श्री राधाविनोद का मन्दिर वृन्दावन

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  • इसे राजर्षि राय वनमालीदास बहादुर की ठाकुर बाड़ी भी कहते हैं।
  • वृन्दावन से मथुरा वाले राजमार्ग पर बाईं ओर कुछ हट कर कच्चे रास्ते पर यह मन्दिर विराजमान है।
  • बंगाल स्थित तड़ास स्टेट के अधिकारी परम कृष्ण भक्त थे। उनका नाम श्रीवांछारामजी था। वे नित्य पास में ही प्रवाहित नदी में स्नान करते थे। एक समय प्रात:काल स्नान करते समय उन्हें नदी के गर्भ से एक मधुर वाणी सुनाई दी, 'मुझे जल से निकालों तथा घर ले चलो।' परन्तु उन्हें आस-पास कुछ भी दिखाई नहीं दिया। दूसरे दिन भी ऐसा ही हुआ। तीसरे दिन स्नान करते समय उस मधुर वाणी के साथ उन्हें ऐसा लगा कि नदी में जल के भीतर किसी वस्तु का स्पर्श हो रहा हो। जब उन्होंने हाथ से उसे उठाया तो अद्भुत सुन्दर श्रीकृष्ण विग्रह दीख पड़े। वे कृष्ण-विग्रह ही श्रीविनोदठाकुर के नाम से प्रसिद्ध हुए।
  • श्रीठाकुर जी स्वेच्छा से परम भक्त श्री वनमाली रायजी के घर पधारे। उनकी सेवा वहाँ पर विधिवत होने लगी। श्रीवनमाली रायजी की इकलौती कन्या, सर्वगुणसम्पन्ना, परम सुन्दरी, विशेत: भक्तिमती थी। इस राजकुमारी ने जब श्रीविनोद ठाकुर का दर्शन किया तब उनकी मधुर मुस्कान से मुग्ध हो गई। श्रीविनोद-ठाकुर जी भी उस राधा नाम की बालिका के साथ प्रत्यक्ष रूप से खेलने लगे। एक दिन उस राजकुमारी का अंचल पकड़ कर बोले, 'तू मुझसे विवाह कर ले।' इधर कुछ ही दिनों में राजकुमारी बीमार पड़ गई। ठाकुर विनोदजी ने राधा की माँ से स्वप्न में कहा, 'राधा अब नहीं बचेगी। तुम्हारे बगीचे में जो देवदार का सूखा वृक्ष है, उसकी लकड़ी से ठीक राधा जैसी एक मूर्ति बनाकर मेरे साथ विवाह कर दो।' ऐसा ही हुआ। जैसे ही राधा की मूर्ति की प्रतिष्ठा हुई, राजकुमारी राधा का परलोक गमन हो गया। एक ओर राजकुमारी राधा का दाहसंस्कर हुआ तथा दूसरी ओर ठाकुर विनोद जी के साथ राधा की मूर्ति की प्रतिष्ठा हुई। श्रीविनोद ठाकुर अब श्रीराधाविनोद बिहारी ठाकुर हो गये।
  • कुछ दिनों के बाद श्रीवनमाली रायबहादुर श्रीराधाविनोदबिहारी ठाकुर जी को साथ लेकर वृन्दावन में चले आये तथा इसी जगह मन्दिर निर्माण कर ठाकुर जी को पधराया।
  • राजर्षि राय वनमालीदास श्री गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के एक महान् धर्मात्मा महापुरुष थे। इन्होंने देवनागरी अक्षर में श्रीमद्भागवत की आठ टीकाओं वाला एक संस्करण प्रकाशित कराया था।
  • परमाराध्य ॐ विष्णुपाद श्रीश्रीमद्भक्तिप्रज्ञान केशवगोस्वामी महाराज ने भी सन् 1954 ई. के लगभग तड़ास मन्दिर से अष्ट-टीका युक्त श्रीमद्भागवत संग्रह किया था, जो आज भी श्रीकेशव जी गौड़ीय मठ, मथुरा के ग्रन्थागार में सुरक्षित है।

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