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कृपाचार्य के जन्म के विषय में दो कथाएँ मिलती हैं-
  
'''प्रथम कथानुसार''' महर्षि शरद्वान की तपस्या भंग करने के लिए [[इंद्र|देवराज इंद्र]] ने 'जानपदी' नामक एक देवकन्या भेजी थी, जिसके गर्भ से दो यमज भाई-बहन जन्में। [[माता]]-[[पिता]] दोनों ने नवजात शिशुओं को जंगल में छोड़ दिया, जहाँ [[हस्तिनापुर]] के [[शांतनु|महाराज शांतनु]] ने इनको देखा। शांतनु ने इन पर कृपा करके दोनों को पाला पोसा, जिससे इनके नाम 'कृप' तथा '[[कृपि]]' पड़ गए।
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'''प्रथम कथानुसार''' महर्षि शरद्वान की तपस्या भंग करने के लिए [[इंद्र|देवराज इंद्र]] ने '[[जानपदी]]' नामक एक देवकन्या भेजी थी, जिसके गर्भ से दो यमज भाई-बहन जन्में। [[माता]]-[[पिता]] दोनों ने नवजात शिशुओं को जंगल में छोड़ दिया, जहाँ [[हस्तिनापुर]] के [[शांतनु|महाराज शांतनु]] ने इनको देखा। शांतनु ने इन पर कृपा करके दोनों को पाला पोसा, जिससे इनके नाम 'कृप' तथा '[[कृपि]]' पड़ गए।
  
 
'''द्वितीय कथानुसार''' शरद्वान गौतम घोर तपस्वी थे। उनकी विकट तपस्या ने [[इन्द्र]] को अत्यंत चिंता में डाल दिया था। इन्द्र ने उनकी तपस्या को भंग करने के लिए 'जानपदी' नामक देवकन्या को उनके आश्रम में भेजा। उसके सौंदर्य पर मुग्ध होकर शरद्वान गौतम का अनजाने ही वीर्यपात हो गया। वह वीर्य सरकंडे के समूह पर गिरकर दो भागों में विभक्त हो गया, जिससे एक कन्या और एक पुत्र का जन्म हुआ। शरद्वान धनुर्वेत्ता थे। वे धनुष बाण तथा काला मृगचर्म वहीं छोड़कर कहीं चले गये। शिकार खेलते हुए [[शांतनु]] को वे शिशु प्राप्त हुए। उन दोनों का नाम '[[कृपि]]' और 'कृप' रखकर शांतनु ने उनका लालन-पालन किया।
 
'''द्वितीय कथानुसार''' शरद्वान गौतम घोर तपस्वी थे। उनकी विकट तपस्या ने [[इन्द्र]] को अत्यंत चिंता में डाल दिया था। इन्द्र ने उनकी तपस्या को भंग करने के लिए 'जानपदी' नामक देवकन्या को उनके आश्रम में भेजा। उसके सौंदर्य पर मुग्ध होकर शरद्वान गौतम का अनजाने ही वीर्यपात हो गया। वह वीर्य सरकंडे के समूह पर गिरकर दो भागों में विभक्त हो गया, जिससे एक कन्या और एक पुत्र का जन्म हुआ। शरद्वान धनुर्वेत्ता थे। वे धनुष बाण तथा काला मृगचर्म वहीं छोड़कर कहीं चले गये। शिकार खेलते हुए [[शांतनु]] को वे शिशु प्राप्त हुए। उन दोनों का नाम '[[कृपि]]' और 'कृप' रखकर शांतनु ने उनका लालन-पालन किया।
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कृपाचार्य महर्षि शरद्वान गौतम के पुत्र थे। इनकी बहन का नाम 'कृपि' था, जिसका विवाह द्रोण से हुआ था, जो पाण्डवों तथा कौरवों के गुरु थे। महाभारत के युद्ध में कृपाचार्य भीष्म आदि के साथ ही दुर्योधन के पक्ष में युद्ध कर रहे थे। महाभारत युद्ध के बाद ये पाण्डवों से आ मिले और फिर अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्रदान की।

जन्म कथा

कृपाचार्य के जन्म के विषय में दो कथाएँ मिलती हैं-

प्रथम कथानुसार महर्षि शरद्वान की तपस्या भंग करने के लिए देवराज इंद्र ने 'जानपदी' नामक एक देवकन्या भेजी थी, जिसके गर्भ से दो यमज भाई-बहन जन्में। माता-पिता दोनों ने नवजात शिशुओं को जंगल में छोड़ दिया, जहाँ हस्तिनापुर के महाराज शांतनु ने इनको देखा। शांतनु ने इन पर कृपा करके दोनों को पाला पोसा, जिससे इनके नाम 'कृप' तथा 'कृपि' पड़ गए।

द्वितीय कथानुसार शरद्वान गौतम घोर तपस्वी थे। उनकी विकट तपस्या ने इन्द्र को अत्यंत चिंता में डाल दिया था। इन्द्र ने उनकी तपस्या को भंग करने के लिए 'जानपदी' नामक देवकन्या को उनके आश्रम में भेजा। उसके सौंदर्य पर मुग्ध होकर शरद्वान गौतम का अनजाने ही वीर्यपात हो गया। वह वीर्य सरकंडे के समूह पर गिरकर दो भागों में विभक्त हो गया, जिससे एक कन्या और एक पुत्र का जन्म हुआ। शरद्वान धनुर्वेत्ता थे। वे धनुष बाण तथा काला मृगचर्म वहीं छोड़कर कहीं चले गये। शिकार खेलते हुए शांतनु को वे शिशु प्राप्त हुए। उन दोनों का नाम 'कृपि' और 'कृप' रखकर शांतनु ने उनका लालन-पालन किया।

श्रेष्ठ धनुर्धर

कृप की बहन कृपी का विवाह द्रोणाचार्य से हुआ और उनके पुत्र अश्वत्थामा हुए। अपने पिता के ही सदृश कृपाचार्य भी परम धनुर्धर हुए। शरद्वान गौतम ने गुप्त रूप से कृप को धनुर्विद्या सिखायी थी। कृप ही बड़े होकर कृपाचार्य बने तथा धृतराष्ट्र और पांडु की संतान को धनुर्विद्या की शिक्षा दी।[1]

महाभारत युद्ध

महाभारत के युद्ध में कृपाचार्य कौरवों की ओर से सक्रिय थे। कर्ण के वधोपरांत उन्होंने दुर्योधन को बहुत समझाया कि उसे पांडवों से संधि कर लेनी चाहिए; किंतु दुर्योधन ने अपने किये हुए अन्यायों को याद कर कहा कि न पांडव इन बातों को भूल सकते हैं और न उसे क्षमा कर सकते हैं। युद्ध में मारे जाने के सिवा अब कोई भी चारा उसके लिए शेष नहीं है। अन्यथा उसकी सद्गति भी असंभव है।[2] कौरवों के नष्ट हो जाने पर कृपाचार्य पांडवों के पास आ गए। बाद में इन्होंने परीक्षित को अस्त्र विद्या सिखाई। 'भागवत' के अनुसार सावर्णि मनु के समय कृपाचार्य की गणना सप्तर्षियों में होती थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 128
  2. महाभारत, शल्यपर्व, अ0 5, श्लोक 1 से 27 तक

संबंधित लेख

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