि मई 1806 से आज तक हमें जितना कम मिला है और जो दो लाख तीन हज़ार होता है, वह उस दो लाख, साठ हज़ार की रक़म में से दिया जाए जो नवाब शम्सुद्दीन ने अपनी फ़ाँसी के पूर्व अंग्रेज़ ख़ज़ाने में जमा कराई थी। दूसरे हमें 3 हज़ार सालाना पेंशन का एप्रिल 1835 तक बक़ाया उस जायदाद से दिलवाया जाए जो नवाब फ़ीरोज़पुर छोड़कर मरे हैं और जब तक डाइरेक्टरों का फ़ैसला विलायते नहीं आ जाता हमें तीन हज़ार सालाना नियमित रूप से मिलता रहे। पर ग़ालिब को मानव प्रकृति का अच्छा ज्ञान नहीं था। वह समझते थे कि अंग्रेज़ ख़ुशामद से क़ाबू में किए जा सकते हैं। बहरहाल ये सब आवेदन निरर्थक सिद्ध हुए और 1842 के आरम्भ में विलायत से अन्तिम फ़ैसला भी आ गया कि जो निर्णय हिन्दुस्तान में हो चुका है, वही ठीक है। पर वाह री मिर्ज़ा की आशावादिता- इतने पर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और [[29 जुलाई]], 1842 को इस फ़ैसले के विरुद्ध एक अपील, मेमोरियल के ढंग पर, [[महारानी विक्टोरिया]] क पास गवर्नर-जनरल के ज़रिये भेजी। पर इसका भी कोई परिणाम नहीं निकला और 1844 में वह बिल्कुल निराश और पस्त हो गए।  
 
काग़ज़ात विलायत भेज दिए जाने से ग़ालिब को बड़ी खुशी हुई और उन्होंने एक [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] क़ता भी लिखा और आशान्वित होकर पुन: दर्ख़ास्त दी कि मई 1806 से आज तक हमें जितना कम मिला है और जो दो लाख तीन हज़ार होता है, वह उस दो लाख, साठ हज़ार की रक़म में से दिया जाए जो नवाब शम्सुद्दीन ने अपनी फ़ाँसी के पूर्व अंग्रेज़ ख़ज़ाने में जमा कराई थी। दूसरे हमें 3 हज़ार सालाना पेंशन का एप्रिल 1835 तक बक़ाया उस जायदाद से दिलवाया जाए जो नवाब फ़ीरोज़पुर छोड़कर मरे हैं और जब तक डाइरेक्टरों का फ़ैसला विलायते नहीं आ जाता हमें तीन हज़ार सालाना नियमित रूप से मिलता रहे। पर ग़ालिब को मानव प्रकृति का अच्छा ज्ञान नहीं था। वह समझते थे कि अंग्रेज़ ख़ुशामद से क़ाबू में किए जा सकते हैं। बहरहाल ये सब आवेदन निरर्थक सिद्ध हुए और 1842 के आरम्भ में विलायत से अन्तिम फ़ैसला भी आ गया कि जो निर्णय हिन्दुस्तान में हो चुका है, वही ठीक है। पर वाह री मिर्ज़ा की आशावादिता- इतने पर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और [[29 जुलाई]], 1842 को इस फ़ैसले के विरुद्ध एक अपील, मेमोरियल के ढंग पर, [[महारानी विक्टोरिया]] क पास गवर्नर-जनरल के ज़रिये भेजी। पर इसका भी कोई परिणाम नहीं निकला और 1844 में वह बिल्कुल निराश और पस्त हो गए।  
 
यहाँ यह ख़्याल रखना चाहिए कि मुक़दमा उन्होंने 1828 में दायर किया था और यह अन्तिम फ़ैसला 1844 में, 16 साल के बाद हुआ। उस ज़माने में जब कि यातायात के साधन दुर्लभ थे, उनका कितना ख़र्च इस पर पड़ा होगा, इसका अंदाज़ा लगया जा सकता है। जो कुछ भी उनके पास था, वह भी इस मुक़दमें में ही समाप्त हो गया। महाजनों के हज़ारों रुपये के क़र्ज़दार हो गए, जो इन्होंने विश्वास पर लिए थे कि मुक़दमें के फ़ैसले से हमें एक बड़ी रक़म मिल जायेगी। 1835 में ही इन पर 40-50 हज़ार का क़र्ज़ हो गया था। निर्णय इनके विरुद्ध होने से क़र्ज़ के बोझ से ऐसे दबे कि ज़िन्दगी भर उभर एवं उबर नहीं सके। ज़िन्दगी क़र्ज़ चुकाते-चुकाते बीती, फिर भी न चुका सके। कठिनाइयों के कारण गृहस्थ जीवन पहले से ही दु:खद था, अब तो उसमें बड़ी जड़ता और निराशा आ गई और उन्होंने भाग्य के आगे कन्धा डाल दिया।
 
यहाँ यह ख़्याल रखना चाहिए कि मुक़दमा उन्होंने 1828 में दायर किया था और यह अन्तिम फ़ैसला 1844 में, 16 साल के बाद हुआ। उस ज़माने में जब कि यातायात के साधन दुर्लभ थे, उनका कितना ख़र्च इस पर पड़ा होगा, इसका अंदाज़ा लगया जा सकता है। जो कुछ भी उनके पास था, वह भी इस मुक़दमें में ही समाप्त हो गया। महाजनों के हज़ारों रुपये के क़र्ज़दार हो गए, जो इन्होंने विश्वास पर लिए थे कि मुक़दमें के फ़ैसले से हमें एक बड़ी रक़म मिल जायेगी। 1835 में ही इन पर 40-50 हज़ार का क़र्ज़ हो गया था। निर्णय इनके विरुद्ध होने से क़र्ज़ के बोझ से ऐसे दबे कि ज़िन्दगी भर उभर एवं उबर नहीं सके। ज़िन्दगी क़र्ज़ चुकाते-चुकाते बीती, फिर भी न चुका सके। कठिनाइयों के कारण गृहस्थ जीवन पहले से ही दु:खद था, अब तो उसमें बड़ी जड़ता और निराशा आ गई और उन्होंने भाग्य के आगे कन्धा डाल दिया।
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06:09, 9 नवम्बर 2015 का अवतरण

ग़ालिब विषय सूची
ग़ालिब

ग़ालिब का व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक था। ईरानी चेहरा, गोरा-लम्बा क़द, सुडौल एकहरा बदन, ऊँची नाक, कपोल की हड्डी उभरी हुई, चौड़ा माथा, घनी उठी पलकों के बीच झाँकते दीर्घ नयन, संसार की कहानी सुनने को उत्सुक लम्बे कान, अपनी सुनाने को उत्सुक, मानों बोल ही पडेंगे। ऐसे ओठ अपनी चुप्पी में भी बोल पड़ने वाले, बुढ़ापे में भी फूटती देह की कान्ती जो इशारा करती है कि जवानी के सौंदर्य में न जाने क्या नशा रहा होगा। सुन्दर गौर वर्ण, समस्त ज़िन्दादिली के साथ जीवित, इसी दुनिया के आदमी, इंसान और इंसान के गुण-दोषों से लगाये-यह थे मिर्ज़ा वा मीरज़ा ग़ालिब।

वस्त्र विन्यास और भोजन

रईसज़ादा थे और जन्म भर अपने को वैसा ही समझते रहे। इसीलिए वस्त्र विन्यास का बड़ा ध्यान रखते थे। जब घर पर होते, प्राय: पाजामा और अंगरखा पहिनते थे। सिर पर कामदानी की हुई मलमल की गोल टोपी लगाते थे। जाड़ों में गर्म कपड़े का कलीदार पाजामा और मिर्ज़ई। बाहर जाते तो अक्सर चूड़ीदार या तंग मोहड़ी का पाजामा, कुर्ता, सदरी या चपकन और ऊपर क़ीमती लबादा होता था। पाँव में जूती और हाथ में मूठदार, लम्बी छड़ी। ज़्यादा ठण्ड होती तो एक छोटा शाल भी कंधे और पीठ पर डाल लेते थे। सिर पर लम्बी टोपी। कभी-कभी टोपी पर मुग़लई पगड़ी या पटका। रेशमी लुंगी के शौक़ीन थे। रंगों का बड़ा ध्यान रखते थे।

खाने-खिलाने के शौक़ीन

खाने-खिलाने के शौक़ीन, स्वादिष्ट भोजनों के प्रेमी थे। गर्मी-सर्दी हर मौसम में उठते ही सबसे पहले ठण्डाई पीते थे, जो बादाम को पीसकर मिश्री के शर्बत में घोली जाती थी। फिर पहर दिन चढ़े नाश्ता करते थे। बुढ़ापे में एक ही बार, दोपहर को खाना खाते; रात को कभी न खाते। खाने में गोश्त ज़रूर रहता था, शायद ही कभी नागा हुआ हो। गोश्त के ताज़ा, बेरेशा, पकने पर मुलायम और स्वादिष्ट रहने की शर्त; फिर मेवे भी उसमें ज़रूर पड़े हों शोरबा आधा सेर के लगभग। बकरी एवं दुम्बे का गोश्त अधिक पसंद था, भेंड़ का अच्छा नहीं लगता था। पक्षियों में मुर्ग, कबूतर और बटेर पसंद था। गोश्त और तरकारी में अपना बस चलते चने की दाल ज़रूर डलवाते थे।

चने की दाल, बेसन की कढ़ी और फुलकियाँ बहुत खाते थे। बुढ़ापे एवं बीमारी में जब मेदा ख़राब हो गया, तो रोटी-चावल दोनों छोड़ दिए और सेर भर गोश्त की गाढ़ी यख़नी और कभी-कभी 3-4 तले शमामी कबाब लेते थे। फलों में अंगूर और आम बहुत पसंद थे। आमों को तो बहुत ही ज़्यादा चाहते थे। मित्रों से उनके लिए फ़रमाइश करते रहते थे, और इसके बारे में अनेक लतीफ़े इनकी ज़िन्दगी से सम्बद्ध हैं। हुक़्क़ा पीते थे, पेचवान को ज़्यादा पसंद करते थे। पान नहीं खाते थे। शराब जन्म भर पीते रहे। पर बुढ़ापे में तन्दुरुस्ती ख़राब होने पर नाम को चन्द तोले शाम को पीते। बिना पिये नींद न आती थी। सदा विलायती शराब पीते थे। ओल्ड टाम और कासटेलन ज़्यादा पसंद थी। शराब की तेज़ी कम करने को आधे से ज़्यादा गुलाबजल मिलाते थे। पात्र को कपड़े से लपेटते और गर्मी के दिनों में कपड़े को बर्फ़ से तर कर देते। ख़ुद ही कहा है-

आसूदा बाद ख़ातिरे ग़ालिब कि ख़ूए औस्त
आमेख़्तन ब बादए साक़ी गुलाब रा।

विनोदप्रिय व मदिरा प्रेमी

मिर्ज़ा ग़ालिब जीवन संघर्ष से भागते नहीं और न इनकी कविता में कहीं निराशा का नाम है। वह इस संघर्ष को जीवन का एक अंश तथा आवश्यक अंग समझते थे। मानव की उच्चता तथा मनुष्यत्व को सब कुछ मानकर उसके भावों तथा विचारों का वर्णन करने में वह अत्यन्त निपुण थे और यह वर्णनशैली ऐसे नए ढंग की है कि, इसे पढ़कर पाठक मुग्ध हो जाता है। ग़ालिब में जिस प्रकार शारीरिक सौंदर्य था, उसी प्रकार उनकी प्रकृति में विनोदप्रियता तथा वक्रता भी थी और ये सब विशेषताएँ उनकी कविता में यत्र-तत्र झलकती रहती हैं। वह मदिरा प्रेमी भी थे, इसलिये मदिरा के संबंध में इन्होंने जहाँ भाव प्रकट किए हैं, वे शेर ऐसे चुटीले तथा विनोदपूर्ण हैं कि, उनका जोड़ उर्दू कविता में अन्यत्र नहीं मिलता।

शराब की चुस्की लेते और साथ-साथ धीमे तले नमकीन बादाम खाते। जब दुर्बल हुए तो इन्हें ख़ुद शराब पीने पर अनुताप होता था। पर आदत छूटती न थी। फिर भी मात्रा कम करने के लिए एक समय, एकान्त में दो या एक ख़ास दोस्तों की उपस्थिति में पीते थे। कहीं ज़्यादा न पी लें, इसीलिए संदूक़ में बोतलें रखते थे उसकी चाबी इनके वफ़ादार सेवक कल्लू दारोग़ा के पास रहती थी और उसे ताक़ीद कर रखा था कि रात को कभी नशे या सुरूर में मैं ज़्यादा पीना चाहूँ और माँगूँ तो मेरा कहना न मानना और

तलब करने पर भी कुंजी (चाबी) न देना। लोगों के पूछने पर भी कि यों नाम करने से क्या फ़ायदा, छोड़ ही न दें, ‘जौंक़’ का शेर पढ़ते थे-


छूटती नहीं है मुँह से यह काफ़िर लगी हुई।

शिष्टता एवं उदारता

मिर्ज़ा के विषय में पहली बात तो यह है कि वह अत्यन्त शिष्ट एवं मित्रपराण थे। जो कोई उनसे मिलने आता, उससे खुले दिल से मिलते थे। इसीलिए जो आदमी एक बार इनसे मिलता था, उसे सदा इनसे मिलने की इच्छा बनी रहती थी। मित्रों के प्रति अत्यन्त वफ़ादार थे। उनकी खुशी में खुशी, उनके दु:ख में दु:ख। मित्रों को देखकर बाग़-बाग़ हो जाते थे। उनके मित्रों का बहुत बड़ा दायरा था। उसमें हर जाति, धर्म और प्रान्त के लोग थे। मित्र को कष्ट में देखते तो इनका ह्रदय रो पड़ता था। उसका दु:ख दूर करने के लिए जो कुछ भी सम्भव होता था करते थे। स्वयं न कर पाते तो दूसरों से सिफ़ारिश करते। इनके पत्रों में मित्रों के प्रति सहानुभूति एवं चिन्ता के झरने बहुत हुए दिखाई देते हैं। मित्रों को कष्ट में देख ही नहीं सकते थे। उनका दिल कचोटने लगता था। ह्रदय में रस था, इसीलिए प्रेम छलक पड़ता था। मित्रों क्या शागिर्दों से भी बहुत प्रेम करते थे। इनको इस्लाह ही नहीं देते थे; संसाधनों का कारण भी लिखते थे। बच्चों पर जान देते थे। आमदनी कम थी। ख़ुद कष्ट में रहते थे, फिर भी पीड़ितों के प्रति बड़े उदार थे। कोई भिखारी इनके दरवाज़े से ख़ाली हाथ नहीं लौटता था। उनके मकान के आगे अन्धे, लंगड़े-लूले अक्सर पड़े रहते थे। मिर्ज़ा उनकी मदद करते रहते थे। एक बार ख़िलअत मिली। चपरासी इनाम लेने आए। घर में पैसे नहीं थे। चुपके से गए, ख़िलअत बेच आए और चपरासियों को उचित इनाम दिया।

आत्म-स्वाभिमान

इस उदार दृष्टि के बावजूद आत्माभिमानी थे- ‘मीर’ जैसे तो नहीं, जिन्होंने दुनिया की हर नामत अपने सम्मान के लिए ठुकराई, फिर भी अपनी इज़्ज़त-आबरू का बड़ा ख़्याल रखते थे। शहर के अनेक सम्भ्रान्त लोगों से परिचय था। लेकिन जो इनके घर पर न आता था, उसके यहाँ कभी नहीं जाते थे। कैसी ग़रीबी हो बाज़ार में बिना पालकी या हवादार के नहीं निकलते थे। कलकत्ता जाते हुए जब लखनऊ ठहरे थे, तो आग़ामीर से इसीलिए नहीं मिले कि उसने उठकर इनका स्वागत करने की शर्त मंज़ूर नहीं की थी। ग़ालिब के आत्म-सम्मान की हालत यह थी कि जब उन्हें दिल्ली कॉलेज में फ़ारसी भाषा के मुख्य अध्यापक का पद पेश किया गया तो अपनी दुरावस्था सुधारने के विचार से वे टामसन साहब (सेक्रेटरी, गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया) के बुलावे पर उनके यहाँ पहुँचे, तो यह देखकर कि टामसन साहब उनके स्वागत के लिए बाहर नहीं आए, उन्होंने कहारों को पालकी वापस ले चलने को कह दिया[1]

सर्व धर्मप्रिय व्यक्ति

वैसे वह शिया मुसलमान थे, पर मज़हब की भावनाओं में बहुत उदार और स्वतंत्र चेता थे। इनकी मृत्यु के बाद ही आगरा से प्रकाशित होने वाले पत्र ‘ज़ख़ीरा बालगोविन्द’ के मार्च, 1869 के अंक में इनकी मृत्यु पर जो सम्पादकीय लेख छपा था और जो शायद इनके सम्बन्ध में लिखा सबसे पुराना और पहला लेख है, उससे तो एक नई बात मालूम होती है कि यह बहुत पहले चुपचाप ‘फ़्रीमैसन’ हो गए थे और लोगों के बहुत पूछने पर भी उसकी गोपनीयता की अन्त तक रक्षा करते रहे। बहरहाल वह जो भी रहे हों, 'इतना तो तय है कि मज़हब की दासता उन्होंने कभी स्वीकार नहीं की। इनके मित्रों में हर जाति, धर्म और श्रेणी के लोग थे।

ख़ुद का घर न होना

ग़ालिब सदा किराये के मकानों में रहे, अपना मकान न बनवा सके। ऐसा मकान ज़्यादा पसंद करते थे, जिसमें बैठकख़ाना और अन्त:पुर अलग-अलग हों और उनके दरवाज़े भी अलग हों, जिससे यार-दोस्त बेझिझक आ-जा सकें। नौकर 4-4, 5-5 रखते थे। बुरे से बुरे दिनों में भी तीन से कम न रहे। यात्रा में भी 2-3 नौकर साथ रहते थे। इनके पुराने नौकरों में मदारी या मदार ख़ाँ, कल्लु और कल्यान बड़े वफ़ादार रहे। कल्लु तो अन्त तक साथ ही रहा। वह चौदह वर्ष की आयु में मिर्ज़ा के पास आया था और उनके परिवार का ही हो गया था। वह पाँव की आहट से पहिचान लेता था कि लड़कियाँ हैं, बहुएँ हैं या बुढ़िया हैं।

विवाह

जब असदउल्ला ख़ाँ ग़ालिब' सिर्फ़ 13 वर्ष के थे, इनका विवाह लोहारू के नवाब 'अहमदबख़्श ख़ाँ' (जिनकी बहन से इनके चचा का ब्याह हुआ था) के छोटे भाई 'मिर्ज़ा इलाहीबख़्श ख़ाँ ‘मारूफ़’ की बेटी 'उमराव बेगम' के साथ 9 अगस्त, 1810 ई. को सम्पन्न हुआ था। उमराव बेगम 11 वर्ष की थीं। इस तरह लोहारू राजवंश से इनका सम्बन्ध और दृढ़ हो गया। पहले भी वह बीच-बीच में दिल्ली जाते रहते थे, पर शादी के 2-3 वर्ष बाद तो दिल्ली के ही हो गए। वह स्वयं ‘उर्दू-ए-मोअल्ला’ (इनका एक ख़त) में इस घटना का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि-
"7 रज्जब 1225 हिजरी को मेरे वास्ते हुक्म दवा में हब्स[2] सादिर[3] हुआ। एक बेड़ी (यानी बीवी) मेरे पाँव में डाल दी और दिल्ली शहर को ज़िन्दान[4] मुक़र्रर किया और मुझे इस ज़िन्दाँ में डाल दिया।"

गली क़ासिम जान, दिल्ली

ग़ालिब की आशावादिता

काग़ज़ात विलायत भेज दिए जाने से ग़ालिब को बड़ी खुशी हुई और उन्होंने एक फ़ारसी क़ता भी लिखा और आशान्वित होकर पुन: दर्ख़ास्त दी कि मई 1806 से आज तक हमें जितना कम मिला है और जो दो लाख तीन हज़ार होता है, वह उस दो लाख, साठ हज़ार की रक़म में से दिया जाए जो नवाब शम्सुद्दीन ने अपनी फ़ाँसी के पूर्व अंग्रेज़ ख़ज़ाने में जमा कराई थी। दूसरे हमें 3 हज़ार सालाना पेंशन का एप्रिल 1835 तक बक़ाया उस जायदाद से दिलवाया जाए जो नवाब फ़ीरोज़पुर छोड़कर मरे हैं और जब तक डाइरेक्टरों का फ़ैसला विलायते नहीं आ जाता हमें तीन हज़ार सालाना नियमित रूप से मिलता रहे। पर ग़ालिब को मानव प्रकृति का अच्छा ज्ञान नहीं था। वह समझते थे कि अंग्रेज़ ख़ुशामद से क़ाबू में किए जा सकते हैं। बहरहाल ये सब आवेदन निरर्थक सिद्ध हुए और 1842 के आरम्भ में विलायत से अन्तिम फ़ैसला भी आ गया कि जो निर्णय हिन्दुस्तान में हो चुका है, वही ठीक है। पर वाह री मिर्ज़ा की आशावादिता- इतने पर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और 29 जुलाई, 1842 को इस फ़ैसले के विरुद्ध एक अपील, मेमोरियल के ढंग पर, महारानी विक्टोरिया क पास गवर्नर-जनरल के ज़रिये भेजी। पर इसका भी कोई परिणाम नहीं निकला और 1844 में वह बिल्कुल निराश और पस्त हो गए। यहाँ यह ख़्याल रखना चाहिए कि मुक़दमा उन्होंने 1828 में दायर किया था और यह अन्तिम फ़ैसला 1844 में, 16 साल के बाद हुआ। उस ज़माने में जब कि यातायात के साधन दुर्लभ थे, उनका कितना ख़र्च इस पर पड़ा होगा, इसका अंदाज़ा लगया जा सकता है। जो कुछ भी उनके पास था, वह भी इस मुक़दमें में ही समाप्त हो गया। महाजनों के हज़ारों रुपये के क़र्ज़दार हो गए, जो इन्होंने विश्वास पर लिए थे कि मुक़दमें के फ़ैसले से हमें एक बड़ी रक़म मिल जायेगी। 1835 में ही इन पर 40-50 हज़ार का क़र्ज़ हो गया था। निर्णय इनके विरुद्ध होने से क़र्ज़ के बोझ से ऐसे दबे कि ज़िन्दगी भर उभर एवं उबर नहीं सके। ज़िन्दगी क़र्ज़ चुकाते-चुकाते बीती, फिर भी न चुका सके। कठिनाइयों के कारण गृहस्थ जीवन पहले से ही दु:खद था, अब तो उसमें बड़ी जड़ता और निराशा आ गई और उन्होंने भाग्य के आगे कन्धा डाल दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ग़ालिब जहाँ पर भी जाते थे, चार कहारों की पालकी में बैठकर जाते थे
  2. स्थायी क़ैद
  3. जारी
  4. कारागार

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