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{{सरोजिनी नायडू विषय सूची}}
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{{सरोजिनी नायडू संक्षिप्त परिचय}}
|चित्र=Sarojini-Naidu.jpg
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'''सरोजिनी नायडू''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Sarojini Naidu'', जन्म- [[13 फ़रवरी]], [[1879]], [[हैदराबाद]]; मृत्यु- [[2 मार्च]], [[1949]], [[इलाहाबाद]]) सुप्रसिद्ध कवयित्री और [[भारत]] देश के सर्वोत्तम राष्ट्रीय नेताओं में से एक थीं। वह भारत के [[भारतीय स्वतंत्रता संग्राम|स्वाधीनता संग्राम]] में सदैव आगे रहीं। उनके संगी साथी उनसे शक्ति, साहस और ऊर्जा पाते थे। युवा शक्ति को उनसे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती थी। बचपन से ही कुशाग्र-बुद्धि होने के कारण उन्होंने 13 वर्ष की आयु में लेडी ऑफ़ दी लेक नामक कविता रची। वे 1895 में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड गईं और पढ़ाई के साथ-साथ कविताएँ भी लिखती रहीं। गोल्डन थ्रैशोल्ड उनका पहला कविता संग्रह था। उनके दूसरे तथा तीसरे कविता संग्रह बर्ड ऑफ टाइम तथा ब्रोकन विंग ने उन्हें एक सुप्रसिद्ध कवयित्री बना दिया।
|जन्म=[[13 फ़रवरी]], [[1879]]
+
<poem>
|जन्म भूमि=[[हैदराबाद]]
 
|अविभावक=अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एवं वरदा सुन्दरी
 
|पति/पत्नी=डॉ. एम. गोविंदराजलु नायडू
 
|संतान=जयसूर्य, [[पद्मजा नायडू]], रणधीर और लीलामणि
 
|मृत्यु=[[2 मार्च]], [[1949]]
 
|मृत्यु स्थान=[[इलाहाबाद]]
 
|मृत्यु कारण=
 
|अन्य नाम=भारत कोकिला
 
|स्मारक=
 
|क़ब्र=
 
|नागरिकता=भारतीय
 
|प्रसिद्धि=राष्ट्रीय नेता, [[कांग्रेस]] अध्यक्ष
 
|पार्टी=[[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस|कांग्रेस]]
 
|पद= प्रथम [[राज्यपाल]] ([[उत्तर प्रदेश]])
 
|भाषा=[[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]], [[हिन्दी]], [[बांग्ला भाषा|बंगला]] और [[गुजराती भाषा|गुजराती]]
 
|जेल यात्रा=
 
|विद्यालय=[[मद्रास विश्वविद्यालय]], किंग्ज़ कॉलेज लंदन, गर्टन कॉलेज, कैम्ब्रिज
 
|शिक्षा=
 
|पुरस्कार-उपाधि=केसर-ए-हिन्द
 
|विशेष योगदान=नारी-मुक्ति की समर्थक
 
|संबंधित लेख=
 
|शीर्षक 1=रचनाएँ
 
|पाठ 1=द गोल्डन थ्रेशहोल्ड, बर्ड आफ टाइम, ब्रोकन विंग
 
|शीर्षक 2=
 
|पाठ 2=
 
|अन्य जानकारी=[[गांधी जी]] के साथ सभी आन्दोलनों में समर्थन दिया, और कविताएँ भी लिखती थीं।
 
|बाहरी कड़ियाँ=
 
|अद्यतन=13:10, 4 फ़रवरी 2011 (IST)
 
}}
 
'''भारत कोकिला श्रीमती सरोजिनी नायडू'''<br />
 
सरोजिनी नायडू (जन्म- [[13 फ़रवरी]], [[1879]], [[हैदराबाद]]; मृत्यु- [[2 मार्च]], [[1949]], [[इलाहाबाद]]) सुप्रसिद्ध कवयित्री और [[भारत]] देश के सर्वोत्तम राष्ट्रीय नेताओं में से एक थीं। वह भारत के स्वाधीनता संग्राम में सदैव आगे रहीं। उनके संगी साथी उनसे शक्ति, साहस और ऊर्जा पाते थे। युवा शक्ति को उनसे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती थी।
 
<blockquote><poem>
 
 
'श्रम करते हैं हम
 
'श्रम करते हैं हम
 
कि समुद्र हो तुम्हारी जागृति का क्षण  
 
कि समुद्र हो तुम्हारी जागृति का क्षण  
 
हो चुका जागरण  
 
हो चुका जागरण  
अब देखो, निकला दिन कितना उज्जवल।'
+
अब देखो, निकला दिन कितना उज्ज्वल।'
</poem></blockquote>
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</poem>
 
ये पंक्तियाँ सरोजिनी नायडू की एक कविता से हैं, जो उन्होंने अपनी मातृभूमि को सम्बोधित करते हुए लिखी थी।  
 
ये पंक्तियाँ सरोजिनी नायडू की एक कविता से हैं, जो उन्होंने अपनी मातृभूमि को सम्बोधित करते हुए लिखी थी।  
 
==जीवन परिचय==
 
==जीवन परिचय==
सरोजिनी नायडू का जन्म [[13 फ़रवरी]], सन [[1879]] को [[हैदराबाद]] में हुआ था। श्री '''अघोरनाथ चट्टोपाध्याय''' और '''वरदा सुन्दरी''' की आठ संतानों में वह सबसे बड़ी थीं। अघोरनाथ एक वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री थे। वह कविता भी लिखते थे। माता वरदा सुन्दरी भी कविता लिखती थीं। अपने कवि भाई हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की तरह सरोजिनी को भी अपने माता-पिता से कविता–सृजन की प्रतिभा प्राप्त हुई थी। अघोरनाथ चट्टोपाध्याय 'निज़ाम कॉलेज' के संस्थापक और रसायन वैज्ञानिक थे। वे चाहते थे कि उनकी पुत्री सरोजिनी [[अंग्रेज़ी]] और गणित में निपुण हों। वह चाहते थे कि सरोजिनी जी बहुत बड़ी वैज्ञानिक बनें। यह बात मनवाने के लिए उनके पिता ने सरोजिनी को एक कमरे में बंद कर दिया। वह रोती रहीं। सरोजिनी के लिए गणित के सवालों में मन लगाने के बजाय एक कविता लेख लिखना ज़्यादा आसान था। सरोजिनी ने महसूस किया कि वह अंग्रेज़ी भाषा में भी आगे बढ़ सकती हैं और पारंगत हो सकती हैं। उन्होंने अपने पिताजी से कहा कि वह अंग्रेज़ी में आगे बढ़ कर दिखाएगीं। थोड़े ही परिश्रम के फलस्वरूप वह धाराप्रवाह अंग्रेज़ी भाषा बोलने और लिखने लगीं। इस समय लगभग 13 वर्ष की आयु में सरोजिनी ने 1300 पदों की 'झील की रानी' नामक लंबी कविता और लगभग 2000 पंक्तियों का एक विस्तृत नाटक लिखकर [[अंग्रेज़ी भाषा]] पर अपना अधिकार सिद्ध कर दिया। अघोरनाथ सरोजिनी की अंग्रेज़ी कविताओं से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने एस. चट्टोपाध्याय कृत 'पोयम्स' के नाम से सन [[1903]] में एक छोटा-सा कविता संग्रह प्रकाशित किया। '''डॉ. एम. गोविंद राजलु नायडू''' से सरोजिनी नायडू का विवाह हुआ। सरोजिनी नायडू ने राजनीति और गृह प्रबंधन में संतुलन रखा।
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{{Main|सरोजिनी नायडू का जीवन परिचय}}
====भाषा====
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सरोजिनी नायडू का जन्म [[13 फ़रवरी]], सन् [[1879]] को [[हैदराबाद]] में हुआ था। '''अघोरनाथ चट्टोपाध्याय''' और '''वरदा सुन्दरी''' की आठ संतानों में वह सबसे बड़ी थीं। अघोरनाथ एक वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री थे। वह [[कविता]] भी लिखते थे। माता वरदा सुन्दरी भी कविता लिखती थीं। अपने कवि भाई हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की तरह सरोजिनी को भी अपने माता-पिता से कविता–सृजन की प्रतिभा प्राप्त हुई थी। अघोरनाथ चट्टोपाध्याय 'निज़ाम कॉलेज' के संस्थापक और रसायन वैज्ञानिक थे। वे चाहते थे कि उनकी पुत्री सरोजिनी [[अंग्रेज़ी]] और गणित में निपुण हों।
सरोजिनी चट्टोपाध्याय ने अपनी माता वरदा सुंदरी से [[बांग्ला भाषा|बंगला]] सीखी और [[हैदराबाद]] के परिवेश से [[तेलुगु भाषा|तेलुगु]] में प्रवीणता प्राप्त की। वे शब्दों की जादूगरनी थीं। शब्दों का रचना संसार उन्हें आकर्षित करता था और उनका मन शब्द जगत में ही रमता था। वे बहुभाषाविद थीं। वह क्षेत्रानुसार अपना भाषण अंग्रेज़ी, [[हिन्दी]], बंगला या [[गुजराती भाषा]] में देती थीं। लंदन की सभा में अंग्रेज़ी में बोलकर उन्होंने वहाँ उपस्थित सभी श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया था।
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==साहित्यिक परिचय==
====शिक्षा====
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{{Main|सरोजिनी नायडू का साहित्यिक परिचय}}
बारह साल की छोटी सी उम्र में ही सरोजिनी ने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली थी और मद्रास प्रेसीडेंसी में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। इसके बाद उच्चतर शिक्षा के लिए उन्हें [[इंग्लैंड]] भेजा दिया गया जहाँ उन्होंने क्रमश: लंदन के 'किंग्ज़ कॉलेज' में और उसके बाद 'कैम्ब्रिज के गर्टन कॉलेज' में शिक्षा ग्रहण की। कॉलेज की शिक्षा में सरोजिनी की विशेष रुचि नहीं थी और इंग्लैंड का ठंडा तापमान भी उनके स्वास्थ्य के अनुकूल नहीं था। वह स्वदेश लौट आयी।
+
सरोजिनी नायडू अपनी शिक्षा के दौरान इंग्लैंड में दो साल तक ही रहीं किंतु वहाँ के प्रतिष्ठित साहित्यकारों और मित्रों ने उनकी बहुत प्रशंसा की। उनके मित्र और प्रशंसकों में 'एडमंड गॉस' और 'आर्थर सिमन्स' भी थे। उन्होंने किशोर सरोजिनी को अपनी कविताओं में गम्भीरता लाने की राय दी। वह लगभग बीस वर्ष तक कविताएँ और लेखन कार्य करती रहीं और इस समय में, उनके तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हुए। उनके कविता संग्रह 'बर्ड ऑफ़ टाइम' और 'ब्रोकन विंग' ने उन्हें एक प्रसिद्ध कवयित्री बनवा दिया। सरोजिनी नायडू को भारतीय और [[अंग्रेज़ी साहित्य]] जगत की स्थापित कवयित्री माना जाने लगा था किंतु वह स्वयं को कवि नहीं मानती थीं।  
 
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==राजनीतिक जीवन==  
==कविता में उड़ान==
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{{Main|सरोजिनी नायडू का राजनीतिक जीवन}}
यद्यपि सरोजिनी इंग्लैंड में दो साल तक ही रहीं किंतु वहाँ के प्रतिष्ठित साहित्यकारों और मित्रों ने उनकी बहुत प्रशंसा की। उनके मित्र और प्रशंसकों में 'एडमंड गॉस' और 'आर्थर सिमन्स' भी थे। उन्होंने किशोर सरोजिनी को अपनी कविताओं में गम्भीरता लाने की राय दी। वह लगभग बीस वर्ष तक कविताएँ और लेखन कार्य करती रहीं और इस समय में, उनके तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हुए। उनके कविता संग्रह 'बर्ड ऑफ़ टाइम' और 'ब्रोकन विंग' ने उन्हें एक प्रसिद्ध कवयित्री बनवा दिया। सरोजिनी नायडू को भारतीय और [[अंग्रेज़ी साहित्य]] जगत की स्थापित कवयित्री माना जाने लगा था किंतु वह स्वयं को कवि नहीं मानती थीं।  
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देश की राजनीति में क़दम रखने से पहले सरोजिनी नायडू [[दक्षिण अफ़्रीका]] में गांधी जी के साथ काम कर चुकी थी। [[गांधी जी]] वहाँ की जातीय सरकार के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे और सरोजिनी नायडू ने स्वयंसेवक के रूप में उन्हें सहयोग दिया था। [[भारत]] लौटने के बाद तुरन्त ही वह राष्ट्रीय आंदोलन में सम्मिलित हो गई। शुरू से ही वह गांधी जी और [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] के प्रति वफ़ादार रहीं। उन्होंने विद्यार्थी और युवाओं की सभाओं में भाषण दिए। अनेक शहरों और गाँवों में महिलाओं और आम सभाओं को सम्बोधित किया। सरोजिनी नायडू का स्वास्थ्य कभी अच्छा नहीं रहा। लेकिन उनका मनोबल दृढ़ था। युवावस्था में नहीं, बल्कि बड़ी उम्र होने पर भी वह जोश और उत्साह के साथ काम करती रहीं। यह देखकर सब विस्मित रह जाते थे। उनके साथियों और प्रशंसकों को हैरानी होती थी कि इतनी अजेय शक्ति उन्होंने कहाँ से पाई है।  
;प्रथम कविता-संग्रह
+
==स्वतंत्रता संग्राम में योगदान==
सरोजिनी के प्रथम कविता-संग्रह 'द गोल्डन थ्रेशहोल्ड' ([[1905]]) में बहुत ही उत्साह के साथ पढ़ा गया। सरोजिनी को एक सक्षम, होनहार और नवोदित कवयित्री के रूप में सम्मानित किया गया। इंग्लैंड के बड़े-बड़े अखबारों 'लंदन-टाइम्स' और 'द मेन्चैस्टर गार्ड्यन' में इस कविता-संग्रह की प्रशंसा युक्त समीक्षाएँ लिखी गईं। भारत में उन्हें एक नया उदीयमान तेजस्वी तारा माना गया।
+
{{Main|सरोजिनी नायडू का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान}}
*'द गोल्डन थ्रेशहोल्ड' के बाद 'बर्ड ऑफ़ टाइम' नामक संग्रह सन [[1912]] में प्रकाशित हुआ।
 
{{tocright}}
 
<blockquote><poem>
 
समय के पंछी का उड़ने को सीमित विस्तार
 
पर लो- पंछी तो यह उड़ चला।।
 
</poem></blockquote>
 
*इसके बाद सन [[1917]] में उनका तीसरा कविता-संग्रह 'द ब्रोकन विंग' निकला। उसमें उन्होंने गाया-
 
<blockquote><poem>
 
ऊँची उठती हूँ मैं, कि पहुँचू नियत झरने तक
 
टूटे ये पंख लिए, मैं चढ़ती हूँ ऊपर तारों तक।
 
</poem></blockquote>
 
तारों तक पहुँचने के लिए ऊपर उठने की यह भावना सरोजिनी नायडू के साथ सदैव रही। सन [[1946]] में [[दिल्ली]] में 'एशियन रिलेशन्स कॉन्फ्रेंस' को सम्बोधित करते हुए उन्होंने इसी भाव को व्यक्त किया। उन्होंने कहा- 'हम आगे, और भी आगे, ऊँचे, और ऊँचे जायेंगे, जब तक हम तारों तक न पहुँच जाएँ। आइए, तारों तक पहुँचने के लिए हम लोग बढ़ें।' उन्होंने कहा-- 'हम चाँद के लिए चिल्लाते नहीं हैं। हम तो उसे आकाश में से तोड़कर ले आएंगे और [[एशिया]] की मुक्ति के ताज में उसे लगा कर पहन लेंगे।' हार कर हताश हो बैठने का उनका स्वभाव नहीं था। अपने निश्चित उद्देश्य तक पहुँचने के लिए वह केवल आगे बढ़ना चाहती थीं। कविताओं और जीवन, दोनों में ही सरोजिनी नायडू यही करती थीं। <br />
 
;लम्बा अंतराल और कविता'''
 
सन 1937 में कई वर्षों बाद सरोजिनी नायडू का आख़िरी कविता-संग्रह 'द सेप्टर्ड फ्लूट' एक आश्चर्यजनक और गम्भीर रूप में सामने आया। इस समय वह देश की राजनीति में रची बसी थीं और बहुत लम्बे समय से उन्होंने कविता लिखना लगभग छोड़ ही दिया था। राजनीतिक तनावों में यह कविता-संग्रह हवा के ताजे झोंके की एक लहर बनकर सबके सामने आया। जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में ही सरोजिनी नायडू को एक होनहार कवयित्री के रूप में प्रशंसा और प्रसिद्धि मिल चुकी थी, किंतु वह स्वयं अपनी रचनाओं को बहुत ही साधारण मानती थीं। 'मैं सचमुच कोई कवि नहीं हूँ,' उन्होंने कहा - 'मेरे सामने एक दर्शन है, मगर मेरे पास आवाज़ नहीं है।' उन्होंने स्वयं को केवल 'गीतों की गायिका' बताया। किंतु उनके गीत बहुत मधुर थे जो कोमल भावों और प्रेम की भावना से ओतप्रोत थे।
 
*'द गोल्डन थ्रेशहोल्ड' की पंक्तियाँ हैं—
 
<blockquote><poem>
 
लिए बांसुरी हाथों में हम घूमें गाते-गाते
 
मनुष्य सब हैं बंधु हमारे, जग सारा अपना है।
 
</poem></blockquote>
 
सरोजिनी नायडू ने ख़ुद के लिए कुछ भी कहा हो, भारतीय साहित्य में कवयित्री के रूप में उनका स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उनके शब्दों में संगीत है। उनकी कविताएँ सुन्दर प्रतीकों से भरी हैं। सच्चे दिल से वह [[भारत]] के श्रमिक वर्ग के लिए चिंतित रहा करती थीं। अपनी मातृभूमि को दासता से मुक्त करने का स्वप्न वह सदैव देखती रहीं, उनके मन में समस्त मानव जाति के लिए प्रेम था। उनकी कविताओं ने आधुनिक भारतीय साहित्य पर अपनी विशिष्ट छाप अंकित की है।
 
 
 
==विवाह और उसके बाद==
 
सरोजिनी नायडू सन [[1898]] में इंग्लैंड से लौटीं। उस समय वह डॉ. गोविन्दराजुलु नायडू के साथ विवाह करने के लिए उत्सुक थीं। डा. गोविन्दराजुलु एक फ़ौज़ी डाक्टर थे, जिन्होंने तीन साल पहले सरोजिनी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा था। पहले तो सरोजिनी के पिता इस विवाह के विरुद्ध थे किन्तु बाद में यह सम्बन्ध तय कर दिया गया। सरोजिनी नायडू ने हैदराबाद में अपना सुखमय वैवाहिक जीवन का आरम्भ किया। डॉ. नायडू की वह बड़े प्यार से देखभाल करतीं। उन्होंने स्नेह और ममता के साथ अपने चार बच्चों की परवरिश की। उनके [[हैदराबाद]] के घर में हमेशा हंसी, प्यार और सुन्दरता का वातावरण छाया रहता था। सरोजिनी नायडू के घर के दरवाज़े सबके लिए खुले रहते थे। दूर-दूर से कितने ही दोस्त उस घर में आते रहते थे और सबका वह प्रेम से सत्कार करतीं। वह उन्हें स्वादिष्ट भोजन खिलातीं और ज़िन्दादिली और विनोदप्रियता से उनका मन बहलातीं। वह अपने और परिवार से हमेशा प्यार करती थीं। उन्हें हैदराबाद शहर से बहुत प्यार था जिसकी समृद्ध सभ्यता उनके ख़ून में घुलमिल गई थी। '''वह [[उर्दू]] शायरी की शौक़ीन थीं। हालाँकि आम भाषाओं में वह ज़्यादातर अंग्रेज़ी में भाषण दिया करतीं थीं, उर्दू भाषा के प्रति भी वह बड़ी आकर्षित थीं और काफ़ी अच्छी उर्दू बोल लेती थीं।''' वह सुखी थीं और संतुष्ट थीं। उस समय की उनकी कविता में उनके मन में उमड़ रहे उल्लास की झलक मिलती है। लेकिन अपने घर की दुनिया में इतनी सुखी होने पर भी वह जो कुछ थीं उसके अधिक कुछ और बनना चाहती थीं। उनकी आँखें अपने सुखमय घर की दीवारों से बाहर कुछ ढूँढ रहीं थीं। गोपाल कृष्ण गोखले उनके अच्छे मित्र थे। वह भारत को अंग्रेज़ी हुक़ूमत से आज़ाद करने के काम में लगे हुए थे। उन्होंने सरोजिनी नायडू को अपने घर के एकान्त से बाहर निकल कर, अपने जीवन और गीतों को राष्ट्र की सेवा में समर्पित कर देने के लिए प्रेरित किया। सरोजिनी नायडू [[गांधीजी]] से सन [[1914]] में लंदन में मिली। उस मुलाकात के बाद जीवन को भविष्य का पथ मिल गया। उन्होंने पूरी तरह से राजनीति को अपना लिया और इसके बाद फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।
 
 
 
==राष्ट्रीय राजनीति में==
 
देश की राजनीति में क़दम रखने से पहले सरोजिनी नायडू [[दक्षिण अफ़्रीका]] में गांधी जी के साथ काम कर चुकी थी। [[गांधी जी]] वहाँ की जातीय सरकार के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे और सरोजिनी नायडू ने स्वयंसेवक के रूप में उन्हें सहयोग दिया था। [[भारत]] लौटने के बाद तुरन्त ही वह राष्ट्रीय आंदोलन में सम्मिलित हो गई। शुरू से ही वह गांधी जी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति वफादार रहीं। उन्होंने विद्यार्थी और युवाओं की सभाओं में भाषण दिए। अनेक शहरों और गाँवों में महिलाओं और आम सभाओं को सम्बोधित किया। सरोजिनी नायडू का स्वास्थ्य कभी अच्छा नहीं रहा। लेकिन उनका मनोबल दृढ़ था। युवावस्था में नहीं, बल्कि बड़ी उम्र होने पर भी वह जोश और उत्साह के साथ काम करती रहीं। यह देखकर सब विस्मित रह जाते थे। उनके साथियों और प्रशंसकों को हैरानी होती थी कि इतनी अजेय शक्ति उन्होंने कहाँ से पाई है।
 
==गांधी जी का सानिध्य==
 
सरोजिनी नायडू की राजनीतिक यात्रा लगभग चौबीस वर्ष की आयु में प्रारंभ होती है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम से पहले ही 'महिला स्वशक्तिकरण आन्दोलन' शुरू हो गया था। इस समय सरोजिनी नायडू हाथ में स्वतंत्रता संग्राम का झंड़ा उठाकर देश के लिए मर मिटने निकल पड़ी थीं और दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी की प्रमुख बन महिला सशक्तिकरण को बल दिया। 
 
[[चित्र:Sarojini-Naidu-With-Mahatma-Gandhi.jpg|thumb|220px|सरोजिनी नायडू और [[महात्मा गांधी]]]]
 
 
 
[[1902]] में [[कोलकाता]] (कलकत्ता) में उन्होंने बहुत ही ओजस्वी भाषण दिया जिससे गोपालकृष्ण गोखले बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सरोजिनी जी का राजनीति में आगे बढ़ाने के लिए मार्गदर्शन किया। इस घटना के बाद सरोजिनी जी को [[महात्मा गांधी]] का सानिध्य मिला। गांधी जी से उनकी मुलाकात कई वर्षों के बाद सन 1914 में लंदन में हुई। गांधी जी के साथ रहकर सरोजिनी की राजनीतिक सक्रियता बढ़ती गयी। वह गांधी जी से बहुत प्रभावित थीं। उनकी सक्रियता के कारण देश की असंख्य महिलाओं में आत्मविश्वास लौट आया और उन्होंने भी स्वाधीनता आंदोलन के साथ साथ समाज के अन्य क्षेत्रों में  भी सक्रियता से भाग लेना प्रारम्भ कर दिया। गांधी जी से पहली बार मिलने के बाद सरोजिनी नायडू का ज़्यादातर वक़्त राजनीतिक कार्यों में ही बीतने लगा। समय बीतने के साथ, वह कांग्रेस की प्रवक्ता बन गई। आंधी की तरह वह देश भर में घूमतीं और स्वाधीनता का संदेश फैलातीं। जहाँ भी और जिस वक़्त भी उनकी ज़रूरत पड़ी, वह फौरन ही हाजिर हो जातीं। राष्ट्रीय कांग्रेस की बहुत सी समितियों में उन्होंने काम किया और देश की राजनीतिक आज़ादी के बारे में बोलने का एक भी अवसर उन्होंने हाथ से जाने नहीं दिया। ऐसे ही जोश के साथ उन्होंने [[हिन्दू]]-मुस्लिम एकता पर भी ज़ोर दिया। शिक्षा के प्रचार को भी महत्त्व दिया। अपने श्रोताओं से उन्होंने अज्ञानता और अन्धविश्वास को दीवारों से निकल आने का अनुरोध किया। देश को आगे ले जाने के बजाय पीछे खींचने वाली परम्पराओं, रीति-रिवाजों के बोझ को उतार फेंकने की उन्होंने ज़ोरदार अपील की।
 
 
 
==कांग्रेस अध्यक्ष==
 
कुछ ही समय में सरोजिनी नायडू एक राष्ट्रीय नेता बन गईं। वह '[[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]]' के प्रतिष्ठित नेताओं में से एक मानी जाने लगीं। सन [[1925]] में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के [[कानपुर]] अधिवेशन की अध्यक्ष चुनी गईं। तब तक वह गांधी जी के साथ दस वर्ष तक काम कर चुकी थीं और गहरा राजनीतिक अनुभव पा चुकी थीं। आज़ादी के पूर्व, भारत में कांग्रेस का अध्यक्ष होना बहुत बड़ा राष्ट्रीय सम्मान था और वह जब एक महिला को दिया गया तो उसका महत्त्व और भी बढ़ गया। गांधी जी ने सरोजिनी नायडू का कांग्रेस प्रमुख के रूप में बड़े ही उत्साह भरे शब्दों में स्वागत किया, 'पहली बार एक भारतीय महिला को देश की यह सबसे बड़ी सौगात पाने का सम्मान मिलेगा। अपने अधिकार के कारण ही यह सम्मान उन्हें प्राप्त होगा।' <br />
 
सरोजिनी ने स्वयं अपने बारे में कहा-
 
<blockquote>'अपने विशिष्ट सेवकों में मुझे मुख्य स्थान के लिए चुनकर आप लोगों ने कोई नई मिसाल नहीं रखी है। आप तो केवल पुरानी परम्परा की ओर ही लौटे हैं और भारतीय नारी को फिर से उसके उस पुरातन स्थान में ला खड़ा किया है जहाँ वह कभी थी.....।'
 
</blockquote>
 
अपने अध्यक्षीय भाषण में सरोजिनी नायडू ने भारत के सामाजिक, आर्थिक औद्योगिक और बौद्धिक विकास की आवश्यकता की बात की। प्रभावशाली शब्दों में उन्होंने भारत की जनता को अपने देश की स्वाधीनता के लिए हिम्मत और एकता के साथ आगे बढ़ने का आह्वान किया। अपने भाषण के अंत में उन्होंने कहा, ''''स्वाधीनता संग्राम में भय एक अक्षम्य विश्वासघात है और निराशा एक अक्षम्य पाप है।''''
 
उनका यह भी मानना था कि भारतीय नारी कभी भी कृपा की पात्र नहीं थी, वह सदैव से समानता की अधिकारी रही है। उन्होंने अपने इन विचारों के साथ महिलाओं में आत्मविश्वास जाग्रत करने का काम किया। पितृसत्ता के समर्थकों को भी नारियों के प्रति अपना नज़रिया बदलने के लिये प्रोत्साहित किया। [[भारत का इतिहास|भारत के इतिहास]] में वे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की प्रमुख नायिका के रूप में जानीं गयीं। भय को वह देशद्रोह के समान ही मानती थीं। 
 
{{दाँयाबक्सा|पाठ=सरोजिनी नायडू 'नारी मुक्ति आंदोलन' को [[भारत]] के स्वाधीनता संग्राम का एक हिस्सा ही समझती थीं। वह अपने शब्दों की पूर्ण शक्ति के साथ पुरुष और स्त्रियों, दोनों के बीच जाकर नारी शिक्षा की आवश्यकताओं पर ज़ोर देती थीं।|विचारक=}}  
 
*1925 के कानपुर कांग्रेस अधिवेशन में सरोजिनी नायडू ने अधिवेशन की अध्यक्षता की।
 
*'गोलमेज कांफ्रेंस' में महात्मा गांधी के प्रतिनिधि मंडल में सरोजिनी नायडू भी सम्मिलित थीं।
 
*[[रॉलेट एक्ट]] का विरोध करने के लिए सरोजिनी नायडू ने महिलाओं को संगठित किया।
 
*जब 1932 में महात्मा गांधी जेल गये थे, उस समय आंदोलन को रफ्तार देने और बढ़ाने का दायित्व सरोजिनी नायडू को सौंप कर गये थे।  गांधी जी ने कहा था- 'तुम्हारे हाथों में भारत की एकता का काम सौंपता हूं।' भारत का पक्ष रखने के लिए महात्मा गांधी ने उन्हें अमेरिका भेजा था।
 
*सरोजिनी नायडू ने महिलाओं का नेतृत्व करते समय नारी समाज की उन्नति के अथक प्रयास किये।
 
*भारत के स्वतंत्र होने पर उन्हें [[उत्तर प्रदेश]] का [[राज्यपाल]] नियुक्त किया गया।
 
 
 
==साहस की प्रतीक==
 
सरोजिनी नायडू ने भय कभी नहीं जाना था और न ही निराशा कभी उनके समीप आई थी। वह साहस और निर्भीकता का प्रतीक थीं। [[पंजाब]] में सन 1919 में [[जलियाँवाला बाग़|जलियांवाला बाग]] में हुए हत्याकांड के बारे में कौन नहीं जानता होगा। आम सभाओं पर [[जनरल डायर]] के द्वारा लगाय गए प्रतिबंध के विरोध में जमा हुए सैकड़ों नर-नारियों की निर्दयता से हत्या कर दी गई थी। वैसे भी [[रॉलेट एक्ट]] के पारित होने से देश में पहले से ही काफ़ी तनाव था। इस एक्ट ने न्यायाधीश को राजनीतिक मुक़दमों को बिना किसी पैरवी के फैसला करने और बिना किसी क़ानूनी कार्रवाई के संदिग्ध राजनीतिज्ञों को जेल में डालने की छूट दे दी थी। जलियांवाला हत्याकांड को लेकर समस्त देश में क्रोध भड़क उठा। उस पाशविक अत्याचार की [[रबीन्द्रनाथ ठाकुर|गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर]] के मन में उग्र प्रतिक्रिया हुई और उन्होंने अपनी 'नाइट हुड' की पदवी लौटा दी। सरोजिनी नायडू ने भी अपना 'कैसर-ए-हिन्द' का ख़िताब वापस कर दिया जो उन्हें सामाजिक सेवाओं के लिय कुछ समय पहले ही दिया गया था। [[अहमदाबाद]] में गांधी जी के साबरमती आश्रम में स्वाधीनता की प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर करने वाले आरम्भिक स्वयं सेवकों में वह एक थीं।
 
==सत्याग्रह और महिलायें==
 
गांधीजी शुरू में यह नहीं चाहते थे कि महिलाएँ सत्याग्रह में सक्रिय रूप से भाग लें। उनकी प्रवृत्तियों को गांधी जी कताई, स्वदेशी, शराब की दुकानों पर धरना आदि तक सीमित रखना चाहते थे। लेकिन सरोजिनी नायडू, कमला देवी चट्टोपाध्याय और उस समय की देश की प्रमुख महिलाओं के आग्रह को देखते हुए उन्हें अपनी राय बदल देनी पड़ी।
 
 
[[चित्र:Sarojini-Naidu-Gandhi.jpg|thumb|220px|सरोजिनी नायडू और [[महात्मा गांधी]]]]
 
[[चित्र:Sarojini-Naidu-Gandhi.jpg|thumb|220px|सरोजिनी नायडू और [[महात्मा गांधी]]]]
====नमक सत्याग्रह====
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वास्तव में सन् [[1930]] के प्रसिद्ध [[नमक सत्याग्रह]] में सरोजिनी नायडू गांधी जी के साथ चलने वाले स्वयंसेवकों में से एक थीं। गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद [[गुजरात]] में धरासणा में लवण-पटल की पिकेटिंग करते हुए जब तक स्वयं गिरफ्तार न हो गईं तब तक वह आंदोलन का संचालन करती रहीं। धरासणा वह स्थान था जहाँ पुलिस ने शान्तिमय और अहिंसक सत्याग्रहियों पर घोर अत्याचार किए थे। सरोजिनी नायडू ने उस परिस्थिति का बड़े साहस के साथ सामना किया और अपने बेजोड़ विनोदी स्वभाव से वातावरण को सजीव बनाये रखा। नमक सत्याग्रह खत्म कर दिया गया। [[गांधी इरविन समझौता|गांधी-इरविन समझौते]] पर गांधी जी और भारत के वाइसराय [[लॉर्ड इरविन]] ने हस्ताक्षर किये। यह एक राजनीतिक समझौता था। बाद में गांधी जी को सन् 1931 में लंदन में होने वाले दूसरे [[गोलमेज सम्मेलन]] में आने के लिए आमंत्रित किया गया। उसमें भारत की स्व-शासन की माँग को ध्यान में रखते हुए संवैधानिक सुधारों पर चर्चा होने वाली थी। उस समय गांधी जी के साथ, सम्मेलन में शामिल होने वाले अनेक लोगों में से सरोजिनी नायडू भी एक थीं। सन् [[1935]] के भारत सरकार के एक्ट ने भारत को कुछ संवैधानिक अधिकार प्रदान किए। लम्बी बहस के बाद, [[कांग्रेस]], देश की प्रांतीय [[विधानसभा|विधानसभाओं]] में प्रवेश करने के लिए तैयार हो गयी। उसने चुनाच लड़े और देश के अधिकतर प्रांतों में अपनी सरकारें बनाई जिन्हें अंतरिम सरकारों का नाम दिया गया।
{{Main|नमक सत्याग्रह}}
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{{दाँयाबक्सा|पाठ=सरोजिनी नायडू का यह मानना था कि भारतीय नारी कभी भी कृपा की पात्र नहीं थी, वह सदैव से समानता की अधिकारी रही हैं। उन्होंने अपने इन विचारों के साथ महिलाओं में आत्मविश्वास जाग्रत करने का काम किया।|विचारक=}}
वास्तव में सन [[1930]] के प्रसिद्ध नमक सत्याग्रह में सरोजिनी नायडू गांधी जी के साथ चलने वाले स्वयं सेवकों में से एक थीं। गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद [[गुजरात]] में धरासणा में लवण-पटल की पिकेटिंग करते हुए जब तक स्वयं गिरफ्तार न हो गईं तब तक वह आंदोलन का संचालन करती रहीं। धरासणा वह स्थान था जहाँ पुलिस ने शान्तिमय और अहिंसक सत्याग्रहियों पर घोर अत्याचार किए थे। सरोजिनी नायडू ने उस परिस्थिति का बड़े साहस के साथ सामना किया और अपने बेजोड़ विनोदी स्वभाव से वातावरण को सजीव बनाये रखा। नमक सत्याग्रह खत्म कर दिया गया। गांधी-इरविन समझौते पर गांधी जी और भारत के वाइसराय [[लॉर्ड इरविन]] ने हस्ताक्षर किये। यह एक राजनीतिक समझौता था। बाद में गांधी जी को सन 1931 में लंदन में होने वाले दूसरे [[गोलमेज सम्मेलन]] में आने के लिए आमंत्रित किया गया। उसमें भारत की स्व-शासन की माँग को ध्यान में रखतें हुए संवैधानिक सुधारों पर चर्चा होने वाली थी। उस समय गांधी जी के साथ, सम्मेलन में शामिल होने वाले अनेक लोगों में से सरोजिनी नायडू भी एक थीं। सन [[1935]] के भारत सरकार के एक्ट ने भारत को कुछ संवैधानिक अधिकार प्रदान किए। लम्बी बहस के बाद, [[कांग्रेस]], देश की प्रांतीय विधान सभाओं में प्रवेश करने के लिए तैयार हो गयी। उसने चुनाच लड़े और देश के अधिकतर प्रांतों में अपनी सरकारें बनाई जिन्हें अंतरिम सरकारों का नाम दिया गया।
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==निर्भीक व्यक्तित्व==  
 
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{{Main|सरोजिनी नायडू का व्यक्तित्व}}
====भारत छोड़ो आंदोलन====
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सरोजिनी नायडू ने भय कभी नहीं जाना था और न ही निराशा कभी उनके समीप आई थी। वह साहस और निर्भीकता का प्रतीक थीं। [[पंजाब]] में सन् [[1919]] में [[जलियाँवाला बाग़|जलियांवाला बाग]] में हुए हत्याकांड के बारे में कौन नहीं जानता होगा। आम सभाओं पर [[जनरल डायर]] के द्वारा लगाय गए प्रतिबंध के विरोध में जमा हुए सैकड़ों नर-नारियों की निर्दयता से हत्या कर दी गई थी। वैसे भी [[रॉलेट एक्ट]] के पारित होने से देश में पहले से ही काफ़ी तनाव था। इस एक्ट ने न्यायाधीश को राजनीतिक मुक़दमों को बिना किसी पैरवी के फैसला करने और बिना किसी क़ानूनी कार्रवाई के संदिग्ध राजनीतिज्ञों को जेल में डालने की छूट दे दी थी। जलियांवाला हत्याकांड को लेकर समस्त देश में क्रोध भड़क उठा। उस पाशविक अत्याचार की [[रबीन्द्रनाथ ठाकुर|गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर]] के मन में उग्र प्रतिक्रिया हुई और उन्होंने अपनी 'नाइट हुड' की पदवी लौटा दी। सरोजिनी नायडू ने भी अपना 'कैसर--हिन्द' का ख़िताब वापस कर दिया जो उन्हें सामाजिक सेवाओं के लिय कुछ समय पहले ही दिया गया था। [[अहमदाबाद]] में गांधी जी के [[साबरमती आश्रम]] में स्वाधीनता की प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर करने वाले आरम्भिक स्वयं सेवकों में वह एक थीं।  
इसके कुछ समय बाद ही दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। [[अंग्रेज़]] सरकार ने भारत को उस युद्ध में शामिल होने के लिए मज़बूर किया जिसके विरोध में कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों ने त्यागपत्र दे दिए। फिर से समझौते के लिए कुछ प्रयास किए गए, जिसमे अंग्रेज़ सरकार के भारत के राज्यमंत्री सर स्टफर्ड क्रिप्स का प्रयास बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा। क्रिप्स मिशन असफल रहा। अब कांग्रेस के पास जन आंदोलन शुरू करने का ही एक रास्ता रह गया था। [[8 अगस्त]] सन [[1942]] को कांग्रेस के [[मुंबई|बम्बई]] में हुए अधिवेशन में गांधी जी ने ब्रिटिश शासकों को भारत छोड़कर चले जाने को आख़िरी बार कहा और साथ ही देश की जनता को 'करो या मरो' का आदेश दिया। 'भारत छोड़ो' आंदोलन की यह युद्ध-पुकार थी और भारत के स्वाधीनता संग्राम का वह आख़िरी पड़ाव था। 8 अगस्त की मध्यरात्रि में गांधी जी और कांग्रेस कार्यकारी समिति के सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया। गांधी जी को उनके निजी मंत्री महादेव देसाई और सरोजिनी नायडू के साथ [[पुणे]] के आगा ख़ाँ महल में रखा गया। वहीं कुछ समय बाद [[कस्तूरबा गाँधी|कस्तूरबा]] को भी लाया गया। उन कष्टप्रद दिनों में जब गांधी जी का मन उदास हुआ करता था तब अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद सरोजिनी नायडू अपने विनोद और हंसी से उनका मन बहलाने की कोशिश करतीं। आगा ख़ाँ महल में पहले महादेव देसाई, फिर कस्तूरबा की मृत्यु के बाद, सरोजिनी नायडू चट्टान की भाँति अडिग गांधी जी के साथ रहीं। जब गांधी जी ने आमरण अनशन शुरू किया और जब वह जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहे थे तब सरोजिनी नायडू ने ही बड़ी ममता के साथ उनकी सेवा की।
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गांधीजी शुरू में यह नहीं चाहते थे कि महिलाएँ सत्याग्रह में सक्रिय रूप से भाग लें। उनकी प्रवृत्तियों को गांधी जी कताई, स्वदेशी, शराब की दुकानों पर धरना आदि तक सीमित रखना चाहते थे। लेकिन सरोजिनी नायडू, [[कमला देवी चट्टोपाध्याय]] और उस समय की देश की प्रमुख महिलाओं के आग्रह को देखते हुए उन्हें अपनी राय बदल देनी पड़ी।
{{दाँयाबक्सा|पाठ=सरोजिनी नायडू का यह मानना था कि भारतीय नारी कभी भी कृपा की पात्र नहीं थी, वह सदैव से समानता की अधिकारी रही हैं। उन्होंने अपने इन विचारों के साथ महिलाओं में आत्मविश्वास जाग्रत करने का काम किया।|विचारक=}}  
 
====स्वाधीनता का प्रभात====
 
दो साल बाद, गांधी जी और दूसरे कांग्रेस नेता एक के बाद एक रिहा कर दिए गए और फिर से अंग्रेज़ सरकार और भारत के भिन्न-भिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के बीच बातचीत और समझौते के प्रयासों का दौर शुरू हो गया। इनमें [[मुस्लिम लीग]] और कांग्रेस एक-दूसरे के विचारों से असहमत थे। [[मार्च]] सन [[1946]] में ब्रिटिश [[कैबिनेट मिशन]] [[भारत]] आया लेकिन उसके प्रयास असफल रहे। इसके बावजूद केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधान सभाओं के लिए चुनाव लड़ने के प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया गया।
 
 
 
====मुस्लिम लीग की माँग====
 
{{Main|मुस्लिम लीग}}
 
[[जवाहर लाल नेहरू]] के नेतृत्व में अंतरिम सरकार बनाई गई। कांग्रेस यह चाहती थी कि अखंडित भारत को ही राजनीतिक सत्ता सौंप दी जाए, जबकि मुस्लिम लीग भारत के मुसलमानों के लिए अलग राज्य बनाने की माँग कर रही थी। समझौते के लिए बहुत से प्रस्ताव पेश किए गए, लेकिन जब मुस्लिम लीग के साथ समझौता नहीं हो सका तो न चाहते हुए भी कांग्रेस ने भारत के बंटवारे की बात को मंज़ूर कर लिया। बहुत बार कांग्रेस पार्टी के  भीतर उठे विवादों को हल करने में भी सरोजिनी जी ने 'संकटमोचक' की भूमिका निभायी। श्रीमती एनी बेसेन्ट की प्रिय मित्र और गांधी जी की प्रिय शिष्या ने अपना सम्पूर्ण जीवन देश के लिए अर्पित कर दिया।
 
====भारत विभाजन====
 
[[14 अगस्त]] सन [[1947]] की रात ठीक 12 बजे भारत और [[पाकिस्तान]], दो अलग-अलग राष्ट्र घोषित कर दिये गये और जवाहर लाल नेहरू को भारत के प्रथम [[प्रधानमंत्री]] के रूप में शपथ दिलाई गई। देश का बंटवारा होने के साथ ही भयानक साम्प्रदायिक दंगे हुए और ख़ून की नदियाँ बहीं। संघर्ष और यंत्रणाओं के साथ हमें स्वाधीनता मिली।
 
 
 
==राज्यपाल==
 
स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद, देश को उस लक्ष्य तक पहुँचाने वाले नेताओं के सामने अब दूसरा ही कार्य था। आज तक उन्होंने संघर्ष किया था। किन्तु अब राष्ट्र निर्माण का उत्तरदायित्व उनके कंधों पर आ गया। कुछ नेताओं को सरकारी तंत्र और प्रशासन में नौकरी दे दी गई थी। उनमें सरोजिनी नायडू भी एक थीं। उन्हें [[उत्तर प्रदेश]] का [[राज्यपाल]] नियुक्त कर दिया गया। वह विस्तार और जनसंख्या की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा प्रांत था। उस पद को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा, ''''मैं अपने को 'क़ैद कर दिये गये जंगल के पक्षी' की तरह अनुभव कर रही हूँ।'''' लेकिन वह प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की इच्छा को टाल न सकीं जिनके प्रति उनके मन में गहन प्रेम व स्नेह था। इसलिए वह [[लखनऊ]] में जाकर बस गईं और वहाँ सौजन्य और गौरवपूर्ण व्यवहार के द्वारा अपने राजनीतिक कर्तव्यों को निभाया।
 
==गांधी जी की हत्या==
 
[[चित्र:Sarojini-Naidu-Gandhi-Malaviya.jpg|thumb|250px|सरोजिनी नायडू, [[महात्मा गांधी]] और [[मदनमोहन मालवीय|पंडित मदनमोहन मालवीय]]]]
 
*[[30 जनवरी]] सन [[1948]] को गांधी जी की हत्या के बाद देश भर में उदासी छा गई। शोकातुर प्रधानमंत्री ने गांधी जी को श्रृद्धांजली देते हुए कहा कि 'हमारे बीच से एक रोशनी बुझ गई है।'  
 
*सरोजिनी नायडू ने कहा, 'यही उनके लिए एक महान मृत्यु थी.....व्यक्तिगत दुख मनाने का समय अब बीत चुका है। अब समय आ गया है कि हमें सीना तानकर यह कहना हैः 'महात्मा गांधी का विरोध करने वालों की चुनौती हम स्वीकार करेंगे।'
 
==नारी अधिकारों की समर्थक==
 
सरोजिनी नायडू को विशेष रूप से राष्ट्रीय नेता और नारी-मुक्ति की समर्थक के रूप में याद किया जाता है। राष्ट्रीय नेता होने के कारण उन्हें हमेशा देश की राजनीतिक निर्भरता की चिन्ता रहती थी और एक नारी होने के कारण वह भारतीय नारी की दुखद स्थिति से परिचित थीं। नारी के प्रति हो रहे अन्यायों के विरुद्ध उन्होंने आवाज़ उठाई। नारियों को उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित रखने वाली सामाजिक व्यवस्था का उन्होंने विरोध किया। वह नारीवादी नहीं थीं लेकिन भारत की नारियों को जिन समस्याओं और कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा था उनका उन्हें पूरा-पूरा ख़्याल था। नारियों को शिक्षा से वंचित रखा जाता था और बहुत-सी सामाजिक रूढ़ियों ने उन्हें जकड़ रखा था। सरोजिनी नायडू 'नारी मुक्ति आंदोलन' को भारत के स्वाधीनता संग्राम का एक हिस्सा ही समझती थीं। वह अपने शब्दों की पूर्ण शक्ति के साथ पुरुष और स्त्रियों, दोनों के बीच जाकर नारी शिक्षा की आवश्यकताओं पर ज़ोर देती थीं। अंधकारमय मध्य [[युग]] से पहले नारी को जो प्रतिष्ठा प्राप्त थी उसकी वह अपने श्रोताओं को हमेशा याद दिलाती थीं। सरोजिनी नायडू की नज़रों में शिक्षा नारी मुक्ति की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम था। शिक्षित होकर ही नारी अपने परिवार और समाज को बेहतर बना सकती है। इस उक्ति में उनका पूर्ण विश्वास था कि 'जो हाथ पालना झुलाते हैं वही दुनिया पर शासन करते हैं।' लेकिन उनका यह भी विश्वास था कि किसी अज्ञानी और अशिक्षित नारी का हाथ यह नहीं कर सकता है।<br />
 
स्त्रियों को अपनी क्षमता और अधिकारों का बोध होना भी उनके मत में नारी-शिक्षा जितनी ही महत्त्वपूर्ण था। जहाँ-जहाँ वह गईं वहाँ-वहाँ उन्होंने इन बातों पर ज़ोर दिया। नारी के विकास के विषय में उनकी चिन्ता को देखते हुए उनका 'अखिल भारतीय महिला परिषद' (आल इंडिया विमेन्स कान्फ्रेंस) से जुड़ना स्वाभाविक ही था। यह देश की सबसे पुरानी और महत्त्वपूर्ण नारी संस्था है। आज भारत की नारियों को जो राजनीतिक, आर्थिक और क़ानूनी अधिकार प्राप्त हैं, उन्हें दिलाने में इस संस्था का बहुत बड़ा योगदान रहा है। लेडी धनवती रामा राव और दूसरी अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं की सेवाओं का इस संस्था को लाभ मिला है। [[विजयलक्ष्मी पंडित]], [[कमलादेवी चट्टोपाध्याय]], लक्ष्मी मेनन, हंसाबेन मेहता जैसी बहुत सी महिलाएँ इससे जुड़ी रही हैं। ब्रिटेन की नारी-अधिकारों की प्रसिद्ध समर्थक मार्गरेट कजिन्स का सक्रिय मार्गदर्शन भी इस संस्था को प्राप्त हुआ। अपने जीवन के सक्रिय वर्षों में सरोजिनी नायडू इस संस्था की गतिविधियों की प्रेरणा रही। भारतीय नारी मुक्ति के आंदोलन में दिये गये उनके योगदान और इस संस्था के लिए उनकी सेवाओं को ध्यान में रखते हुए अखिल भारतीय महिला परिषद के नई दिल्ली स्थित केन्द्रीय दफ़्तर को 'सरोजिनी हाउस' नाम दिया गया है। उन्होंने जो इस देश की महिलाओं के लिए किया है उसके लिए उन्हें याद किया जाएगा। उनके प्रभावशाली शब्दों के लिए याद किया जाएगा, जिन्होंने नारी को उसके अधिकारों और शक्ति के प्रति जागरूक किया और जिनके द्वारा वे बेहतर नागरिक और बेहतर इंसान बनीं।
 
 
 
==व्यक्तित्व और सौन्दर्य प्रेम==
 
[[चित्र:Sarojini-Naidu-1.jpg|thumb|200px|सरोजिनी नायडू]]
 
राजनीतिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों के बावजूद सरोजिनी नायडू हंसी और गीत की प्रतीक थीं। कोई बड़ी आम सभा हो या विद्यार्थियों और स्त्रियों का छोटा समुह, या किसी विश्वविद्यालय का दीक्षान्त हो, उनका व्याख्यान किसी गीत के समान ही होता। उनकी वक्तव्य संगीतमय शब्दों में होता था जो समय आने पर सिंह की गर्जना भी बन सकती थी। सौन्दर्य और रंगों के प्रति उनका प्रेम अदभुत था। उस समय के गम्भीर चेहरे वालों और सफ़ेद खाकी की पोशाक पहनने वाले नेता और स्वयं सेवकों से भिन्न वह रंग-बिरंगी चमकीली रेशमी साड़ियाँ पहनती थीं। वह भारी नेक्लेस और ख़ूबसूरत चीज़ में दिलचस्पी लेती थीं। जब वह सन 1928 में [[अमेरिका]] गईं तब जगमगाते सिने तारकों से भरे हालीवुड में जाना भी नहीं भूली थीं। सुन्दर वस्त्रों की तरह स्वादिष्ट भोजन भी उन्हें बड़ा प्रिय था। चॉकलेट और कबाब तो उन्हें बहुत ही पसंद था। वह इतनी नटखट थीं कि खाने के बारे में डॉक्टरों की पाबन्दियों को नज़रअन्दाज करने में उन्हें बड़ा मजा आता था। औपचारिक भोजन दावतों में बैठने की सज़ा उन्हें भुगतनी पड़ती थी, लेकिन [[बम्बई]] के जुहू तट पर भेल-पुरी वह बड़ी लज्जत के साथ खाती थीं। <br />
 
राज्यपाल होने पर भी, सरोजिनी नायडू का व्यवहार हमेशा अनौपचारिक होता था। लोगों की विशेषकर युवा लोगों की वह स्वयं कष्ट सह कर भी सहायता करती थीं। देश की युवा पीढ़ी को वह बहुत चाहती थीं और उन पर उनका गहरा विश्वास था। आख़िर तक उन्होंने अपनी युवा भावनाओं को बनाये रखा था और बढ़ती उम्र और बीमारियों को चुनौती दी थी। अक़्सर सरोजिनी नायडू [[लखनऊ]] में अपने सरकारी निवास स्थान में जाड़ों की धूप में बैठी जासूसी उपन्यास पढ़ती हुई नज़र आ जाती थीं।
 
वाणी और व्यवहार में सरोजिनी नायडू स्नेह की मूर्ति थीं। वह स्नेहमयी पुत्री, पत्नी और माँ थीं। दुनिया भर में अपने मित्र बना लें ऐसी उनकी क्षमता थी। अपने उन मैत्री सम्बन्धों को उन्होंने बड़े प्यार से निभाया था। गांधी जी और गोखले के अतिरिक्त [[रवीन्द्रनाथ ठाकुर]] और सी. एफ. एन्ड्रूज उनके अच्छे मित्रों में से थे। गांधी जी को तो वह 'एक मित्र और गुरु' की तरह चाहती थीं। उनके साथ वह खुल कर हंसती थीं, जो गांधी जी का भी एक विशेष गुण था। गांधी जी के साथ जिस तरह आज़ादी के साथ वह व्यवहार करती थीं, ऐसा करने का और किसी नेता को शायद ही साहस होता था। [[जवाहरलाल नेहरू]] को वह अपना छोटा भाई समझती थीं और [[इन्दिरा गांधी]] के जन्म का उन्होंने 'भारत की नयी चेतना' कहकर स्वागत किया था। वह बात वास्तव में भविष्य की सूचक सिद्ध हुई।
 
 
==स्मृति में डाक टिकट==
 
==स्मृति में डाक टिकट==
[[चित्र:Sarojini-Naidu-Stamp.jpg|thumb|200px|सरोजिनी नायडू के सम्मान में जारी डाक टिकट]]
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[[चित्र:Sarojini-Naidu-Stamp.jpg|thumb|200px|सरोजिनी नायडू के सम्मान में जारी [[डाक टिकट]]]]  
[[13 फ़रवरी]], [[1964]] को भारत सरकार ने उनकी जयंती के अवसर पर उनके सम्मान में 15 नए पैसे का डाक टिकट भी चलाया। इस महान देशभक्त को देश ने बहुत सम्मान दिया। सरोजिनी नायडू को विशेषत: 'भारत कोकिला', 'राष्ट्रीय नेता' और 'नारी मुक्ति आन्दोलन की समर्थक' के रूप में सदैव याद किया जाता रहेगा।
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[[13 फ़रवरी]], [[1964]] को भारत सरकार ने उनकी जयंती के अवसर पर उनके सम्मान में 15 नए पैसे का [[डाक टिकट]] भी चलाया। इस महान् देशभक्त को देश ने बहुत सम्मान दिया। सरोजिनी नायडू को विशेषत: 'भारत कोकिला', 'राष्ट्रीय नेता' और 'नारी मुक्ति आन्दोलन की समर्थक' के रूप में सदैव याद किया जाता रहेगा।
==भारत कोकिला==
 
[[मद्रास]] विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में उन्हें इतने अधिक अंक प्राप्त हुए जितने इससे पहले किसी को भी प्राप्त नहीं हुए थे। उनके पिता गर्व से कहते थे कि वह वैज्ञानिक न बन सकीं, किंतु उन्होंने माँ से प्रेरणा लेकर कविताएं लिखीं, [[बांग्ला भाषा]] में नहीं अपितु [[अंग्रेज़ी]] में। स्वदेश में उन्हें 'गाने वाली चिड़िया' का नाम मिला और विदेश, इंग्लैंड में उन्हें 'भारत कोकिला' कहकर सम्मानित किया गया। डायरी लेखन, नाटक, उपन्यास आदि सभी विधाओं में उन्होंने रचनायें की।
 
 
==मृत्यु==
 
==मृत्यु==
सरोजिनी नायडू की जब [[2 मार्च]] सन [[1949]] को मृत्यु हुई तो उस समय वह [[राज्यपाल]] के पद पर ही थीं। लेकिन उस दिन मृत्यु तो केवल देह की हुई थी। अपनी एक कविता में उन्होंने मृत्यु को कुछ देर के लिए ठहर जाने को कहा था.....
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सरोजिनी नायडू की जब [[2 मार्च]] सन् [[1949]] को मृत्यु हुई तो उस समय वह [[राज्यपाल]] के पद पर ही थीं। लेकिन उस दिन मृत्यु तो केवल देह की हुई थी। अपनी एक कविता में उन्होंने मृत्यु को कुछ देर के लिए ठहर जाने को कहा था.....
 
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मेरे जीवन की क्षुधा, नहीं मिटेगी जब तक
 
मेरे जीवन की क्षुधा, नहीं मिटेगी जब तक
 
मत आना हे मृत्यु, कभी तुम मुझ तक।
 
मत आना हे मृत्यु, कभी तुम मुझ तक।
 
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उनका जीवन लाभदायक और परिपूर्ण था। उस जीवन से उन्हें आत्मसंतुष्टि प्राप्त हुई थी या नहीं यह तो कोई नहीं बता सकता लेकिन जितना उनके जीवन के बारे में जानते हैं उससे इतना तो ज़रूर कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने जीवन को एक उद्देश्य दिया था और उसी के अनुरूप वह जीती रही थीं। ऐसा जीवन बहुत लोगों को नसीब नहीं होता। 'गीत के विषाद से जीवन का विषाद' मिटा देने के लिए वह प्रयास करती रहीं। उसी तरह उन्होंने जीवन बिताया। आने वाली पीढ़ियाँ इसी रूप में उन्हें याद करती रहेंगी। उन्हें याद रखने का यही एक ढंग है— 'सरोजिनी नायडू जो प्रेम और गीत के लिए जीती रहीं।' जैसा [[गांधी जी]] ने कहा था, सच्चे अर्थों में वह 'भारत कोकिला' थीं।   
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उनका जीवन लाभदायक और परिपूर्ण था। उस जीवन से उन्हें आत्मसंतुष्टि प्राप्त हुई थी या नहीं यह तो कोई नहीं बता सकता लेकिन जितना उनके जीवन के बारे में जानते हैं उससे इतना तो ज़रूर कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने जीवन को एक उद्देश्य दिया था और उसी के अनुरूप वह जीती रही थीं। ऐसा जीवन बहुत लोगों को नसीब नहीं होता। 'गीत के विषाद से जीवन का विषाद' मिटा देने के लिए वह प्रयास करती रहीं। उसी तरह उन्होंने जीवन बिताया। आने वाली पीढ़ियाँ इसी रूप में उन्हें याद करती रहेंगी। उन्हें याद रखने का यही एक ढंग है- 'सरोजिनी नायडू जो प्रेम और गीत के लिए जीती रहीं।' जैसा [[गांधी जी]] ने कहा था, सच्चे अर्थों में वह 'भारत कोकिला' थीं।   
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==बाहरी कड़ियाँ==
 
==बाहरी कड़ियाँ==
 
*[http://www.poetseers.org/the_great_poets/in/sarojini_naidu/ सरोजिनी नायडू की जीवनी और कविताएं]
 
*[http://www.poetseers.org/the_great_poets/in/sarojini_naidu/ सरोजिनी नायडू की जीवनी और कविताएं]
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==संबंधित लेख==
 
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[[Category:आधुनिक साहित्य]]
 
 
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05:12, 13 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण

सरोजिनी नायडू विषय सूची
सरोजिनी नायडू
सरोजिनी नायडू
पूरा नाम सरोजिनी नायडू
अन्य नाम भारत कोकिला
जन्म 13 फ़रवरी, 1879
जन्म भूमि हैदराबाद, आंध्र प्रदेश
मृत्यु 2 मार्च, 1949
मृत्यु स्थान इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
अभिभावक अघोरनाथ चट्टोपाध्याय एवं वरदा सुन्दरी
पति/पत्नी डॉ. एम. गोविंदराजलु नायडू
संतान जयसूर्य, पद्मजा नायडू, रणधीर और लीलामणि
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि राष्ट्रीय नेता, कांग्रेस अध्यक्ष
पार्टी कांग्रेस
पद प्रथम राज्यपाल (उत्तर प्रदेश)
विद्यालय मद्रास विश्वविद्यालय, किंग्ज़ कॉलेज लंदन, गर्टन कॉलेज, कैम्ब्रिज
भाषा अंग्रेज़ी, हिन्दी, बंगला और गुजराती
पुरस्कार-उपाधि केसर-ए-हिन्द
विशेष योगदान नारी-मुक्ति की समर्थक
रचनाएँ द गोल्डन थ्रेशहोल्ड, बर्ड आफ टाइम, ब्रोकन विंग
अन्य जानकारी लगभग 13 वर्ष की आयु में सरोजिनी ने 1300 पदों की 'झील की रानी' नामक लंबी कविता और लगभग 2000 पंक्तियों का एक विस्तृत नाटक लिखकर अंग्रेज़ी भाषा पर अपना अधिकार सिद्ध कर दिया।
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सरोजिनी नायडू (अंग्रेज़ी: Sarojini Naidu, जन्म- 13 फ़रवरी, 1879, हैदराबाद; मृत्यु- 2 मार्च, 1949, इलाहाबाद) सुप्रसिद्ध कवयित्री और भारत देश के सर्वोत्तम राष्ट्रीय नेताओं में से एक थीं। वह भारत के स्वाधीनता संग्राम में सदैव आगे रहीं। उनके संगी साथी उनसे शक्ति, साहस और ऊर्जा पाते थे। युवा शक्ति को उनसे आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती थी। बचपन से ही कुशाग्र-बुद्धि होने के कारण उन्होंने 13 वर्ष की आयु में लेडी ऑफ़ दी लेक नामक कविता रची। वे 1895 में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड गईं और पढ़ाई के साथ-साथ कविताएँ भी लिखती रहीं। गोल्डन थ्रैशोल्ड उनका पहला कविता संग्रह था। उनके दूसरे तथा तीसरे कविता संग्रह बर्ड ऑफ टाइम तथा ब्रोकन विंग ने उन्हें एक सुप्रसिद्ध कवयित्री बना दिया।

'श्रम करते हैं हम
कि समुद्र हो तुम्हारी जागृति का क्षण
हो चुका जागरण
अब देखो, निकला दिन कितना उज्ज्वल।'

ये पंक्तियाँ सरोजिनी नायडू की एक कविता से हैं, जो उन्होंने अपनी मातृभूमि को सम्बोधित करते हुए लिखी थी।

जीवन परिचय

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सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फ़रवरी, सन् 1879 को हैदराबाद में हुआ था। अघोरनाथ चट्टोपाध्याय और वरदा सुन्दरी की आठ संतानों में वह सबसे बड़ी थीं। अघोरनाथ एक वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री थे। वह कविता भी लिखते थे। माता वरदा सुन्दरी भी कविता लिखती थीं। अपने कवि भाई हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की तरह सरोजिनी को भी अपने माता-पिता से कविता–सृजन की प्रतिभा प्राप्त हुई थी। अघोरनाथ चट्टोपाध्याय 'निज़ाम कॉलेज' के संस्थापक और रसायन वैज्ञानिक थे। वे चाहते थे कि उनकी पुत्री सरोजिनी अंग्रेज़ी और गणित में निपुण हों।

साहित्यिक परिचय

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सरोजिनी नायडू अपनी शिक्षा के दौरान इंग्लैंड में दो साल तक ही रहीं किंतु वहाँ के प्रतिष्ठित साहित्यकारों और मित्रों ने उनकी बहुत प्रशंसा की। उनके मित्र और प्रशंसकों में 'एडमंड गॉस' और 'आर्थर सिमन्स' भी थे। उन्होंने किशोर सरोजिनी को अपनी कविताओं में गम्भीरता लाने की राय दी। वह लगभग बीस वर्ष तक कविताएँ और लेखन कार्य करती रहीं और इस समय में, उनके तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हुए। उनके कविता संग्रह 'बर्ड ऑफ़ टाइम' और 'ब्रोकन विंग' ने उन्हें एक प्रसिद्ध कवयित्री बनवा दिया। सरोजिनी नायडू को भारतीय और अंग्रेज़ी साहित्य जगत की स्थापित कवयित्री माना जाने लगा था किंतु वह स्वयं को कवि नहीं मानती थीं।

राजनीतिक जीवन

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देश की राजनीति में क़दम रखने से पहले सरोजिनी नायडू दक्षिण अफ़्रीका में गांधी जी के साथ काम कर चुकी थी। गांधी जी वहाँ की जातीय सरकार के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे और सरोजिनी नायडू ने स्वयंसेवक के रूप में उन्हें सहयोग दिया था। भारत लौटने के बाद तुरन्त ही वह राष्ट्रीय आंदोलन में सम्मिलित हो गई। शुरू से ही वह गांधी जी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति वफ़ादार रहीं। उन्होंने विद्यार्थी और युवाओं की सभाओं में भाषण दिए। अनेक शहरों और गाँवों में महिलाओं और आम सभाओं को सम्बोधित किया। सरोजिनी नायडू का स्वास्थ्य कभी अच्छा नहीं रहा। लेकिन उनका मनोबल दृढ़ था। युवावस्था में नहीं, बल्कि बड़ी उम्र होने पर भी वह जोश और उत्साह के साथ काम करती रहीं। यह देखकर सब विस्मित रह जाते थे। उनके साथियों और प्रशंसकों को हैरानी होती थी कि इतनी अजेय शक्ति उन्होंने कहाँ से पाई है।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

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सरोजिनी नायडू और महात्मा गांधी

वास्तव में सन् 1930 के प्रसिद्ध नमक सत्याग्रह में सरोजिनी नायडू गांधी जी के साथ चलने वाले स्वयंसेवकों में से एक थीं। गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद गुजरात में धरासणा में लवण-पटल की पिकेटिंग करते हुए जब तक स्वयं गिरफ्तार न हो गईं तब तक वह आंदोलन का संचालन करती रहीं। धरासणा वह स्थान था जहाँ पुलिस ने शान्तिमय और अहिंसक सत्याग्रहियों पर घोर अत्याचार किए थे। सरोजिनी नायडू ने उस परिस्थिति का बड़े साहस के साथ सामना किया और अपने बेजोड़ विनोदी स्वभाव से वातावरण को सजीव बनाये रखा। नमक सत्याग्रह खत्म कर दिया गया। गांधी-इरविन समझौते पर गांधी जी और भारत के वाइसराय लॉर्ड इरविन ने हस्ताक्षर किये। यह एक राजनीतिक समझौता था। बाद में गांधी जी को सन् 1931 में लंदन में होने वाले दूसरे गोलमेज सम्मेलन में आने के लिए आमंत्रित किया गया। उसमें भारत की स्व-शासन की माँग को ध्यान में रखते हुए संवैधानिक सुधारों पर चर्चा होने वाली थी। उस समय गांधी जी के साथ, सम्मेलन में शामिल होने वाले अनेक लोगों में से सरोजिनी नायडू भी एक थीं। सन् 1935 के भारत सरकार के एक्ट ने भारत को कुछ संवैधानिक अधिकार प्रदान किए। लम्बी बहस के बाद, कांग्रेस, देश की प्रांतीय विधानसभाओं में प्रवेश करने के लिए तैयार हो गयी। उसने चुनाच लड़े और देश के अधिकतर प्रांतों में अपनी सरकारें बनाई जिन्हें अंतरिम सरकारों का नाम दिया गया।

Blockquote-open.gif सरोजिनी नायडू का यह मानना था कि भारतीय नारी कभी भी कृपा की पात्र नहीं थी, वह सदैव से समानता की अधिकारी रही हैं। उन्होंने अपने इन विचारों के साथ महिलाओं में आत्मविश्वास जाग्रत करने का काम किया। Blockquote-close.gif

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निर्भीक व्यक्तित्व

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सरोजिनी नायडू ने भय कभी नहीं जाना था और न ही निराशा कभी उनके समीप आई थी। वह साहस और निर्भीकता का प्रतीक थीं। पंजाब में सन् 1919 में जलियांवाला बाग में हुए हत्याकांड के बारे में कौन नहीं जानता होगा। आम सभाओं पर जनरल डायर के द्वारा लगाय गए प्रतिबंध के विरोध में जमा हुए सैकड़ों नर-नारियों की निर्दयता से हत्या कर दी गई थी। वैसे भी रॉलेट एक्ट के पारित होने से देश में पहले से ही काफ़ी तनाव था। इस एक्ट ने न्यायाधीश को राजनीतिक मुक़दमों को बिना किसी पैरवी के फैसला करने और बिना किसी क़ानूनी कार्रवाई के संदिग्ध राजनीतिज्ञों को जेल में डालने की छूट दे दी थी। जलियांवाला हत्याकांड को लेकर समस्त देश में क्रोध भड़क उठा। उस पाशविक अत्याचार की गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के मन में उग्र प्रतिक्रिया हुई और उन्होंने अपनी 'नाइट हुड' की पदवी लौटा दी। सरोजिनी नायडू ने भी अपना 'कैसर-ए-हिन्द' का ख़िताब वापस कर दिया जो उन्हें सामाजिक सेवाओं के लिय कुछ समय पहले ही दिया गया था। अहमदाबाद में गांधी जी के साबरमती आश्रम में स्वाधीनता की प्रतिज्ञा पर हस्ताक्षर करने वाले आरम्भिक स्वयं सेवकों में वह एक थीं। गांधीजी शुरू में यह नहीं चाहते थे कि महिलाएँ सत्याग्रह में सक्रिय रूप से भाग लें। उनकी प्रवृत्तियों को गांधी जी कताई, स्वदेशी, शराब की दुकानों पर धरना आदि तक सीमित रखना चाहते थे। लेकिन सरोजिनी नायडू, कमला देवी चट्टोपाध्याय और उस समय की देश की प्रमुख महिलाओं के आग्रह को देखते हुए उन्हें अपनी राय बदल देनी पड़ी।

स्मृति में डाक टिकट

सरोजिनी नायडू के सम्मान में जारी डाक टिकट

13 फ़रवरी, 1964 को भारत सरकार ने उनकी जयंती के अवसर पर उनके सम्मान में 15 नए पैसे का डाक टिकट भी चलाया। इस महान् देशभक्त को देश ने बहुत सम्मान दिया। सरोजिनी नायडू को विशेषत: 'भारत कोकिला', 'राष्ट्रीय नेता' और 'नारी मुक्ति आन्दोलन की समर्थक' के रूप में सदैव याद किया जाता रहेगा।

मृत्यु

सरोजिनी नायडू की जब 2 मार्च सन् 1949 को मृत्यु हुई तो उस समय वह राज्यपाल के पद पर ही थीं। लेकिन उस दिन मृत्यु तो केवल देह की हुई थी। अपनी एक कविता में उन्होंने मृत्यु को कुछ देर के लिए ठहर जाने को कहा था.....

मेरे जीवन की क्षुधा, नहीं मिटेगी जब तक
मत आना हे मृत्यु, कभी तुम मुझ तक।

उनका जीवन लाभदायक और परिपूर्ण था। उस जीवन से उन्हें आत्मसंतुष्टि प्राप्त हुई थी या नहीं यह तो कोई नहीं बता सकता लेकिन जितना उनके जीवन के बारे में जानते हैं उससे इतना तो ज़रूर कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने जीवन को एक उद्देश्य दिया था और उसी के अनुरूप वह जीती रही थीं। ऐसा जीवन बहुत लोगों को नसीब नहीं होता। 'गीत के विषाद से जीवन का विषाद' मिटा देने के लिए वह प्रयास करती रहीं। उसी तरह उन्होंने जीवन बिताया। आने वाली पीढ़ियाँ इसी रूप में उन्हें याद करती रहेंगी। उन्हें याद रखने का यही एक ढंग है- 'सरोजिनी नायडू जो प्रेम और गीत के लिए जीती रहीं।' जैसा गांधी जी ने कहा था, सच्चे अर्थों में वह 'भारत कोकिला' थीं।


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बाहरी कड़ियाँ

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