एनी बेसेंट

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भारत की मिट्टी से गहरा लगाव रखने वाली प्रख्यात समाजसेवी, लेखिका और स्वतंत्रता सेनानी एनी बेसेंट ने कई मौकों पर अन्याय का कड़ा प्रतिरोध करके 'आयरन लेडी' की छवि बनाई थी। एनी बेसेंट भारतीय दर्शन एवं हिन्दू धर्म से बहुत आकर्षित थी और थियोसॉफी का प्रसार करने के लिए भारत आईं थी। उन्हें भारत से अद्भुत प्रेम एवं अनुराग था और भारतवासियों द्वारा उन्हें दिया गया सम्मान एवं आदर भी दर्शनीय था। आध्यात्मिक और राजनीतिक रूप से सोए हुए भारत को जगाने के लिए भारत को अपना घर कहने वाली एनी बेसेंट ने दुनिया भर के धर्मों का गहन अध्ययन किया। उन धर्मों को जाना परखा और समझा कि वेद और उपनिषद का धर्म ही सच्चा मार्ग है।

जीवन परिचय

एनी बेसेंट का जन्म 1 अक्टूबर 1847 को लंदन के 'वुड' परिवार में हुआ। एनी बेसेंट के पिता एक कुशल चिकित्सक थे। वह कई भाषाओं के ज्ञाता थे। माता धार्मिक आस्था वाली आयरिश महिला, पिता विद्वान गणितज्ञ अँग्रेज, एक भाई दो वर्ष बड़ा था। एनी बेसेंट जब पाँच वर्ष की थीं तभी उनके पिता का स्वर्गवास हो गया था। 1852 को उनके पिता के निधन के बाद माता द्वारा बेहद गरीबी में दोनों बच्चों का पालन-पोषण किया गया। उनका पालन-पोषण उनकी माँ ने अभावों की स्थितियों में किया। एनी बेसेंट की अद्भुत प्रतिभा बचपन में ही दिखायी देने लगी थी जिससे प्रभावित होकर एक शिक्षाविद महिला 'सुश्री मेरियट' ने उन्हें उनकी माँ से अपने संरक्षण में ले लिया। सुश्री मेरियट के संरक्षण में उन्होंने 16 वर्ष तक विद्यार्जन किया, यूरोप तथा जर्मन की यात्रा की, लैटिन एवं फ्रेंच भाषाओं का गहन अध्ययन किया।

विवाह और तलाक

1866 को एनी को धार्मिक, आध्यात्मिक, रहस्यवाद की पुस्तकें पढ़ने का शौक हुआ। उसी दौरान ईसा के प्रति लगाव हुआ। 1867 को एनी बेसेंट का विवाह 22 वर्ष की उम्र में गिरजाघर के पादरी 'रेवेरेंड फ्रैंक बेसेंट' से हुआ। 1868-70 के मध्य एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया, किन्तु स्वभाव से स्वतंत्र विचारशील एवं धार्मिक प्रवृत्ति के कारण उनका अपने पति से अन्तर्विरोध रहा और इसी कारण से उन्होंने पति से संबंध विच्छेद कर मानवता से नाता जोड़ने का संकल्प लिया। उनके दोनों बच्चे ब्रिटिश क़ानून के अनुसार उनके पति के पास रहे। ईश्वर, बाइबिल और ईसाई धर्म पर से उनकी आस्था डिग गई। पादरी-पति और पत्नी का परस्पर निर्वाह कठिन हो गया इसी कारण वैचारिक मतभेद के चलते विवाह-सम्बन्ध कटुता के चलते विच्छेद हो गए।

'फ्रूट्स ऑफ फिलॉसफी' लेख में 'बर्थ-कन्ट्रोल' परिवार-परिसीमन पर लेख लिखकर समाज-सुधार की पक्षधर एनी द्वारा धर्म की अवज्ञा की गई। इस विद्रोहीपन के कारण पति द्वारा उत्पीड़न के चलते 1873 में उनका तलाक हो गया। धर्म विरुद्ध लेख लिखने पर मुकदमा चला। न्यायाधीश उनके तर्कों से सहमत थे पर जूरी नहीं। दंड को अपील में माफ कर दिया गया और न्यायालय ने पुत्री दे दी, पर पुत्र छीन लिया

व्यक्तित्व

एक विदेशी महिला जब भारत में रहने लगी तो उन्होंने स्वयं को कभी विदेशी नहीं समझा। हिन्दू धर्म पर व्याख्‍यान से पूर्व वह 'ॐ नम: शिवाय' का उच्चारण करती थी। विलक्षण स्मरण शक्ति, नोट्स नहीं बनाती थी। वेशभूषा के प्रति अत्यन्त सावधान रहती थी। समय की अत्यंत पाबंद थी। 'मेम साहब' कहलाना पसंद नहीं करती थी। 'अम्मा' नाम उन्हें पसंद था। भारत से प्रेम किया और भारतवासियों ने उन्हें 'माँ बसंत' कहकर सम्मानित किया। http://hindi.webdunia.com/religion/religion/personality/0812/24/1081224021_1.htm

लेखन कार्य

एनी बेसेंट ने गंभीर आर्थिक संकट के समय स्वतंत्र विचार संबंधी लेख लिखकर धनोपार्जन किया। ख्यातिलब्ध पत्रकार 'विलियम स्टीड' के संपर्क में उन्होंने लेखन एवं प्रकाशन का कार्य रुचिपूर्वक किया। वह इंग्लैंड की सबसे शक्तिशाली 'महिला ट्रेड यूनियन' की सचिव रहीं। उन्होंने अपना अधिकांश समय मजदूरों, अकाल पीड़ितों तथा अभावग्रस्तों को सुविधाएँ दिलवाने में व्यतीत किया।

भारत में समाज सुधार कार्य

सन 1882 में वे 'थियोसाफिकल सोसायटी' की संस्थापिका 'मैडम ब्लावत्सकी' के संपर्क में आईं और पूर्ण रूप से संत संस्कारों वाली महिला बन गईं। सन 1889 में उन्होंने घोषणा कर स्वयं को 'थियोसाफिस्ट' घोषित किया और शेष जीवन भारत की सेवा में अर्पित करने की घोषणा की। 16 नवंबर 1893 को वे एक वृहद कार्यक्रम के साथ भारत आईं और सांस्कृतिक नगर काशी (बनारस) को अपना केन्द्र बनाया। उन्होंने काशी के तत्कालीन नरेश 'महाराजा प्रभु नारायण सिंह' से भेंट की और उनसे कामच्छा स्थित 'काशी नरेश सभा भवन' के समीप की भूमि प्राप्त कर 7 जुलाई 1898 को 'सेंट्रल हिन्दू कॉलेज' की स्थापना की।

सामाजिक बुराइयों जैसे बाल विवाह, जातीय व्यवस्था, विधवा विवाह आदि को दूर करने के लिए 'ब्रदर्स ऑफ सर्विस' नामक संस्था बनाई। उन्होंने अपने 40 वर्ष भारत के सर्वांगीण विकास में व्यतीत किए। उस समय महामना मदन मोहन मालवीय एक विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते थे परंतु नियमानुसार इसके लिए एक कॉलेज का होना अनिवार्य था। मालवीय जी ने एनी बेसेंट के समक्ष 'सेन्ट्रल हिंदू कॉलेज' का प्रस्ताव रखा तो एनी बेसेंट ने तत्काल स्वीकार करते हुए कहा - 'मेरे पास जो कुछ भी है वह देश के लिए ही है, यह विद्यालय आपका ही है पंडित जी!'

वह काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की सह संस्थापिका के रूप में जानी जाती हैं। एनी बेसेंट ने भारत में पुनर्जागरण हेतु शिक्षा, नारी शिक्षा, आध्यात्मिक साहित्य का सृजन एवं विकास, धर्म का प्रसार, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में कार्य प्रारंभ कर दिया। वे एक अत्यंत कुशल संस्थापिका, लेखिका एवं उच्चकोटि की वक्ता थीं। भारत को स्वतंत्र कराने के प्रति वह चिन्तित थीं एवं इस दिशा में कार्य करने के लिए यहाँ के राजनीतिज्ञों से भी संपर्क बनाने लगी थीं। देशवासियों ने उन्हें माँ वसंत कहकर सम्मानित किया तो महात्मा गांधी ने उन्हें वसंत देवी की उपाधि से विभूषित किया।

भारतीय राजनीति में प्रवेश

भारतीय राजनीति में उन्होंने 1914 में 68 वर्ष की उम्र में प्रवेश किया और एक अत्यन्त प्रभावशाली 'क्रांतिकारी आंदोलन होम रूल' का आरंभ किया। यह आंदोलन भारतीय एवं कांग्रेस की राजनीति का नया जन्म माना जाता है। इस आंदोलन ने भारत की राजनीति तथा ब्रिटिश सरकार की नीति में नीतिगत परिवर्तन ला दिया। उस समय के मशहूर शायर 'ब्रजनारायण चकबस्त' ने होमरूल पर एक नज़्म भी कही जिसमें एनी बेसेंट के प्रति देशवासियों का आदर झलकता है।

भारत भ्रमण

एनी बेसेंट ने पूरे देश का भ्रमण प्रारंभ कर दिया। उन्होंने जगह-जगह पर होम रूल की शाखाएँ खोलीं तथा लोगों को स्वराज्य का अर्थ एवं उपयोगिता समझायी। उन्होंने विशाल प्रचार सामग्री तैयार की। यह भारतीय राजनीति में एक नया क़दम था। 1914 मे ही उन्होंने दो पत्रिकाएँ ‘न्यू इंडिया दैनिक’ तथा ‘द कॉमन व्हील साप्ताहिक’ प्रकाशित की। उन पत्रिकाओं में ब्रिटिश शासन के विरोध में लिखने के कारण उन्हें 20 हज़ार रुपये का दंड भी देना पड़ा। उन्होंने अमरीका और इंग्लैंड में भी होमरूल की शाखाएँ खोलीं। ये शाखाएँ भी भारत की स्वतंत्रता के लिए कार्य करती थीं।

इंग्लैंड की होम रूल शाखा के मुख्य कार्यकर्ता 'लॉर्ड लेंसबरी' तथा 'जॉर्ज बर्नाड शॉ' जैसे महान व्यक्ति थे। उन्होंने एक और महत्वपूर्ण कार्य किया कि वैचारिक रूप से अलग हो गये लोकमान्य तिलक और गोखले को 1907 में अपनी कोशिशों से मिलाकर एक किया और साथ ही कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग में एकता बनाकर हिन्दू और मुस्लिम समुदायों में एकता स्थापित करने में मुख्य भूमिका निभाई। 1917 में ब्रिटिश सरकार ने एनी बेसेंट को उनके दो सहयोगियों के साथ नज़रबंद कर दिया गया। फलस्वरूप पूरे देश में सभाएँ हुईं, जुलूस निकले, महिलाओं ने खुलकर भाग लिया। अन्त में ब्रिटिश शासन ने उन्हें आज़ाद किया और क़ानून में कई सुधारों की घोषणा भी की। 1917 में ही कलकत्ता में कांग्रेस की सभा में उन्हें 'राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष' बनाया गया। 1919 तक वे सक्रिय राजनीति में रहने के पश्चात राजनीति से अलग हो गईं।

स्वभाव व विचार

एनी बेसेंट के जीवन का मूल मंत्र था - कर्म। वह जिस सिध्दांत पर विश्वास करती थीं उसे अपने जीवन में उतार लेती थीं। वह स्वभावत: धार्मिक प्रवृत्ति की थीं। उनके राजनीतिक विचारों की आधारशिला उनके आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्य थे। उनका विचार था कि अच्छाई के मार्ग का निर्धारण बिना आध्यात्म के संभव नहीं है। राष्ट्र का विकास एवं निर्माण तभी संभव है, जब उस देश के विभिन्न धर्मों, मान्यताओं एवं संस्कृतियों में एकता स्थापित हो। उनका उद्देश्य हिन्दू समाज एवं उसकी आध्यात्मिकता में आई विकृतियों को दूर करना था।

थियोसाफिकल सोसायटी

1888 को श्रीमती स्टेड द्वारा 'रिव्यू और रिव्यूज' के लिए पुस्तक समालोचना लिखने के लिए मादाम ब्लावाटस्की की दो पुस्तकें दीं। एनी बेसेन्ट इन्हें पढ़कर बहुत प्रभावित हुईं। 1889 को मादाम ब्लावाटस्की से मिलीं।

मादाम ब्लावाटस्की ने एनी बेसेन्ट को थियोसॉफिकल सोसायटी के उद्देश्य बताए। उनके उद्देश्य सुनकर 21 मई को थियोसॉफिकल सोसायटी में वे प्रविष्ट हो गईं। 1907 को थियोसॉफिकल सोसायटी की अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष चुनी गईं। जिद्दू कृष्णमूर्ति को अपनाया। 1908 को 'ऑर्डर ऑफ थियोसॉफिकल संन्यासी' पीत वस्त्रधारी, सेवाव्रती समर्पित लोगों की संस्था बनाई। जुलाई 1921 में पेरिस में आयोजित प्रथम थियोसॉफिकल वर्ल्ड कांग्रेस की अध्यक्ष बनाई गईं।

उन्होंने भारतीय धर्म का गंभीर अध्ययन किया। उन्होंने गीता का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया। उन्होंने लगभग 200 पुस्तकें लिखी हैं। कई पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। उन्हें 6 जुलाई 1907 में ही 'थियोसाफिकल सोसायटी' का अध्यक्ष चुन लिया गया था। वह जीवन पर्यन्त इस संस्था की अध्यक्ष रहीं। 1908 में अडयार (चेन्नई) में 'वसंत प्रेस' का शुभारंभ किया। 1918 में 'इंडियन भारत स्कॉउट' की नींव रखी। 14 दिसंबर 1921 को बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ने इन्हें 'डॉक्टर ऑफ़ लेटर्स' की उपाधि से विभूषित किया।

थियोसाफिकल सोसायटी

अडयार में जो थियोसाफिकल सोसायटी का अन्तरराष्ट्रीय मुख्यालय है, उन्होंने सभी धर्मों के मन्दिरों की स्थापना की। साथ ही विश्व बंधुत्व की भावना बढ़ाने पर निरंतर ज़ोर देती रहीं। इन्ही संदर्भों में उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण कार्य था कि विश्व के महान दार्शनिक 'जे. कृष्णमूर्ति' को 1909 में अपने मातापिता से अपने संरक्षण में ले लेना। तब जे.कृष्णमूर्ति की आयु पाँच वर्ष थी। उन्हीं के संरक्षण में कृष्णमूर्ति ने ज्ञानार्जन किया। एनी बेसेंट ने यह कार्य मातृत्व के सर्वोच्च आदर्शों के अनुरूप ही किया। आज जे.कृष्णमूर्ति विश्वगुरु के रूप में सम्मानित हैं।

रचनाएँ

डा. एनी बेसेन्ट की प्रमुख कृतियाँ

निधन

भारत प्रेमी, हिन्दू धर्म प्रेमी एवं सच्चे अर्थों में शिक्षा शास्त्री एनी बेसेंट ने 20 सितंबर सन 1933 को अडयार चेन्नई में अपना शरीर छोड़ दिया। उनकी इच्छाओं के अनुसार भारतीय पद्धति से उनका दाह संस्कार हुआ। उनका अस्थि कलश बनारस लाया गया तथा दशाश्वमेध घाट पर उसका विसर्जन हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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